सावित्री एक 18 साल की गाओं की लड़की है जिसका बाप बहुत पहले ही मर चुका था
और एक मा और एक छोटा भाई घर मे था. ग़रीबी के चलते मा दूसरों के घरों मे
बर्तन झाड़ू करती और किसी तरह से अपना और बचों का पेट भर लेती. आख़िर
ग़रीबी तो सबसे बड़ा पाप है,,, यही उसके मन मे आता और कभी -2 बड़बड़ाती ..
गाओं का माहौल भी कोई बहुत अच्छा नही था और इसी के चलते सावित्री बेटी की
पड़ाई केवल आठवीं दर्ज़े तक हो सकी. अवारों और गुन्दो की कमी नहीं थी. बस
इज़्ज़त बची रहे एसी बात की चिंता सावित्री की मा सीता को सताती थी.
क्योंकि सीता जो 38 साल की हो चुकी थी करीब दस साल पहले ही विधवा हो चुकी
थी..... ज़िम्मेदारियाँ और परेशानियो के बीच किसी तरह जीवन की गाड़ी चलती
रहे यही रात दिन सोचती और अपने तकदीर को कोस्ती. सावित्री के सयाने होने से
ये मुश्किले और बढ़ती लग रही थी क्योंकि उसका छोटा एक ही बेटा केवल बारह
साल का ही था क्या करता कैसे कमाता... केवल सीता को ही सब कुछ करना पड़ता.
गाओं मे औरतों का जीवन काफ़ी डरावना होता जा रहा था क्योंकि आए दिन कोई ना
कोई शरारत और छेड़ छाड़ हो जाता.. एसी लिए तो सावित्री को आठवीं के बाद आगे
पढ़ाना मुनासिब नहीं समझा. सीता जो कुछ करती काफ़ी सोच समझ कर.. लोग बहुत
गंदे हो गये हैं " यही उसके मन मे आता. कभी सोचती आख़िर क्यों लोग इतने
गंदे और खराब होते जा रहें है.. एक शराब की दुकान भी गाओं के नुक्कड़ पर
खुल कर तो आग मे घी का काम कर रही है. क्या लड़के क्या बूढ़े सब के सब दारू
पी कर मस्त हो जाते हैं और गंदी गलियाँ और अश्लील हरकत लड़ाई झगड़ा सब कुछ
शुरू हो जाता.. वैसे भी दारू की दुकान अवारों का बहुत बढ़ियाँ अड्डा हो
गया था. रोज़ कोई ना कोई नयी बात हो ही जाती बस देर इसी बात की रहती कि
दारू किसी तरह गले के नीचे उतर जाए...फिर क्या कहना गालिया और गंदी बातों
का सिलसिला शुरू होता की ख़त्म होने का नाम ही नही लेता . चार साल पहले
सावित्री ने आठवीं दर्ज़े के बाद स्कूल छोड़ दिया .. वो भी मा के कहने पर
क्योंकि गाओं मे आवारा और गुन्दो की नज़र सावित्री के उपर पड़ने का डर था. ए
भी बात बहुत हद तक सही थी. ऐसा कुछ नही था कि सीता अपने लड़की को पढ़ाना
नहीं चाहती पर क्या करे डर इस बात का था कि कहीं कोई उनहोनी हो ना जाए. चार
साल हो गये तबसे सावित्री केवल घर का काम करती और इधेर उधेर नही जाती. कुछ
औरतों ने सीता को सलाह भी दिया कि सावित्री को भी कहीं किसी के घर झाड़ू
बर्तन के काम पे लगा दे पर सीता दुनिया के सच्चाई से भली भाँति वाकिफ़ थी.
वह खुद दूसरों के यहाँ काम करती तो मर्दो के रुख़ से परिचित थी.. ये बात
उसके बेटी सावित्री के साथ हो यह उसे पसंद नहीं थी. मुहल्ले की कुछ औरतें
कभी पीठ पीछे ताने भी मारती " राजकुमारी बना के रखी है लगता है कभी बाहर की
दुनिया ही नही देखेगी...बस इसी की एक लड़की है और किसी की तो लड़की ही
नहीं है.." धन्नो जो 44 वर्ष की पड़ोस मे रहने वाली तपाक से बोल देती..
धन्नो चाची कुछ मूहफट किस्म की औरत थी और सीता के करीब ही रहने के वजह से
सबकुछ जानती भी थी. अट्ठारह साल होते होते सावित्री का शरीर काफ़ी बदल चुका
था , वह अब एक जवान लड़की थी, माहवारी तो ** वर्ष की थी तभी से आना शुरू
हो गया था. वह भी शरीर और मर्द के बारे मे अपने सहेलिओं और पड़ोसिओं से
काफ़ी कुछ जान चुकी थी. वैसे भी जिस गाँव का माहौल इतना गंदा हो और जिस
मुहल्ले मे रोज झगड़े होते हों तो बच्चे और लड़कियाँ तो गालिओं से बहुत कुछ
समझने लगते हैं. धन्नो चाची के बारे मे भी सावित्री की कुछ सहेलियाँ बताती
हैं को वो कई लोगो से फासी है. वैसे धन्नो चाची की बातें सावित्री को भी
बड़ा मज़ेदार लगता. वो मौका मिलते ही सुनना चाहती. धन्नो चाची किसी से भी
नही डरती और आए दिन किसी ना किसी से लड़ाई कर लेती. एक दिन सावित्री को देख
बोल ही पड़ी " क्या रे तेरे को तो तेरी मा ने क़ैद कर के रख दिया है.
थोड़ा बाहर भी निकल के देख, घर मे पड़े पड़े तेरा दीमाग सुस्त हो जाएगा; मा
से क्यो इतना डरती है " सावित्री ने अपने शर्मीले स्वभाव के चलते कुछ जबाब
देने के बजाय चुप रह एक हल्की मुस्कुराहट और सर झुका लेना ही सही समझा. वह
अपने मा को बहुत मानती और मा भी अपनी ज़िम्मेदारीओं को पूरी तरीके से
निर्वहन करती. वाश्तव मे सावित्री का चरित्र मा सीता के ही वजह से एस गंदे
माहौल मे भी सुरच्छित था. सावित्री एक सामानया कद काठी की शरीर से भरी पूरी
मांसल नितंबो और भारी भारी छातियो और काले घने बाल रंग गेहुआन और चहेरे पर
कुछ मुहाँसे थे. दिखने मे गदराई जवान लड़की लगती. **** मे शरीर के उन अंगो
पर जहाँ रोएँ उगे थे अब वहाँ काफ़ी काले बात उग आए थे. सावित्री का शरीर
सामान्य कद 5'2 '' का लेकिन चौड़ा और मांसल होने के वजह से चूतड़ काफ़ी
बड़ा बड़ा लगता था.
लक्ष्मी की राय सीता को पसंद आ गयी , आखिर कोई तो कोई रास्ता निकालना ही था क्योंकि सावित्री की शादी समय से करना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी. दुसरे दिन लक्ष्मी के साथ सावित्री भोला पंडित के सौंदर्य प्रसाधन के दुकान के लिए चली. कस्बे के एक संकरी गली में उनकी दुकान थी. दुकान एक लम्बे कमरे में थी जिसमे आगे दुकान और पिछले हिस्से में पंडित भोला रहते थे. उनका परिवार दुसरे गाँव में रहता था. लक्ष्मी ने सीता को भोला पंडित से परिचय कराया , स्वभाव से शर्मीली सीता ने सिर नीचे कर हल्की सी मुस्कराई. प्रणाम करने में भी लजा रही थी कारण भी था की वह एक गाँव की काफी शरीफ औरत थी और भोला पंडित से पहली बार मुलाकात हो रही थी. " अरे कैसी हो लक्ष्मी , बहुत दिनों बाद दिखाई दी , मैंने बहुत ईन्तजार किया तुम्हारा , मेरी दुकान पर तुम्हारी बहुत जरूरत है भाई" भोला पंडित ने अपनी बड़ी बड़ी आँखों को नाचते हुए पूछा. " अरे क्या करूँ पंडित जी मेरे ऊपर भी बहुत जिम्मेदारिया है उसी में उलझी रहती हूँ फुर्सत ही नहीं मिलती" लक्ष्मी ने सीता की ओर देखते मुस्कुराते हुए जवाबदिया "जिम्मेदारियो में तो सबकी जिंदगी है लक्ष्मी कम से कम खबर क्र देती , मैं तो तुम्हारे इस आश्वाशन पर की जल्दी मेरे दुकान पर काम करोगी मैंने किसी और लड़की या औरत को ढूंढा भी नहीं" भोला पंडित ने सीता की ओर देखते हुए लक्ष्मी से कुछ शिकायती लहजे में कहा, " मुझे तो फुर्सत अभी नहीं है लेकिन आपके ही काम के लिए आई हूँ और मेरी जगह इनकी लड़की को रख लीजिये . " सीता की ओर लक्ष्मी ने इशारा करते हुए कहा. भोला पंडित कुछ पल शांत रहे फिर पूछे "कौन लड़की है कहाँ , किस दुकान पर काम की है" शायद वह अनुभव जानना चाहते थे "अभी तो कही काम नहीं की है कहीं पर आपके दुकान की जिम्मेदारी बखूबी निभा लेगी " लक्ष्मी ने जबाव दिया लेकिन भोला पंडित के चेहरे पर असंतुष्टि का भाव साफ झलक रहा था शायद वह चाहते थे की लक्ष्मी या कोई पहले से सौन्दर्य प्रसाधन की दुकान पर काम कर चुकी औरत या लड़की को ही रखें . भोला पंडित के रुख़ को देखकर सीता मे माथे पर सिलवटें पड़ गयीं. क्योंकि सीता काफ़ी उम्मीद के साथ आई थी कि उसकी लड़की दुकान पर काम करेगी तब आमदनी अच्छी होगी जो उसके शादी के लिए ज़रूरी था. सीता और लक्ष्मी दोनो की नज़रें भोला पंडित के चेहरे पर एक टक लगी रही कि अंतिम तौर पर क्या कहतें हैं. लक्ष्मी ने कुछ ज़ोर लगाया "पंडित जी लड़की काफ़ी होशियार और समझदार है आपके ग्राहको को समान बखूबी बेच लेगी , एक बार मौका तो दे कर देख लेने मैं क्या हर्ज़ है" पंडित जी माथे पर हाथ फेरते हुए सोचने लगे. एक लंबी सांस छोड़ने के बाद बोले "अरे लक्ष्मी मेरे ग्राहक को एक अनुभवी की ज़रूरत है जो चूड़ी, कंगन, बिंदिया के तमाम वरीटीएस को जानती हो और ग्राहको के नस को टटोलते हुए आराम से बेच सके, तुम्हारी लड़की तो एक दम अनाड़ी है ना, और तुम तो जानती हो कि आजकल समान बेचना कितना मुश्किल होता जा रहा है." सीता चुपचाप एक तक दोनो के बीच के बातों को सुन रही थी. तभी भोला पंडित ने काफ़ी गंभीरता से बोले " लक्ष्मी मुश्किल है मेरे लिए" सीता के मन मे एक निराशा की लहर दौर गयी. थोड़ी देर बाद कुछ और बातें हुई और भोला पंडित के ना तैयार होने की दशा मे दोनो वापस गाओं की ओर चल दी. रास्ते मे लक्ष्मी ने सीता से बोला "तुमने तो लड़की को ना तो पढ़ाया और ना ही कुछ सिखाया और बस घर मैं बैठाए ही रखा तो परेशानी तो होगी ही ना; कहीं पर भी जाओ तो लोग अनुभव या काम करने की हुनर के बारे मे तो पूछेनएगे ही " सीता भी कुछ सोचती रही और रास्ते चलती रही, फिर बोली "अरे तुम तो जानती हो ना की गाओं का कितना गंदा माहौल है कि लड़की का बाहर निकलना ही मुश्किल है, हर जगह हरामी कमीने घूमते रहते हैं, और मेरे तो आगे और पीछे कोई भी नही है कि कल कुछ हो जाए ऐसा वैसा तो" लक्ष्मी फिर जबाव दी पर कुछ खीझ कर " तुम तो बेवजह डरती रहती हो, अरे हर जगह का माहौल तो एसी तरह का है तो इसका यह मतलब तो नही कि लोग अपने काम धंधा छोड़ कर घर मे तेरी बेटी की तरह बैठ जाए. लोग चाहे जैसा हो बाहर निकले बगैर तो कम चलने वाला कहा है. सब लोग जैसे रहेंगे वैसा ही तो हमे भी रहना होगा; " सीता कुछ चुपचाप ही थी और रास्ते पर पैदल चलती जा रही थी. लक्ष्मी कुछ और बोलना सुरू किया "देखो मेरे को मैं भी तो दुकान मैं नौकरी कर लेती इसका ये मतलब तो नही की मेरा कोई चरित्र ही नही या मैं ग़लत हूँ ; ऐसा कुछ नही है बस तुमहरे मन मे भ्रम है कि बाहर निकलते ही चरित्र ख़तम हो जाएगा" सीता ने अपना पच्छ को मजबूत करने की कोशिस मे तर्क दे डाला "तुम तो देखती हो ना की रास्ते मैं यदि ये दारूबाज़ लोफर, लफंगे मिलते हैं तो किस तरह से गंदी बोलियाँ बोलते है, आख़िर मेरी बेटी तो अभी बहुत कच्ची है क्या असर पड़ेगा उसपर" लक्ष्मी के पास भी एसका जबाव तैयार था "मर्दों का तो काम ही यही होता है कि औरत लड़की देखे तो सीटी मार देंगे या कोई छेड़छाड़ शरारत भरी अश्लील बात या बोली बोल देंगे; लेकिन वी बस एससे ज़्यादा और कुछ नही करते, ; और इन सबको को सुनना ही पड़ता है इस दुनिया मे सीता" आगे और बोली "इन बातों को सुन कर नज़रअंदाज कर के अपने काम मे लग जाना ही समझदारी है सीता, तुम तो बाहर कभी निकली नही एसीलिए तुम इतना डरती हो" सीता को ये बाते पसंद नही थी लेकिन एन बातों को मानना जैसे उसकी मज़बूरी दिखी और यही सोच कर सीता ने पलट कर जबाव देना उचित नहीं समझा सीता एक निराश, उदास, और परेशान मन से घर मे घुसी और सावित्री की ओर देखा तभी सावित्री ने जानना चाहा तब सीता ने बताया कि भोला पंडित काम जानने वाली लड़की को रखना चाहता है. वैसे सावित्री के मन मे सीखने की ललक बहुत पहले से ही थी पर मा के बंदिशो से वह सारी ललक और उमंग मर ही गयी थी.
सावित्री के उम्र की लगभग सारी लडकिया किसी ना किसी से चुदती थी कोई साकपाक नहीं थी जिसे कुवारी कहा जा सके . ऐसा होगा भी क्यों नहीं क्योंकि गाँव में जैसे लगता को शरीफ कम और ऐयास, गुंडे, आवारे, लोफर, शराबी, नशेडी ज्यादे रहते तो लड़किओं का इनसे कहाँ तक बचाया जा सकता था. लड़किओं के घर वाले भी पूरी कोसिस करते की इन गंदे लोगो से उनकी लडकिया बची रहे पर चौबीसों घंटे उनपर पहरा देना भी तो संभव नहीं था, और जवानी चढ़ने की देरी भर थी कि आवारे उसके पीछे हाथ धो कर पद जाते. क्योंकि उनके पास कोई और काम तो था नहीं. इसके लिए लड़ाई झगडा गाली गलौज चाहे जो भी हो सब के लिए तैयार होते . नतीजा यही होते कि शरीफ से शरीफ लड़की भी गाँव में भागते बचते ज्यादा दिन तक नहीं रह पाती और किसी दिन किसी गली, खंडहर या बगीचे में, अँधेरे, दोपहर में किसी आवारे के नीचे दबी हुई स्थिति में आ ही जातीं बस क्या था बुर की सील टूटने कि देर भर रहती और एक दबी चीख में टूट भी जाती. और आवारे अपने लन्ड को खून से नहाई बुर में ऐसे दबाते जैसे कोई चाकू मांस में घुस रहा हो. लड़की पहले भले ही ना नुकुर करे पर इन चोदुओं की रगड़दार गहरी चोदाई के बाद ढेर सारा वीर्यपात जो लन्ड को जड़ तक चांप कर बुर की तह उड़ेल कर अपने को अनुभवी आवारा और चोदु साबित कर देते और लड़की भी आवारे लन्ड के स्वाद की शौक़ीन हो जातीं. फिर उन्हें भी ये गंदे लोगो के पास असीम मज़ा होने काअनुभव हो जाता . फिर ऐसी लड़की जयादा दिन तक शरीफ नहीं रह पाती और कुतिया की तरह घूम घूम कर चुदती रहती . घर वाले भी किसी हद तक डरा धमका कर सुधारने की कोशिस करते लेकिन जब लड़की को एक बार लन्ड का पानी चढ़ जाता तो उसका वापस सुधारना बहुत मुश्किल होता. और इन आवारों गुंडों से लड़ाई लेना घर वालों को मुनासिब नहीं था क्योंकि वे खतरनाक भी होते. लिहाज़ा लड़की की जल्दी से शादी कर ससुराल भेजना ही एक मात्र रास्ता दीखता और इस जल्दबाजी में लग भी जाते . शादी जल्दी से तय करना इतना आसान भी ना होता और तब तक लडकिया अपनी इच्छा से इन आवारो से चुदती पिटती रहती. आवारो के संपर्क में आने के वजह से इनका मनोबल काफी ऊँचा हो जाता और वे अपने शादी करने या ना करने और किससे करने के बारे में खुद सोचने और बात करने लगती. और घरवालो के लिए मुश्किल बढ़ जाती . एक बार लड़की आवारो के संपर्क में आई कि उनका हिम्मत यहाँ तक हो जाता कि माँ बाप और घरवालो से खुलकर झगडा करने में भी न हिचकिचाती. यदि मारपीट करने कि कोसिस कोई करे तो लड़की से भागजाने कि धमकी मिलती और चोदु आवारो द्वारा बदले का भी डर रहता. और कई मामलो में घरवाले यदि ज्यादे हिम्मत दिखाए तो घरवालो को ये गुंडे पीट भी देते क्योंकि वे लड़की के तरफ से रहते और कभी कभी लड़की को भगा ले जाते. सबकुछ देखते हुए घरवाले लडकियो और आवारो से ज्यादे पंगा ना लेना ही सही समझते और जल्द से जल्द शादी करके ससुराल भेजने के फिराक में रहते. ऐसे माहौल में घरवाले यह देखते कि लड़की समय बे समय किसी ना किसी बहाने घुमने निकल पड़ती जैसे दोपहर में शौच के लिए तो शाम को बाज़ार और अँधेरा होने के बाद करीब नौ दस बजे तक वापस आना और यही नहीं बल्कि अधि रात को भी उठकर कभी गली या किसी नजदीक बगीचे में जा कर चुद लेना. इनकी भनक घरवालो को खूब रहती पर शोरशराबा और इज्जत के डर से चुप रहते कि ज्याने दो हंगामा ना हो बस . यही कारन था कि लडकिया जो एक बार भी चुद जाती फिर सुधरने का नाम नहीं लेती. आवारो से चुदी पिटी लडकियो में निडरता और आत्मविश्वास ज्यादा ही रहता और इस स्वभाव कि लडकियो कि आपस में दोस्ती भी खूब होती और चुदाई में एक दुसरे कि मदद भी करती. गाँव में जो लडकिया ज्यादे दिनों से चुद रही है या जो छिनार स्वभाव कि औरते नयी चुदैल लडकियो के लिए प्रेरणा और मुसीबत में मार्गदर्शक के साथ साथ मुसीबत से उबरने का भी काम करती थी. जैसे कभी कभी कोई नई छोकरी चुद तो जाती किसी लेकिन गर्भनिरोधक का उपाय किये बगैर नतीजा गर्भ ठहर जाता. इस हालत में लड़की के घर वालो से पहले यही इन चुदैलो को पता चल जाता तो वे बगल के कसबे में चोरी से गर्भ गिरवा भी देती
एक दम अपनी मा सीता की तरह. घर पर पहले तो
फ्रॉक पहनती लेकिन जबसे जंघे मांसल और जवानी चढ़ने लगी मा ने सलवार समीज़
ला कर दे दिया. दुपट्टा के हटने पर सावित्री के दोनो चुचियाँ काफ़ी गोल गोल
और कसे कसे दिखते जो पड़ोसिओं के मूह मे पानी लाने के लिए काफ़ी था ये बात
सच थी की इन अनारों को अभी तक किसी ने हाथ नही लगाया था. लेकिन खिली जवानी
कब तक छुपी रहेगी , शरीर के पूरे विकास के बाद अब सावित्री के मन का भी
विकास होने लगा. जहाँ मा का आदेश की घर के बाहर ना जाना और इधेर उधर ना
घूमना सही लगता वहीं धन्नो चाची की बात की घर मे पड़े पड़े दीमाग सुस्त हो
जाएगा " कुछ ज़्यादा सही लगने लगा. फिर भी वो अपने मा की बातों पर ज़्यादा
गौर करती सीता के मन मे सावित्री के शादी की बात आने लगी और अपने कुछ
रिश्तेदारों से चर्चा भी करती, आख़िर एस ग़रीबी मैं कैसे लड़की की शादी हो
पाएगी. जो भी कमाई मज़दूरी करने से होती वह खाने और पहनने मैं ही ख़त्म हो
जाता. सीता को तो नीद ही नही आती चिंता के मारे इधेर छोटे लड़के कालू की भी
पढ़ाई करानी थी रिश्तेदारों से कोई आशा की किरण ना मिलने से सीता और
परेशान रहने लगी रात दिन यही सोचती कि आख़िर कौन है जो मदद कर सकता है सीता
कुछ क़र्ज़ लेने के बारे मे सोचती तो उस अयाश मंगतराम का चेहरा याद आता जो
गाओं का पैसे वाला सूदखोर बुद्धा था और अपने गंदी हरक़त के लिए प्रषिध्ह
था तभी उसे याद आया कि जब उसके पति की मौत हुई थी तब पति का एक पुराना
दोस्त आया था जिसका नाम सुरतलाल था, वह पैसे वाला था और उसके सोने चाँदी की
दुकान थी और जात का सुनार था उसका घर सीता के गाओं से कुछ 50 मील दूर एक
छोटे शहर मे था, बहुत पहले सीता अपने पति के साथ उसकी दुकान पर गयी थी जो
एक बड़े मंदिर के पास थी सीता की आँखे चमक गयी की हो सकता है सुरतलाल से
कुछ क़र्ज़ मिल जाए जो वह धीरे धीरे चुकता कर देगी
एक दिन समय निकाल कर सीता उस सुरतलाल के
दुकान पर गयी तो निराशा ही हाथ लगी क्योंकि सुरतलाल को इस बात का यकीन नहीं
था कि सीता उसका क़र्ज़ कैसे वापस करसकेगी..... सीता की परेशानियाँ और
बढ़ती नज़र आ रही थी कभी इन उलज़हनो मे यह सोचती कि यदि सावित्री भी कुछ कम
करे तो आमदनी बढ़ जाए और शादी के लिए पैसे भी बचा लिया जाए चौतरफ़ा
समस्याओं से घिरता देख सीता ने लगभग हथियार डालना शुरू कर दिया.. अपनी ज़िद
, सावित्री काम करने के बज़ाय घर मे ही सुरक्ष्हित रखेगी को वापस लेने लगी
उसकी सोच मे सावित्री के शादी के लिए पैसे का इंतज़ाम ज़्यादा ज़रूरी लगने
लगा. गाओं के मंगतराम से क़र्ज़ लेने का मतलब कि वह सूद भी ज़्यादा लेता
और लोग यह भी सोचते की मंगतराम मज़ा भी लेता होगा, इज़्ज़त भी खराब होती सो
अलग. सीता की एक सहेली लक्ष्मी ने एक सलाह दी कि "सावित्री को क्यो ना एक
चूड़ी के दुकान पर काम करने के लिए लगा देती " यह सुनकर की सावित्री गाओं
के पास छोटे से कस्बे मे कॉसमेटिक चूड़ी लिपीसटिक की दुकान पर रहना होगा,
गहरी सांस ली और सोचने लगी. सहेली उसकी सोच को समझते बोली " अरी चिंता की
कोई बात नही है वहाँ तो केवल औरतें ही तो आती हैं, बस चूड़ी, कंगन, और
सौंदर्या का समान ही तो बेचना है मालिक के साथ, बहुत सारी लड़कियाँ तो ऐसे
दुकान पर काम करती हैं " इस बात को सुन कर सीता को संतुष्टि तो हुई पर पूछा
" मालिक कौन हैं दुकान का यानी सावित्री किसके साथ दुकान पर रहेगी" इस पर
सहेली लक्ष्मी जो खुद एक सौंदर्या के दुकान पर काम कर चुकी थी और कुछ
दुकानो के बारे मे जानती थी ने सीता की चिंता को महसूस करते कहा " अरे सीता
तू चिंता मत कर , दुकान पर चाहे जो कोई हो समान तो औरतों को ही बेचना है ,
बस सीधे घर आ जाना है, वैसे मैं एक बहुत अच्छे आदमी के सौंदर्या के दुकान
पर सावित्री को रखवा दूँगी और वो है भोला पंडित की दुकान, वह बहुत शरीफ
आदमी हैं , बस उनके साथ दुकान मे औरतों को समान बेचना है, उनकी उम्र भी 50
साल है बाप के समान हैं मैं उनको बहुत दीनो से जानती हूँ, इस कस्बे मे उनकी
दुकान बहुत पुरानी है, वे शरीफ ना होते तो उनकी दुकान इतने दीनो तक चलती
क्या?" सीता को भोला पंडित की बुढ़ापे की उम्र और पुराना दुकानदार होने से
काफ़ी राहत महसूस कर, सोच रही थी कि उसकी बेटी सावित्री को कोई परेशानी नही
होगी.
लक्ष्मी की राय सीता को पसंद आ गयी , आखिर कोई तो कोई रास्ता निकालना ही था क्योंकि सावित्री की शादी समय से करना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी. दुसरे दिन लक्ष्मी के साथ सावित्री भोला पंडित के सौंदर्य प्रसाधन के दुकान के लिए चली. कस्बे के एक संकरी गली में उनकी दुकान थी. दुकान एक लम्बे कमरे में थी जिसमे आगे दुकान और पिछले हिस्से में पंडित भोला रहते थे. उनका परिवार दुसरे गाँव में रहता था. लक्ष्मी ने सीता को भोला पंडित से परिचय कराया , स्वभाव से शर्मीली सीता ने सिर नीचे कर हल्की सी मुस्कराई. प्रणाम करने में भी लजा रही थी कारण भी था की वह एक गाँव की काफी शरीफ औरत थी और भोला पंडित से पहली बार मुलाकात हो रही थी. " अरे कैसी हो लक्ष्मी , बहुत दिनों बाद दिखाई दी , मैंने बहुत ईन्तजार किया तुम्हारा , मेरी दुकान पर तुम्हारी बहुत जरूरत है भाई" भोला पंडित ने अपनी बड़ी बड़ी आँखों को नाचते हुए पूछा. " अरे क्या करूँ पंडित जी मेरे ऊपर भी बहुत जिम्मेदारिया है उसी में उलझी रहती हूँ फुर्सत ही नहीं मिलती" लक्ष्मी ने सीता की ओर देखते मुस्कुराते हुए जवाबदिया "जिम्मेदारियो में तो सबकी जिंदगी है लक्ष्मी कम से कम खबर क्र देती , मैं तो तुम्हारे इस आश्वाशन पर की जल्दी मेरे दुकान पर काम करोगी मैंने किसी और लड़की या औरत को ढूंढा भी नहीं" भोला पंडित ने सीता की ओर देखते हुए लक्ष्मी से कुछ शिकायती लहजे में कहा, " मुझे तो फुर्सत अभी नहीं है लेकिन आपके ही काम के लिए आई हूँ और मेरी जगह इनकी लड़की को रख लीजिये . " सीता की ओर लक्ष्मी ने इशारा करते हुए कहा. भोला पंडित कुछ पल शांत रहे फिर पूछे "कौन लड़की है कहाँ , किस दुकान पर काम की है" शायद वह अनुभव जानना चाहते थे "अभी तो कही काम नहीं की है कहीं पर आपके दुकान की जिम्मेदारी बखूबी निभा लेगी " लक्ष्मी ने जबाव दिया लेकिन भोला पंडित के चेहरे पर असंतुष्टि का भाव साफ झलक रहा था शायद वह चाहते थे की लक्ष्मी या कोई पहले से सौन्दर्य प्रसाधन की दुकान पर काम कर चुकी औरत या लड़की को ही रखें . भोला पंडित के रुख़ को देखकर सीता मे माथे पर सिलवटें पड़ गयीं. क्योंकि सीता काफ़ी उम्मीद के साथ आई थी कि उसकी लड़की दुकान पर काम करेगी तब आमदनी अच्छी होगी जो उसके शादी के लिए ज़रूरी था. सीता और लक्ष्मी दोनो की नज़रें भोला पंडित के चेहरे पर एक टक लगी रही कि अंतिम तौर पर क्या कहतें हैं. लक्ष्मी ने कुछ ज़ोर लगाया "पंडित जी लड़की काफ़ी होशियार और समझदार है आपके ग्राहको को समान बखूबी बेच लेगी , एक बार मौका तो दे कर देख लेने मैं क्या हर्ज़ है" पंडित जी माथे पर हाथ फेरते हुए सोचने लगे. एक लंबी सांस छोड़ने के बाद बोले "अरे लक्ष्मी मेरे ग्राहक को एक अनुभवी की ज़रूरत है जो चूड़ी, कंगन, बिंदिया के तमाम वरीटीएस को जानती हो और ग्राहको के नस को टटोलते हुए आराम से बेच सके, तुम्हारी लड़की तो एक दम अनाड़ी है ना, और तुम तो जानती हो कि आजकल समान बेचना कितना मुश्किल होता जा रहा है." सीता चुपचाप एक तक दोनो के बीच के बातों को सुन रही थी. तभी भोला पंडित ने काफ़ी गंभीरता से बोले " लक्ष्मी मुश्किल है मेरे लिए" सीता के मन मे एक निराशा की लहर दौर गयी. थोड़ी देर बाद कुछ और बातें हुई और भोला पंडित के ना तैयार होने की दशा मे दोनो वापस गाओं की ओर चल दी. रास्ते मे लक्ष्मी ने सीता से बोला "तुमने तो लड़की को ना तो पढ़ाया और ना ही कुछ सिखाया और बस घर मैं बैठाए ही रखा तो परेशानी तो होगी ही ना; कहीं पर भी जाओ तो लोग अनुभव या काम करने की हुनर के बारे मे तो पूछेनएगे ही " सीता भी कुछ सोचती रही और रास्ते चलती रही, फिर बोली "अरे तुम तो जानती हो ना की गाओं का कितना गंदा माहौल है कि लड़की का बाहर निकलना ही मुश्किल है, हर जगह हरामी कमीने घूमते रहते हैं, और मेरे तो आगे और पीछे कोई भी नही है कि कल कुछ हो जाए ऐसा वैसा तो" लक्ष्मी फिर जबाव दी पर कुछ खीझ कर " तुम तो बेवजह डरती रहती हो, अरे हर जगह का माहौल तो एसी तरह का है तो इसका यह मतलब तो नही कि लोग अपने काम धंधा छोड़ कर घर मे तेरी बेटी की तरह बैठ जाए. लोग चाहे जैसा हो बाहर निकले बगैर तो कम चलने वाला कहा है. सब लोग जैसे रहेंगे वैसा ही तो हमे भी रहना होगा; " सीता कुछ चुपचाप ही थी और रास्ते पर पैदल चलती जा रही थी. लक्ष्मी कुछ और बोलना सुरू किया "देखो मेरे को मैं भी तो दुकान मैं नौकरी कर लेती इसका ये मतलब तो नही की मेरा कोई चरित्र ही नही या मैं ग़लत हूँ ; ऐसा कुछ नही है बस तुमहरे मन मे भ्रम है कि बाहर निकलते ही चरित्र ख़तम हो जाएगा" सीता ने अपना पच्छ को मजबूत करने की कोशिस मे तर्क दे डाला "तुम तो देखती हो ना की रास्ते मैं यदि ये दारूबाज़ लोफर, लफंगे मिलते हैं तो किस तरह से गंदी बोलियाँ बोलते है, आख़िर मेरी बेटी तो अभी बहुत कच्ची है क्या असर पड़ेगा उसपर" लक्ष्मी के पास भी एसका जबाव तैयार था "मर्दों का तो काम ही यही होता है कि औरत लड़की देखे तो सीटी मार देंगे या कोई छेड़छाड़ शरारत भरी अश्लील बात या बोली बोल देंगे; लेकिन वी बस एससे ज़्यादा और कुछ नही करते, ; और इन सबको को सुनना ही पड़ता है इस दुनिया मे सीता" आगे और बोली "इन बातों को सुन कर नज़रअंदाज कर के अपने काम मे लग जाना ही समझदारी है सीता, तुम तो बाहर कभी निकली नही एसीलिए तुम इतना डरती हो" सीता को ये बाते पसंद नही थी लेकिन एन बातों को मानना जैसे उसकी मज़बूरी दिखी और यही सोच कर सीता ने पलट कर जबाव देना उचित नहीं समझा सीता एक निराश, उदास, और परेशान मन से घर मे घुसी और सावित्री की ओर देखा तभी सावित्री ने जानना चाहा तब सीता ने बताया कि भोला पंडित काम जानने वाली लड़की को रखना चाहता है. वैसे सावित्री के मन मे सीखने की ललक बहुत पहले से ही थी पर मा के बंदिशो से वह सारी ललक और उमंग मर ही गयी थी.
सारी रात सीता को नीद नही आ रही थी वो यही
सोचती कि आख़िर सावित्री को कहाँ और कैसे काम पर लगाया जाए. भोला पंडित की
वो बात जिसमे उन्होने अनुभव और लक्ष्मी की बात जिसमे 'सुनना ही पड़ता है
और बिना बाहर निकले कुछ सीखना मुस्किल है' मानो कान मे गूँज रहे थे और कह
रहे थे कि सीता अब हिम्मत से काम लो . बेबस सीता के दुखी मन मे अचानक एक
रास्ता दिखा पर कुछ मुस्किल ज़रूर था, वो ये की भोला पंडित लक्ष्मी को अपने
यहाँ काम पर रखना चाहता था पर लक्ष्मी अभी तैयार नहीं थी और दूसरी बात की
सावित्री को काम सीखना जो लक्ष्मी सिखा सकती थी. सीता अपने मन मे ये भी
सोचती कि यदि पंडित पैसा कुछ काम भी दे तो चलेगा . बस कुछ दीनो मे सावित्री
काम सिख लेगी तो कहीं पर काम करके पैसा कमा सकेगी. इसमे मुस्किल इस बात की
थी कि लक्ष्मी को तैयार करना और भोला पंडित का राज़ी होना. यही सब सोचते
अचानक नीद लगी तो सुबह हो गयी. सुबह सुबह ही वो लक्ष्मी के घर पर पहुँच
अपनी बात को काफ़ी विनम्रता और मजबूरी को उजागर करते हुए कहा. शायद भगवान
की कृपा ही थी कि लक्ष्मी तैयार हो गयी फिर क्या था दिन मे दोनो फिर भोला
पंडित के दुकान पर पहुँचे. भोला पंडित जो लक्ष्मी को तो दुकान मे रखना
चाहता था पर सावित्री को बहुत काम पैसे मे ही रखने के लिए राज़ी हुआ. सीता
खुस इस बात से ज़्यादा थी कि सावित्री कुछ सीख लेगी , क्योंकि की पैसा तो
भोला पंडित बहुत काम दे रहा था सावित्री को . "आख़िर भगवान ने सुन ही लिया"
सीता लगभग खुश ही थी और रास्ते मे लक्ष्मी से कहा और लक्ष्मी का अपने उपर
एहसान जताया
घर पहुँचने के बाद सीता ने सावित्री को इस
बात की जानकारी दी की कल से लक्ष्मी के साथ भोला पंडित के दुकान पर जा कर
कम करना है . सावित्री मन ही मन खुस थी , उसे ऐसे लगा की वह अब अपने माँ पर
बहुत भर नहीं है उम्र १८ की पूरी हो चुकी थी शरीर से काफी विकसित, मांसल
जांघ, गोल और चौड़े चुतड, गोल और अनार की तरह कसी चुचिया काफी आकर्षक लगती
थी. सलवार समीज और चुचिया बड़ी आकार के होने के वजह से ब्रा भी पहनती और
नीचे सूती की सस्ती वाली चड्डी पहनती जिसकी सीवन अक्सर उभाड जाता. सावित्री
के पास कुल दो ब्रा और तीन चड्ढी थी एक लाल एक बैगनी और एक काली रंग की,
सावित्री ने इन सबको एक मेले में से जा कर खरीदी धी. सावित्री के पास कपड़ो
की संख्या कोई ज्यादा नहीं थी कारण गरीबी. जांघों काफी सुडौल और मोती होने
के वजह से चड्डी , जो की एक ही साइज़ की थी, काफी कसी होती थी. रानो की
मोटाई चड्ढी में कस उठती मानो थोडा और जोर लगे तो फट जाये. रानो का रंग कुछ
गेहुआं था और जन्घो की पट्टी कुछ काले रंग लिए था लेकिन झांट के बाल काफी
काले और मोटे थे. बुर की उभार एकदम गोल पावरोटी के तरह थी. कद भले ही कुछ
छोटा था लेकिन शरीर काफी कसी होने के कारण दोनों रानो के बीच बुर एकदम
खरबूज के फांक की तरह थी. कभी न चुदी होने के नाते बुर की दोनों फलके एकदम
सटी थी रंग तो एकदम काला था . झांटो की सफाई न होने और काफी घने होने के
कारण बुर के ऊपर किसी जंगल की तरह फ़ैल कर ढक रखे थे.
जब भी पेशाब करने बैठती तो पेशाब की धार
झांटो को चीरता हुआ आता इस वजह से जब भी पेशाब कर के उठती झांटो में मूत के
कुछ बूंद तो जरूर लग जाते जो चड्डी पहने पर चड्डी में लगजाते. गोल गोल
चूतडों पर चड्ढी एकदम चिपक ही जाती और जब सावित्री को पेशाब करने के लिए
सलवार के बाद चड्ढी सरकाना होता तो कमर के पास से उंगलिओं को चड्ढी के
किनारे में फंसा कर चड्ढी को जब सरकाती तो लगता की कोई पतली परत चुतद पर से
निकल रही है. चड्ढी सरकते ही चुतड को एक अजीब सी ठंढी हवा की अनुभूति
होती. चड्ढी सरकने के बाद गोल गोल कसे हुए जांघो में जा कर लगभग फंस ही
जाती, पेशाब करने के लिए सावधानी से बैठती जिससे चड्ढी पर ज्यादे खिंचाव न
हो और जन्घो के बीच कुछ इतना जगह बन जाय की पेशाब की धार बुर से सीधे जमीन
पर गिरे . कभी कभी थोडा भी बैठने में गड़बड़ी होती तो पेशाब की गर्म धार
सीधे जमीन के बजाय नीचे पैर में फंसे सलवार पर गिरने लगती लिहाज़ा सावित्री
को पेशाब तुरंत रोक कर चौड़े चुतड को हवा में उठा कर फिर से चड्ढी सलवार और
जांघो को कुछ इतना फैलाना पड़ता की पेशाब पैर या सलवार पर न पडके सीधे
जमीन पर गिरे. फिर भी सावित्री को मूतते समय मूत की धार को भी देखना पड़ता
की दोनों पंजों के बीच खाली जगह पर गिरे. इसके साथ साथ सिर घुमा कर इर्द
गिर्द भी नज़र रखनी पड़ती कि कहीं कोई देख न ले. खुले में पेशाब करने में
गाँव कि औरतों को इस समस्या से जूझनापड़ता. सावित्री जब भी पेशाब करती तो
अपने घर के दीवाल के पीछे एक खाली पतली गली जो कुछ आड़ कर देती और उधर किसी
के आने जाने का भी डर न होता . माँ सीता के भी मुतने का वही स्थान था. और
मूतने के वजह से वहां मूत का गंध हमेशा रहता. मूतने के बाद सावित्री सीधा
कड़ी होती और पहले दोनों जांघों कि गोल मोटे रानो में फंसे चड्ढी को उंगलिओं
के सहारे ऊपरचढ़ाती चड्ढी के पहले अगले भाग को ऊपर चड़ा कर झांटों के जंगल
से ढके बुर को ढक लेती फिर एक एक करके दोनों मांसल गोल चूतडो पर चड्ढी को
चढ़ाती. फिर भी सावित्री को यह महसूस होता की चड्ढी या तो छोटी है या उसका
शरीर कुछ ज्यादा गदरा गया है. पहनने के बाद बड़ी मुश्किल से चुतड और झांटों
से ढकी बुर चड्ढी में किसी तरीके से आ पाती , फिर भी ऐसा लगता की कभी भी
चड्ढी फट जाएगी. बुर के ऊपर घनी और मोटे बालो वाली झांटे देखने से मालूम
देती जैसे किसी साधू की घनी दाढ़ी है और चड्डी के अगले भाग जो झांटों के साथ
साथ बुर की सटी फांको को , जो झांटो के नीचे भले ही छुपी थी पर फांको का
बनावट और उभार इतना सुडौल और कसा था की झांटों के नीचे एक ढंग का उभार
तैयार करती और कसी हुई सस्ती चड्डी को बड़ी मुस्किल से छुपाना पड़ता फिर भी
दोनों फांको पर पूरी तरह चड्डी का फैलाव कम पड़ जाता , लिहाज़ा फांके तो
किसी तरह ढँक जाती पर बुर के फांको पर उगे काले मोटे घने झांट के बाल चड्डी
के अगल बगल से काफी बाहर निकल आते और उनके ढकने के जिम्मेदारी सलवार की हो
जाती. इसका दूसरा कारण यह भी था की सावित्री एक गाँव की काफी सीधी साधी
लड़की थी जो झांट के रख रखाव पर कोई ध्यान नहीं देती और शारीरिक रूप से
गदराई और कसी होने के साथ साथ झांट के बाल कुछ ज्यादा ही लम्बे और घना होना
भी था. सावित्री की दोनों चुचिया अपना पूरा आकार ले चुकी थी और ब्रेसरी
में उनका रहना लगभग मुस्किल ही था, फिर भी दो ब्रेस्रियो में किसी तरह
उन्हें सम्हाल कर रख लेती. जब भी ब्रेसरी को बंद करना पड़ता तो सावित्री को
काफी दिक्कत होती. सावित्री ब्रा या ब्रेसरी को देहाती भाषा में "चुचिकस"
कहती क्योंकि गाँव की कुछ औरते उसे इसी नाम से पुकारती वैसे इसका काम तो
चुचिओ को कस के रखना ही था. बाह के कांख में बाल काफी उग आये थे झांट की
तरह उनका भी ख्याल सावित्री नहीं रखती नतीजा यह की वे भी काफी संख्या में
जमने से कांख में कुछ कुछ भरा भरा सा लगता. सावित्री जब भी चलती तो आगे
चुचिया और पीछे चौड़ा चुतड खूब हिलोर मारते. सावित्री के गाँव में आवारों और
उचक्कों की बाढ़ सी आई थी.
सावित्री के उम्र की लगभग सारी लडकिया किसी ना किसी से चुदती थी कोई साकपाक नहीं थी जिसे कुवारी कहा जा सके . ऐसा होगा भी क्यों नहीं क्योंकि गाँव में जैसे लगता को शरीफ कम और ऐयास, गुंडे, आवारे, लोफर, शराबी, नशेडी ज्यादे रहते तो लड़किओं का इनसे कहाँ तक बचाया जा सकता था. लड़किओं के घर वाले भी पूरी कोसिस करते की इन गंदे लोगो से उनकी लडकिया बची रहे पर चौबीसों घंटे उनपर पहरा देना भी तो संभव नहीं था, और जवानी चढ़ने की देरी भर थी कि आवारे उसके पीछे हाथ धो कर पद जाते. क्योंकि उनके पास कोई और काम तो था नहीं. इसके लिए लड़ाई झगडा गाली गलौज चाहे जो भी हो सब के लिए तैयार होते . नतीजा यही होते कि शरीफ से शरीफ लड़की भी गाँव में भागते बचते ज्यादा दिन तक नहीं रह पाती और किसी दिन किसी गली, खंडहर या बगीचे में, अँधेरे, दोपहर में किसी आवारे के नीचे दबी हुई स्थिति में आ ही जातीं बस क्या था बुर की सील टूटने कि देर भर रहती और एक दबी चीख में टूट भी जाती. और आवारे अपने लन्ड को खून से नहाई बुर में ऐसे दबाते जैसे कोई चाकू मांस में घुस रहा हो. लड़की पहले भले ही ना नुकुर करे पर इन चोदुओं की रगड़दार गहरी चोदाई के बाद ढेर सारा वीर्यपात जो लन्ड को जड़ तक चांप कर बुर की तह उड़ेल कर अपने को अनुभवी आवारा और चोदु साबित कर देते और लड़की भी आवारे लन्ड के स्वाद की शौक़ीन हो जातीं. फिर उन्हें भी ये गंदे लोगो के पास असीम मज़ा होने काअनुभव हो जाता . फिर ऐसी लड़की जयादा दिन तक शरीफ नहीं रह पाती और कुतिया की तरह घूम घूम कर चुदती रहती . घर वाले भी किसी हद तक डरा धमका कर सुधारने की कोशिस करते लेकिन जब लड़की को एक बार लन्ड का पानी चढ़ जाता तो उसका वापस सुधारना बहुत मुश्किल होता. और इन आवारों गुंडों से लड़ाई लेना घर वालों को मुनासिब नहीं था क्योंकि वे खतरनाक भी होते. लिहाज़ा लड़की की जल्दी से शादी कर ससुराल भेजना ही एक मात्र रास्ता दीखता और इस जल्दबाजी में लग भी जाते . शादी जल्दी से तय करना इतना आसान भी ना होता और तब तक लडकिया अपनी इच्छा से इन आवारो से चुदती पिटती रहती. आवारो के संपर्क में आने के वजह से इनका मनोबल काफी ऊँचा हो जाता और वे अपने शादी करने या ना करने और किससे करने के बारे में खुद सोचने और बात करने लगती. और घरवालो के लिए मुश्किल बढ़ जाती . एक बार लड़की आवारो के संपर्क में आई कि उनका हिम्मत यहाँ तक हो जाता कि माँ बाप और घरवालो से खुलकर झगडा करने में भी न हिचकिचाती. यदि मारपीट करने कि कोसिस कोई करे तो लड़की से भागजाने कि धमकी मिलती और चोदु आवारो द्वारा बदले का भी डर रहता. और कई मामलो में घरवाले यदि ज्यादे हिम्मत दिखाए तो घरवालो को ये गुंडे पीट भी देते क्योंकि वे लड़की के तरफ से रहते और कभी कभी लड़की को भगा ले जाते. सबकुछ देखते हुए घरवाले लडकियो और आवारो से ज्यादे पंगा ना लेना ही सही समझते और जल्द से जल्द शादी करके ससुराल भेजने के फिराक में रहते. ऐसे माहौल में घरवाले यह देखते कि लड़की समय बे समय किसी ना किसी बहाने घुमने निकल पड़ती जैसे दोपहर में शौच के लिए तो शाम को बाज़ार और अँधेरा होने के बाद करीब नौ दस बजे तक वापस आना और यही नहीं बल्कि अधि रात को भी उठकर कभी गली या किसी नजदीक बगीचे में जा कर चुद लेना. इनकी भनक घरवालो को खूब रहती पर शोरशराबा और इज्जत के डर से चुप रहते कि ज्याने दो हंगामा ना हो बस . यही कारन था कि लडकिया जो एक बार भी चुद जाती फिर सुधरने का नाम नहीं लेती. आवारो से चुदी पिटी लडकियो में निडरता और आत्मविश्वास ज्यादा ही रहता और इस स्वभाव कि लडकियो कि आपस में दोस्ती भी खूब होती और चुदाई में एक दुसरे कि मदद भी करती. गाँव में जो लडकिया ज्यादे दिनों से चुद रही है या जो छिनार स्वभाव कि औरते नयी चुदैल लडकियो के लिए प्रेरणा और मुसीबत में मार्गदर्शक के साथ साथ मुसीबत से उबरने का भी काम करती थी. जैसे कभी कभी कोई नई छोकरी चुद तो जाती किसी लेकिन गर्भनिरोधक का उपाय किये बगैर नतीजा गर्भ ठहर जाता. इस हालत में लड़की के घर वालो से पहले यही इन चुदैलो को पता चल जाता तो वे बगल के कसबे में चोरी से गर्भ गिरवा भी देती
घर पहुँचने के बाद सीता ने सावित्री को इस
बात की जानकारी दी की कल से लक्ष्मी के साथ भोला पंडित के दुकान पर जा कर
कम करना है . सावित्री मन ही मन खुस थी , उसे ऐसे लगा की वह अब अपने माँ पर
बहुत भर नहीं है उम्र १८ की पूरी हो चुकी थी शरीर से काफी विकसित, मांसल
जांघ, गोल और चौड़े चुतड, गोल और अनार की तरह कसी चुचिया काफी आकर्षक लगती
थी. सलवार समीज और चुचिया बड़ी आकार के होने के वजह से ब्रा भी पहनती और
नीचे सूती की सस्ती वाली चड्डी पहनती जिसकी सीवन अक्सर उभाड जाता. सावित्री
के पास कुल दो ब्रा और तीन चड्ढी थी एक लाल एक बैगनी और एक काली रंग की,
सावित्री ने इन सबको एक मेले में से जा कर खरीदी धी. सावित्री के पास कपड़ो
की संख्या कोई ज्यादा नहीं थी कारण गरीबी. जांघों काफी सुडौल और मोती होने
के वजह से चड्डी , जो की एक ही साइज़ की थी, काफी कसी होती थी. रानो की
मोटाई चड्ढी में कस उठती मानो थोडा और जोर लगे तो फट जाये. रानो का रंग कुछ
गेहुआं था और जन्घो की पट्टी कुछ काले रंग लिए था लेकिन झांट के बाल काफी
काले और मोटे थे. बुर की उभार एकदम गोल पावरोटी के तरह थी. कद भले ही कुछ
छोटा था लेकिन शरीर काफी कसी होने के कारण दोनों रानो के बीच बुर एकदम
खरबूज के फांक की तरह थी. कभी न चुदी होने के नाते बुर की दोनों फलके एकदम
सटी थी रंग तो एकदम काला था . झांटो की सफाई न होने और काफी घने होने के
कारण बुर के ऊपर किसी जंगल की तरह फ़ैल कर ढक रखे थे.
ऐसे माहौल में घरवाले चाहे जितनी जल्दी
शादी करते पर तब तक उनके लडकियो की बुरो को आवारे चोद चोद कर एक नया आकार
के डालते जिसे बुर या चूत नहीं बल्कि भोसड़ा ही कह सकते है. यानि शादी का
बाद लड़की की विदाई होती तो अपने ससुराल कुवारी बुर के जगह खूब चुदी पिटी
भोसड़ा ही ले जाती और सुहागरात में उसका मर्द अपने दुल्हन के बुर या चुदैल
के भोसड़ा में भले ही अंतर समझे या न समझे लड़की या दुल्हन उसके लन्ड की ताकत
की तुलना अपने गाँव के आवारो के दमदार लंडों से खूब भली भाती कर लेती. जो
लड़की गाँव में घुमघुम कर कई लंडो का स्वाद ले चुकी रहती है उसे अपने ससुराल
में एक मर्द से भूख मिटता नज़र नहीं आता. वैसे भी आवारे जितनी जोश और ताकत
से चोदते उतनी चुदाई की उमंग शादी के बाद पति में न मिलता. नतीजा अपने गाँव
के आवारो के लंडो की याद और प्यास बनी रहती और ससुराल से अपने मायका वापस
आने का मन करनेलगता. ऐसे माहौल में सावित्री का बचे रहना केवल उसकी माँ के
समझदारी और चौकन्ना रहने के कारण था . सावित्री के बगल में ही एक पुरानी
चुड़ैल धन्नो चाची का घर था जिसके यहाँ कुछ चोदु लोग आते जाते रहते ,
सावित्री की माँ सीता इस बात से सजग रहती और सावित्री को धन्नो चाची के घर न
जाने और उससे बात न करने के लिए बहुत पहले ही चेतावनी दे डाली थी. सीता
कभी कभी यही सोचती की इस गाँव में इज्जत से रह पाना कितना मुश्किल हो गया
है. उसकी चिंता काफी जायज थी. सावित्री के जवान होने से उसकी चिंता का
गहराना स्वाभाविक ही था. आमदनी बदने के लिए सावित्री को दुकान पर काम करने
के लिए भेजना और गाँव के आवारो से बचाना एक नयी परेशानी थी. वैसे सुरुआत
में लक्ष्मी के साथ ही दुकान पर जाना और काम करना था तो कुछ मन को तसल्ली
थी कि चलो कोई उतना डर नहीं है कोई ऐसी वैसी बात होने की. भोला पंडित जो ५०
साल के करीब थे उनपर सीता को कुछ विश्वास था की वह अधेड़ लड़की सावित्री के
साथ कुछ गड़बड़ नहीं करेगे. दुसरे दिन सावित्री लक्ष्मी के साथ दुकान पर
चल दी . पहला दिन होने के कारण वह अपनी सबसे अच्छी कपडे पहनी और लक्ष्मी के
साथ चल दी , रात में माँ ने खूब समझाया था की बाहर बहुत समझदारी सेरहना
चाहिए. दुसरे लोगो और मर्दों से कोई बात बेवजह नहीं करनी चाहिए. दोनों पैदल
ही चल पड़ी. रास्ते में लक्ष्मी ने सावित्री से कहा की "तुम्हारी माँ बहुत
डरती है कि तुम्हारे साथ कोई गलत बात न हो जाए, खैर डरने कि वजह भी कुछ हद
तक सही है पर कोई अपना काम कैसे छोड़ दे." इस पर सावित्री ने सहमती में सिर
हिलाया. गाँव से कस्बे का रास्ता कोई दो किलोमीटर का था और ठीक बीच में एक
खंडहर पड़ता जो अंग्रेजो के ज़माने का पुरानी हवेली की तरह थी जिसके छत तो
कभी के गिर चुके थे पर जर्जर दीवाले सात आठ फुट तक की उचाई तक खड़ी थी. कई
बीघे में फैले इस खंडहर आवारो को एक बहुत मजेदार जगह देता जहा वे नशा करते,
जुआ खेलते, या लडकियो और औरतो की चुदाई भी करते. क्योंकि इस खंडहर में कोई
ही शरीफ लोग नहीं जाते. हाँ ठीक रास्ते में पड़ने के वजह से इसकी दीवाल के
आड़ में औरते पेशाब वगैरह कर लेती. फिर भी यह आवारो, नशेडियो, और ऐयाशो का
मनपसंद अड्डा था. गाँव की शरीफ औरते इस खंडहर के पास से गुजरना अच्छा नहीं
समझती लेकिन कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था कस्बे में या कही जाने के लिए.
दोनों चलते चलते खंडहर के पास पहुँचने वाले थे की लक्ष्मी ने सावित्री को
आगाह करने के अंदाज में कहा " देखो आगे जो रास्ते से सटे खंडहर है इसमें
कभी भूल कर मत जाना क्योंकि इसमें अक्सर गाँव के आवारे लोफ़र रहते हैं " इस
पर सावित्री के मन में जिज्ञासा उठी और पुछ बैठी "वे यहाँ क्या करते?"
"अरे नशा और जुआ खेलते और क्या करेंगे ये नालायक , क्या करने लायक भी हैं
ये समाज के कीड़े " लक्ष्मी बोली. लक्ष्मी ने सावित्री को सचेत और समझदार
बनाने के अंदाज में कहा" देखो ये गुंडे कभी कभी औरतो को अकेले देख कर गन्दी
बाते भी बोलते हैं उनपर कभी ध्यान मत देना, और कुछ भी बोले तुम चुप चाप
रास्ते पर चलना और उनके तरफ देखना भी मत, इसी में समझदारी है और इन के
चक्कर में कैसे भी पड़ने लायक नहीं होते. " कुछ रुक कर लक्ष्मी फिर बोली
"बहुत डरने की बात नहीं है ये मर्दों की आदत होती है औरतो लडकियो को बोलना
और छेड़ना, " सावित्री इन बातो को सुनकर कुछ सहम सी गयी पर लक्ष्मी के साथ
होने के वजह से डरने की कोई जरूरत नहीं समझी..आगे खंडहर आ गया और करीब सौ
मीटर तक खंडहर की जर्जर दीवाले रास्ते से सटी थी. ऐसा लगता जैसे कोई जब
चाहे रास्ते पर के आदमी को अंदर खंडहर में खींच ले तो बहर किसी को कुछ पता न
चले , रास्ते पर से खंडहर के अंदर तक देख पाना मुस्किल था क्योंकि पुराने
कमरों की दीवारे जगह जगह पर आड़ कर देती और खंडहर काफी अंदर तक था,
दोनों जब खंडहर के पास से गुजर रहे थे तब
एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था. खंडहर में कोई दिख नहीं रहा था वैसे
सावित्री पहले भी कभी कभार बाज़ार जाती तो इसी रस्ते से लेकिन तब उसके साथ
उसकी माँ और गाँव की कई औरते भी साथ होने से दर उतना नहीं लगता. इसबार वह
केवल लक्ष्मी के साथ थी और कुछ समय बाद उसे अकेले भी आना जाना पड़ सकता था.
जो सबसे अलग बात यह थी की वह अब भरपूर जवान हो चुकी थी और आवारो से उसके
जवानी को खतरा भी था जो वह महसूस कर सकती थी. सावित्री अब यह अच्छी तरह
जानती थी की यदि आवारे उसे या किसी औरत को इस सुनसान खंडहर में पा जाएँ तो
क्या करेंगे. शायद यह बात मन में आते ही उसके बदन में अजीब सी सिहरन उठी जो
वह कुछ महसूस तो कर सकती थी लेकिन समझ नहीं पा रही थी. शायद खंडहर की शांत
और एकांत का सन्नाटा सावित्री के मन के भीतर कुछ अलग सी गुदगुदी कर रही थी
जिसमे एक अजीब सा सनसनाहट और सिहरन थी और यह सब उसके जवान होने के वजह से
ही थी. खंडहर के पास से गुजरते इन पलो में उसके मन में एक कल्पना उभरी की
यदि कोई आवारा उसे इस खंडहर में अकेला पा जाये तो क्या होगा..इस कल्पना के
दुसरे ही पल सावित्री के बदन में कुछ ऐसा झनझनाहट हुआ जो उसे लगा की पुरे
बदन से उठ कर सनसनाता हुआ उसकी दोनों झांघो के बीच पहुँचगया हो खंडहर में
से कुछ लोगो के बात करने की आवाज आ रही थी. सावित्री का ध्यान उन आवाजो के
तरफ ही था. ऐसा लग रहा था कुछ लोग शराब पी रहे थे और बड़ी गन्दी बात कर रहे
थे पार कोई कही दिख नहीं रहा था. अचानक उसमे से एक आदमी जो 3२ -3५ साल का
था बाहर आया और दोनों को रास्ते पार जाते देखने लगा तभी अन्दर वाले ने उस
आदमी से पुछा "कौन है" जबाब में आदमी ने तुरंत तो कुछ नहीं कहा पर कुछ पल
बाद में धीरे से बोला " दो मॉल जा रही है कस्बे में चुदने के लिए" उसके बाद
सब खंडहर में हसने लगे. सावित्री के कान में तो जाने बम फट गया उस आदमी की
बात सुनकर. चलते हुए खंडहर पार हो गया लक्ष्मी भी चुपचाप थी फिर बोली
"देखो जब औरत घर से बाहर निकलती हैं तो बहुत कुछ बर्दाश्त करना पड़ता है.
यह मर्दों की दुनिया है वे जो चाहे बोलते हैं और जो चाहे करते हैं. हम औरतो
को तो उनसे बहुत परेशानी होती है पर उन्हें किसी से कोई परेशानी नहीं
होती." सावित्री कुछ न बोली पर खंडहर के पास उस आदमी की बात बार बार उसके
दिमाग में गूंज रही थी "दो मॉल जा रही है कस्बे में चुदने के लिए" . तभी
भोला पंडित की दुकान पर दोनों पहुँचीं . भोला पंडित पहली बार सावित्री को
देखा तो उसकी चुचिया और चूतडो पर नज़र चिपक सी गई और सावित्री ने भोला
पंडित का नमस्कार किया तो उन्होंने कुछ कहा नहीं बल्कि दोनों को दुकान के
अंदर आने के लिए कहे. भोला पंडित ४४ साल के सामान्य कद के गोरे और कसरती
शरीर के मालिक थे . उनके शरीर पर काफी बाल उगे थे . वे अक्सर धोती कुरता
पहनते और अंदर एक निगोट पहनने की आदत थी. क्योंकि जवानी में वे पहलवानी भी
करते थे. स्वाभाव से वे कुछ कड़े थे लेकिन औरतो को सामान बेचने के वजह से
कुछ ऊपर से मीठापन दिखाते थे. दोनों दुकान में रखी बेंच पर बैठ गयीं. भोला
पंडित ने एक सरसरी नजर से सावित्री को सर से पावं तक देखा और पुछा "क्या
नाम है तेरा? " सावित्री ने जबाव दिया "जी सावित्री " लक्ष्मी सावित्री का
मुह देख रही थी. उसके चेहरे पर मासूमियत और एक दबी हुई घबराहट साफ दिख रही
थी. क्योंकि घर के बाहर पहली बार किसी मर्द से बात कर रही थी भोला पंडित ने
दूसरा प्रश्न किया "kitne साल की हो गयी है" "जी अट्ठारह " सावित्री ने
जबाव में कहा. आगे फिर पुछा "कितने दिनों में दुकान सम्हालना सीख लेगी" "जी
" और इसके आगे सावित्री कुछ न बोली बल्कि बगल में बैठी लक्ष्मी का मुंह
ताकने लगी तो लक्ष्मी ने सावित्री के घबराहट को समझते तपाक से बोली "पंडित
जी अभी तो नयी है मई इसे बहुत जल्दी दुकान और सामानों के बारे में बता और
सिखा दूंगी इसकी चिंता मेरे ऊपर छोड़ दीजिये " "ठीक है पर जल्दी करना , और
कब तक तुम मेरे दुकान पर रहोगी " भोला पंडित ने लक्ष्मी से पुछा तो लक्ष्मी
ने कुछ सोचने के बाद कहा "ज्यादे दिन तो नहीं पर जैसे ही सावित्री आपके
दुकान की जिम्मेदारी सम्हालने लगेगी, क्योंकि मुझे कहीं और जाना है और
फुर्सत एक दम नहीं है पंडित जी." आगे बोली "यही कोई दस दिन क्योंकि इससे
ज्यादा मैं आपकी दुकान नहीं सम्हाल पाऊँगी , मुझे कुछ अपना भी कम करना है
इसलिए" " ठीक है पर इसको दुकान के बारे में ठीक से बता देना" भोला पंडित
सावित्री के तरफ देखते कहा.
सावित्री भोला पंडित के रूअब्दार कड़क
मिज़ाज और तेवर को देखकेर कुछ डर सी जाती. क्योंकि वे कोई ज़्यादे बात चीत
नही करते. और उनकी आवाज़ मोटी भी थी, बस दुकान पर आने वाली औरतो को समान
बेचने के लालच से कुछ चेहरे पर मीठापन दीखाते. रोजाना दोपहेर को वे एक या
दो घंटे के लिए दुकान बंद कर खाना खा कर दुकान के पिछले हिस्से मे बने कमरे
मे आराम करते. यह दुकान को ही दो भागो मे बाँट कर बना था जिसके बीच मे
केवल एक दीवार थी और दुकान से इस कमरे मे आने के लिए एक छोटा सा दरवाजा था
जिस पर एक परदा लटका रहता. अंदर एक चौकी थी और पिछले कोने मे शौचालय और
स्नानघर भी था . यह कमरा दुकान के तुलना मे काफ़ी बड़ा था. कमरे मे एक चौकी
थी जिसपर पर भोला पंडित सांड की तरह लेट गये और नीचे एक चटाई पर लक्ष्मी
लेट कर आराम करने लगी, सावित्री को भी लेटने के लिए कहा पर पंडितजी की चौकी
के ठीक सामने ही बिछी चटाई पर लेटने मे काफ़ी शर्म महसूस कर रही थी
लक्ष्मी यह भाँप गयी कि सावित्री भोला पंडित से शर्मा रही है इस वजह से
चटाई पर लेट नही रही है. लक्ष्मी ने चटाई उठाया और दुकान वाले हिस्से मे
जिसमे की बाहर का दरवाजा बंद था, चली गयी. पीछे पीछे सावित्री भी आई और फिर
दोनो एक ही चटाई पर लेट गये, लक्ष्मी तो थोड़ी देर के लिए सो गयी पर
सावित्री लेट लेट दुकान की छत को निहारती रही और करीब दो घंटे बाद फिर सभी
उठे और दुकान फिर से खुल गई. करीब दस ही दीनो मे लक्ष्मी ने सावित्री को
बहुत कुछ बता और समझा दिया था आगे उसके पास समय और नही था कि वह सावित्री
की सहयता करे. फिर सावित्री को अकेले ही आना पड़ा. पहले दिन आते समय खंडहेर
के पास काफ़ी डर लगता मानो जैसे प्राण ही निकल जाए. कब कोई गुंडा खंडहेर
मे खेन्च ले जाए कुछ पता नही था. लेकिन मजबूरी थी दुकान पर जाना. जब पहली
बार खंडहेर के पास से गुज़री तो सन्नाटा था लेकिन संयोग से कोई आवारा से
कोई अश्लील बातें सुनने को नही मिला. किसी तरह दुकान पर पहुँची और भोला
पंडित को नमस्कार किया और वो रोज़ की तरह कुछ भी ना बोले और दुकान के अंदर
आने का इशारा बस किया. खंडहेर के पास से गुज़रते हुए लग रहा डर मानो अभी भी
सावित्री के मन मे था. आज वह दुकान मे भोला पंडित के साथ अकेली थी क्योंकि
लक्ष्मी अब नही आने वाली थी. दस दिन तो केवल मा के कहने पर आई थी. यही सोच
रही थी और दुकान मे एक तरफ भोला पंडित और दूसरी तरफ एक स्टूल पे सावित्री
सलवार समीज़ मे बैठी थी.
दुकान एक पतली गली मे एकदम किनारे होने के
वजह से भीड़ भाड़ बहुत कम होती और जो भी ग्राहक आते वो शाम के समय ही आते.
दुकान के दूसरी तरफ एक उँची चहारदीवारी थी जिसके वजह से दुकान मे कही से
कोई नही देख सकता था तबतक की वह दुकान के ठीक सामने ना हो. इस पतली गली मे
यह अंतिम दुकान थी और इसके ठीक बगल वाली दुकान बहुत दीनो से बंद पड़ी थी.
शायद यही बात स्टूल पर बैठी सावित्री के मन मे थी कि दुकान भी तो काफ़ी
एकांत मे है, पंडित जी अपने कुर्सी पे बैठे बैठे अख़बार पढ़ रहे थे, करीब
एक घंटा बीत गया लेकिन वो सावित्री से कुछ भी नही बोले. सावित्री को पता
नही क्यो यह अक्चा नही लग रहा था. उनके कड़क और रोबीले मिज़ाज़ के वजह से
उसके पास कहाँ इतनी हिम्मत थी कि भोला पंडित से कुछ बात की शुरुआत करे.
दुकान मे एक अज़ीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था, तभी भोला पंडित ने स्टूल पर
नज़रे झुकाए बैठी सावित्री के तरफ देखा और बोला " देखो एक कपड़ा स्नानघर मे
है उसे धो कर अंदर ही फैला देना" मोटी आवाज़ मे आदेश सुनकर सावित्री लगभग
हड़बड़ा सी गयी और उसके हलक के बस जी शब्द ही निकला और वह उठी और स्नानघर
मे चल दी. स्नानघर मे पहुँच कर वह पीछे पलट कर देखी कि कहीं पंडित जी तो
नही आ रहे क्योंकि सावित्री आज अकेले थी और दुकान भी सन्नाटे मे था और
पंडित जी भी एक नये आदमी थे. फिर भी पंडित जी के उपर विश्वास था जैसा कि
लक्ष्मी ने बताया था. सावित्री को लगा कि पंडित जी वहीं बैठे अख़बार पढ़
रहे हैं. फिर सावित्री ने स्नानघर मे कपड़े तलाशने लगी तो केवल फर्श पर एक
सफेद रंग की लंगोट रखी थी जिसे पहलवान लोग पहनते हैं. यह भोला पंडित का ही
था. सावित्री के मन मे अचानक एक घबराहट होने लगी क्योंकि वह किसी मर्द का
लंगोट धोना ठीक नही लगता. स्नानघर के दरवाजे पर खड़ी हो कर यही सोच रही थी
कि अचानक भोला पंडित की मोटी कड़क दार आवाज़ आई "कपड़ा मिला की नही" वे
दुकान मे बैठे ही बोल रहे थे. सावित्री पूरी तरह से डर गयी और तुरंत बोली
"जी मिला" सावित्री के पास इतनी हिम्मत नही थी कि भोला पंडित से यह कहे कि
वह एक लड़की है और उनकी लंगोट को कैसे धो सकती है. आख़िर हाथ बढाई और लंगोट
को ढोने के लिए जैसे ही पकड़ी उसे लगा जैसे ये लंगोट नही बल्कि कोई साँप
है. फिर किसी तरह से लंगोट को धोने लगी. फिर जैसे ही लंगोट पर साबुन लगाने
के लिए लंगोट को फैलाया उसे लगा कि उसमे कुछ काला काला लगा है फिर ध्यान से
देख तो एकद्ूम सकपका कर रह गयी. यह काला कला कुछ और नही बल्कि झांट के बॉल
थे जो भोला पंडित के ही थे.
जो की काफ़ी मोटे मोटे थे. वह उन्हे छूना
बिल्कुल ही नही चाहती थी लेकिन लंगोट साफ कैसे होगी बिना उसे साफ किए. फिर
सावित्री ने पानी की धार गिराया कि झांट के बाल लंगोट से बह जाए लेकिन फिर
भी कुछ बॉल नही बह सके क्योंकि वो लंगोट के धागो मे बुरी तरह से फँसे थे.
यह सावित्री के लिए चुनौती ही थी क्योंकि वह भोला पंडित के झांट के बालो को
छूना नही चाहती थी. अचानक बाहर से आवाज़ आई "सॉफ हुआ की नही" और इस मोटे
आवाज़ ने मानो सावित्री की हड्डियाँ तक कपा दी और बोल पड़ी "जी कर रही हूँ"
और घबराहट मे अपने उंगलिओ से जैसे ही लंगोट मे फँसे झांट के बालो को
निकालने के लिए पकड़ी कि सिर से पाव तक गन्गना गयी , उसे ऐसे लगा जैसे ये
झांट के बाल नही बल्कि बिजली का कुर्रेंट है, आख़िर किसी तरह एक एक बाल को
लंगोट से निकाल कर फर्श पर फेंकी और पानी की धार फेंक कर उसे बहाया जो
स्नानघर के नाली के तरफ तैरते हुए जा रहे थे और सावित्री की नज़रे उन्हे
देख कर सनसना रही थी. किसी ढंग से लंगोट साफ कर के वह अंदर ही बँधे रस्सी
पर फैला कर अपना हाथ धो ली और वापस दुकान मे आई तो चेहरे पर पसीना और
लालपान छा गया था. उसने देखा कि भोला पंडित अभी भी बैठे अख़बार पढ़ रहे थे.
सावित्री जा कर फिर से स्टूल पर बैठ गयी और नज़रे झुका ली. कुछ देर बाद
दोपहर हो चली थी और भोला पंडित के खाना खाने और आराम करने का समय हो चला
था. समय देख कर भोला पंडित ने दुकान का बाहरी दरवाजा बंद किया और खाना खाने
के लिए अंदर वाले कमरे मे चले आए. दुकान का बाहरी दरवाजा बंद होने का सीधा
मतलब था कि कोई भी अंदर नही आ सकता था. भोला पंडित खाना खाने लगे और
सावित्री तो घर से ही खाना खा कर आती इस लिए उसे बस आराम ही करना होता.
सावित्री ने चटाई लेकर दुकान वाले हिस्से मे आ गयी और चटाई बिछा कर लेटने
के बजाय बैठ कर आज की घटना के बारे मे सोचने लगी. उसे लगता जैसे भोला पंडित
की झांट को छू कर बहुत ग़लत किया, लेकिन डरी सहमी और क्या करती. बार बार
उसके मन मे डर लगता. दुकान का बाहरी दरवाजा बंद होने के कारण वह अपने आप को
सुरक्षित नही महसूस कर रही थी. यही सोचती रही कि अंदर के कमरे से खर्राटे
की आवाज़ आने लगी. फिर यह जान कर की भोला पंडित सो गये है वह भी लेट गयी पर
उनके लंगोट वाली झांतो की याद बार बार दिमाग़ मे घूमता रहता. यही सब सोचते
सोचते करीब एक घंटा बीत गया. फिर भोला पंडित उठे तो उनके उठने के आहट सुन
कर सावित्री भी चटाई पर उठ कर बैठ गयी. थोड़ी देर बाद शौचालय से पेशाब करने
की आवाज़ आने लगी , वो भोला पंडित कर रहे थे.अभी दुकान खुलने मे लगभग एक
घंटे का और समय था और भोला पंडित शायद एक घंटे और आराम करेंगे' यही बात
सावित्री सोच रही थी की अंदर से पंडित जी ने सावित्री को पुकारा. "सुनो"
सावित्री लगभग घबड़ाई हुई उठी और अपना समीज़ पर दुपट्टे को ठीक कर अंदर आए
तो देखी की भोला पंडित चौकी पर बैठे हैं. सावित्री उनके चौकी से कुछ दूर पर
खड़ी हो गयी और नज़रे झुका ली और पंडित जी क्या कहने वाले हैं इस बात का
इंतज़ार करने लगी. तभी भोला पंडित ने पुचछा "महीना तुम्हारा कब आया था"
जो की काफ़ी मोटे मोटे थे. वह उन्हे छूना
बिल्कुल ही नही चाहती थी लेकिन लंगोट साफ कैसे होगी बिना उसे साफ किए. फिर
सावित्री ने पानी की धार गिराया कि झांट के बाल लंगोट से बह जाए लेकिन फिर
भी कुछ बॉल नही बह सके क्योंकि वो लंगोट के धागो मे बुरी तरह से फँसे थे.
यह सावित्री के लिए चुनौती ही थी क्योंकि वह भोला पंडित के झांट के बालो को
छूना नही चाहती थी. अचानक बाहर से आवाज़ आई "सॉफ हुआ की नही" और इस मोटे
आवाज़ ने मानो सावित्री की हड्डियाँ तक कपा दी और बोल पड़ी "जी कर रही हूँ"
और घबराहट मे अपने उंगलिओ से जैसे ही लंगोट मे फँसे झांट के बालो को
निकालने के लिए पकड़ी कि सिर से पाव तक गन्गना गयी , उसे ऐसे लगा जैसे ये
झांट के बाल नही बल्कि बिजली का कुर्रेंट है, आख़िर किसी तरह एक एक बाल को
लंगोट से निकाल कर फर्श पर फेंकी और पानी की धार फेंक कर उसे बहाया जो
स्नानघर के नाली के तरफ तैरते हुए जा रहे थे और सावित्री की नज़रे उन्हे
देख कर सनसना रही थी. किसी ढंग से लंगोट साफ कर के वह अंदर ही बँधे रस्सी
पर फैला कर अपना हाथ धो ली और वापस दुकान मे आई तो चेहरे पर पसीना और
लालपान छा गया था. उसने देखा कि भोला पंडित अभी भी बैठे अख़बार पढ़ रहे थे.
सावित्री जा कर फिर से स्टूल पर बैठ गयी और नज़रे झुका ली. कुछ देर बाद
दोपहर हो चली थी और भोला पंडित के खाना खाने और आराम करने का समय हो चला
था. समय देख कर भोला पंडित ने दुकान का बाहरी दरवाजा बंद किया और खाना खाने
के लिए अंदर वाले कमरे मे चले आए. दुकान का बाहरी दरवाजा बंद होने का सीधा
मतलब था कि कोई भी अंदर नही आ सकता था. भोला पंडित खाना खाने लगे और
सावित्री तो घर से ही खाना खा कर आती इस लिए उसे बस आराम ही करना होता.
सावित्री ने चटाई लेकर दुकान वाले हिस्से मे आ गयी और चटाई बिछा कर लेटने
के बजाय बैठ कर आज की घटना के बारे मे सोचने लगी. उसे लगता जैसे भोला पंडित
की झांट को छू कर बहुत ग़लत किया, लेकिन डरी सहमी और क्या करती. बार बार
उसके मन मे डर लगता. दुकान का बाहरी दरवाजा बंद होने के कारण वह अपने आप को
सुरक्षित नही महसूस कर रही थी. यही सोचती रही कि अंदर के कमरे से खर्राटे
की आवाज़ आने लगी. फिर यह जान कर की भोला पंडित सो गये है वह भी लेट गयी पर
उनके लंगोट वाली झांतो की याद बार बार दिमाग़ मे घूमता रहता. यही सब सोचते
सोचते करीब एक घंटा बीत गया. फिर भोला पंडित उठे तो उनके उठने के आहट सुन
कर सावित्री भी चटाई पर उठ कर बैठ गयी. थोड़ी देर बाद शौचालय से पेशाब करने
की आवाज़ आने लगी , वो भोला पंडित कर रहे थे.अभी दुकान खुलने मे लगभग एक
घंटे का और समय था और भोला पंडित शायद एक घंटे और आराम करेंगे' यही बात
सावित्री सोच रही थी की अंदर से पंडित जी ने सावित्री को पुकारा. "सुनो"
सावित्री लगभग घबड़ाई हुई उठी और अपना समीज़ पर दुपट्टे को ठीक कर अंदर आए
तो देखी की भोला पंडित चौकी पर बैठे हैं. सावित्री उनके चौकी से कुछ दूर पर
खड़ी हो गयी और नज़रे झुका ली और पंडित जी क्या कहने वाले हैं इस बात का
इंतज़ार करने लगी. तभी भोला पंडित ने पुचछा "महीना तुम्हारा कब आया था"
अचानक ऐसे सवाल को सुन कर सावित्री की
आँखे फटी की फटी रह गई वह मानो अगले पल गिरकर मर जाएगी उसे ऐसा लग रहा था.
उसका गले मे मानो लकवा मार दिया हो, दिमाग़ की सारी नसे सूख गयी हो.
सावित्री के रोवे रोवे को कंपा देने वाले इस सवाल ने सावित्री को इस कदर
झकझोर दिया कि मानो उसके आँखो के सामने कुछ दीखाई ही नही दे रहा था. आख़िर
वह कुछ बोल ना सकी और एक पत्थेर की तरह खड़ी रह गई. दुबारा भोला पंडित ने
वही सवाल दुहरेया "महीना कब बैठी थी" सावित्री के सिर से पाँव तक पसीना छूट
गया. उसे कुछ समझ नही आ रहा था कि ये क्या हो रहा है और वह क्या करे लेकिन
दूसरी बार पूछने पर वह काफ़ी दबाव मे आ गयी और सूखे गले से काफ़ी धीमी
आवाज़ ही निकल पाई "दस दिन प..." और आवाज़ दब्ति चली गयी कि बाद के शब्द
सुनाई ही नही पड़े. फिर भोला पंडित ने कुछ और कड़े आवाज़ मे कुछ धमकी भरे
लहजे मे आदेश दिया "जाओ पेशाब कर के आओ" इसे सुनते ही सावित्री कांप सी गयी
और शौचालय के तरफ चल पड़ी. अंदर जा कर सीत्कनी बंद करने मे लगताथा जैसे
उसके हाथ मे जान ही नही है. भोला पंडित का पेशाब कराने का मतलब सावित्री
समझ रही थी लेकिन डर के मारे उसे कुछ समझ नही आ रहा था कि वो अब क्या करे .
शौचालय के अंदर सावित्री के हाथ जरवंद खोलने मे कांप रहे थे और किसी तरह
से जरवंद खोल कर सलवार को नीचे की और फिर चड्धि को सर्काई और पेशाब करने
बैठी लेकिन काफ़ी मेहनत के बाद पेशाब की धार निकलना शुरू हुई. पेशाब करने
के बाद सावित्री अपने कपड़ो को सही की दुपट्टा से चुचियो को ढाकी फिर उसकी
हिम्मत शौचालय से बाहर आने की नही हो रही थी और वह उसी मे चुपचाप खड़ी थी.
तभी फिर डरावनी आवाज़ कानो मे बम की तरह फट पड़ा "जल्दी आओ बाहर" बाहर आने
के बाद वह नज़ारे झुकाए खड़ी थी और उसका सीना धक धक ऐसे कर रहा था मानो फट
कर बाहर आ जाएगा . सावित्री ने देखा की भोला पंडित चौकी पर दोनो पैर नीचे
लटका कर बैठे हैं. फिर पंडित जी चौकी पर बैठे ही सावित्री को नीचे से उपर
तक घूरा और फिर चौकी पर लेट गये. चौकी पर एक बिस्तर बिछा था और भोला पंडित
के सिर के नीचे एक तकिया लगा था. भोला पंडित लेते लेते छत की ओर देख रहे थे
और चित लेट कर दोनो पैर सीधा फैला रखा था. वे धोती और बनियान पहने थे.
धोती घुटने तक थी और घुटने के नीचे का पैर सॉफ दीख रहा था जो गोरे रंग का
काफ़ी मजबूत था जिसपे काफ़ी घने बाल उगे थे. सावित्री चुपचाप अपने जगह पर
ऐसे खड़ी थी मानो कोई मूर्ति हो. वह अपने शरीर मे डर के मारे धक धक की
आवाज़ साफ महसूस कर रही थी. यह उसके जीवन का बहुत डरावना पल था. शायद अगले
पल मे क्या होगा इस बात को सोच कर काँप सी जाती. इतने पॅलो मे उसे महसूस
हुआ कि उसका पैर का तलवा जो बिना चप्पल के कमरे के फर्श पर थे, पसीने से
भीग गये थे. उसकी साँसे तेज़ चल रही थी. उसे लग रहा था की सांस लेने के लिए
उसे काफ़ी ताक़त लगानी पड़ रही थी. ऐसा जैसे उसके फेफड़ों मे हवा जा ही
नही रही हो. उसके दिल और दिमाग़ दोनो मे लकवा सा मार दिया था. तभी पंडित जी
कमरे के छत के तरफ देखते हुए बोले "पैर दबा" सावित्री जो की इस दयनीय हालत
मे थी और शर्म से पानी पानी हो चुकी थी, ठीक अपने सामने नीचे फर्श पर देख
रही थी, क्योंकि उसकी भोला पंडित की तरफ देखने की हिम्मत अब ख़त्म हो चुकी
थी, आवाज़ सुनकर फिर से कांप सी गयी और अपने नज़रो को बड़ी ताक़त से उठा कर
चौकी के तरफ की और भोला पंडित को जब कनखियों से देखी कि वे धोती और बनियान
मे सिर के नीचे तकिया लगाए लेते थे और अब सावित्री के तरफ ही देख रहे थे.
सावित्री फिर से नज़रे नीचे गढ़ा ली. वह चौकी से कुछ ही दूरी पर ही खड़ी थी
उसे लग रहा था कि उसके पैर के दोनो तलवे फर्श से ऐसे चिपक गये हो की अब
छूटेंगे ही नही. भोला पंडित को अपनी तरफ देखते हुए वह फिर से घबरा गयी और
डर के मारे उनके पैर दबाने के लिए आगे बढ़ी ही थी कि ऐसा महसूस हुआ जैसे
उसे चक्केर आ गया हो और अगले पल गिर ना जाए. शायद काफ़ी डर और घबराहट के
वजह से ही ऐसा महसूस की. ज्यों ही सावित्री ने अपना पैर फर्श पर आगे बढ़ाई
तो पैर के तलवे के पसीना का गीलापन फर्श पर सॉफ दीख रहा था. अब चौकी के ठीक
करीब आ गयी और खड़ी खड़ी यही सोच रही थी कि अब उनके पैर को कैसे दबाए.
भोला पंडित ने सावित्री से केवल पैर दबाने के लिए बोला था और ये कुछ नही
कहा कि चौकी पर बैठ कर दबाए या केवल चौकी के किनारे खड़ी होकर की दबाए.
क्योंकि सावित्री यह जानती थी कि पंडित जी को यह मालूम है कि सावित्री एक
छ्होटी जात की है और लक्ष्मी ने सावित्री को पहले ही यह बताया था कि दुकान
मे केवल अपने काम से काम रखना कभी भी पंडित जी का कोई समान या चौकी को मत
छूना क्योंकि वो एक ब्राह्मण जाती के हैं और वो छ्होटी जाती के लोगो से
अपने सामानो को छूना बर्दाश्त नही करते, और दुकान मे रखी स्टूल पर ही बैठना
और आराम करने के लिए चटाई का इस्तेमाल करना. शायद इसी बात के मन मे आने से
वह चौकी से ऐसे खड़ी थी कि कहीं चौकी से सॅट ना जाए. भोला पंडित ने यह
देखते ही की वह चौकी से सटना नही चाहती है उन्हे याद आया कि सावित्री एक
छोटे जाती की है और अगले ही पल उठकर बैठे और बोले "जा चटाई ला" सावित्री का
डर बहुत सही निकला वह यह सोचते हुए कि भला चौकी को उसने छूआ नही. दुकान
वाले हिस्से मे जहाँ वो आराम करने के लिए चटाई बिछाई थी, लेने चली गयी.
इधेर भोला पंडित चौकी पर फिर से पैर लटका कर बैठ गये, सावित्री ज्यों ही
चटाई ले कर आई उन्होने उसे चौकी के बगल मे नीचे बिछाने के लिए उंगली से
इशारा किया. सावित्री की डरी हुई आँखे इशारा देखते ही समझ गयी कि कहाँ
बिछाना है और बिछा कर एक तरफ खड़ी हो गयी और अपने दुपट्टे को ठीक करने लगी,
उसका दुपट्टा पहले से ही काफ़ी ठीक था और उसके दोनो चूचियो को अच्छी तरह
से ढके था फिर भी अपने संतुष्टि के लिए उसके हाथ दुपट्टे के किनारों पर चले
ही जाते. भोला पंडित चौकी पर से उतर कर नीचे बिछी हुई चटाई पर लेट गये.
लेकिन चौकी पर रखे तकिया को सिर के नीचे नही लगाया शायद चटाई का इस्तेमाल
छ्होटी जाती के लिए ही था इस लिए ही चौकी के बिस्तर पर रखे तकिया को चटाई
पर लाना मुनासिब नही समझे. भोला पंडित लेटने के बाद अपने पैरों को सीधा कर
दिया जैसा की चौकी के उपर लेते थे. फिर से धोती उनके घुटनो तक के हिस्से को
ढक रखा था. उनके पैर के तरफ सावित्री चुपचाप खड़ी अपने नज़रों को फर्श पर
टिकाई थी. सीने का धड़कना अब और तेज हो गया था. तभी पंडित जी के आदेश की
आवाज़ सावित्री के कानो मे पड़ी "अब दबा" . सावित्री को ऐसा लग रहा था कि
घबराहट से उसे उल्टी हो जायगि. अब सावित्री के सामने यह चुनौती थी कि वह
पंडित जी के सामने किस तरह से बैठे की पंडित जी को उसका शरीर कम से कम
दीखे. जैसा की वह सलवार समीज़ पहनी और दुपट्टा से अपने उपरी हिस्से को
काफ़ी ढंग से ढक रखा था. फिर उसने अपने पैर के घुटने को मोदकर बैठी और यही
सोचने लगी कि अब पैर दबाना कहाँ से सुरू करे. उसके मन मे विरोध के भी भाव
थे कि ऐसा करने से वो मना कर दे लेकिन गाओं की अट्ठारह साल की सीधी साधी
ग़रीब लड़की जिसने अपना ज़्यादा समय घर मे ही बिताया था,
और शर्मीली होने के साथ साथ वह एक डरपोक
किस्म की भी हो गयी थी. और वह अपने घर से बाहर दूसरे जगह यानी भोला पंडित
के दुकान मे थी जिसका दरवाजा बंद था और दोपहर के समय एकांत और शांत माहौल
मे उसका मन और डर से भर गया था. उसके उपर से भोला पंडित जो उँची जाती के थे
और उनका रोबीला कड़क आवाज़ और उससे बहुत कम बातें करने का स्वाभाव ने
सावित्री के मन मे बचे खुचे आत्मविश्वास और मनोबल को तो लगभग ख़त्म ही कर
दिया था. वैसे वह पहले से ही काफ़ी डरी हुई थी और आज उसका पहला दिन था जब
वह दुकान मे भोला पंडित के साथ अकेली थी.
इन सब हालातों मे विरोध ना कर सकने वाली
सावित्री को अब पंडित जी के पैर पर हाथ लगाना ही पड़ा. जैसे ही उसने उनके
पैर पर हाथ रखा सारा बदन सनसनाहट से गन्गना गया क्योंकि यह एक मर्द का पैर
था. जो कि काफ़ी ताकतवर और गाथा हुआ था और जिस पर घने बॉल उगे थे. वैसे
सावित्री कभी कभी अपनी मा का पैर दबा देती थी जब वो काफ़ी थॅकी होती और उसे
पैर दबाना मा ने ही सिखाया था. इसलिए मा के पैर की बनावट की तुलना मे भोला
पंडित का पैर काफ़ी कड़ा और गाथा हुआ था. जहाँ मा के पैर पर बाल एकदम ना
थे वहीं भोला पंडित के पैर पर काफ़ी घने बाल उगे थे. बालो को देखकर और छूकर
उसे लंगोट मे लगे झांट के बालों की याद आ गयी और फिर से सनसना सी गयी. वह
अपने हाथो से भोला पंडित के पैर को घुटने के नीचे तक ही दबाती थी. साथ साथ
पंडित जी के बालिश्ट शरीर को भी महसूस करने लगी. जवान सावित्री के लिए किसी
मर्द का पैर दबाना पहली बार पड़ा था और सावित्री को लगने लगा था कि किसी
मर्द को छूने से उसके शरीर मैं कैसी सनसनाहट होती है. कुछ देर तक सावित्री
वैसे ही पैर दबाती रही और पंडित जी के पैर के घने मोटे बालों को अपने हाथों
मे गड़ता महसूस करती रही. तभी पंडित जी ने अपने पैर के घुटनो को मोदकर
थोड़ा उपर कर दिया जिससे धोती घुटनो और झंघो से कुछ सरक गयी और उनकी पहलवान
जैसी गठीली जांघे धोती से बाहर आ गयी. भोला पंडित के पैरों की नयी स्थिति
के अनुसार सावित्री को भी थोड़ा पंडित जी की तरफ ऐसे खिसकना पड़ा ताकि उनके
पैरो को अपने हाथों से दबा सके. फिर सावित्री पंडित जी के पैर को दबाने
लगी लेकिन केवल घुटनो के नीचे वाले हिस्से को ही. कुछ देर तक केवल एक पैर
को दबाने के बाद जब सावित्री दूसरे पैर को दबाने के लिए आगे बढ़ी तभी पंडित
जी कड़ी आवाज़ मे बोल पड़े "उपर भी" सावित्री के उपर मानो पहाड़ ही गिर
पड़ा. वह समझ गयी कि वो जाँघो को दबाने के लिए कह रहे हैं. पंडित जी की
बालिश्ट जाँघो पर बाल कुछ और ही ज़्यादा थे. जाँघो पर हाथ लगाते हुए
सावित्री अपनी इज़्ज़त को लगभग लूटते देख रही थी. कही पंडित जी क्रोधित ना
हो जाए इस डर से जाँघो को दबाने मे ज़्यादा देर करना ठीक नही समझ रही थी.
अब उसके हाथ मे कंपन लगभग साफ पता चल रहा
था. क्योंकि सावित्री पंडित जी के जेंघो को छूने और दबाने के लिए मानसिक
रूप से अपने को तैयार नही कर पा रही थी. जो कुछ भी कर रही थी बस डर और
घबराहट मे काफ़ी बेबस होने के वजह से. उसे ऐसा महसूस होता था की अभी वह गिर
कर तुरंत मर जाएगी. शायद इसी लिए उसे सांस लेने के लिए काफ़ी मेहनत करनी
पड़ रही थी. उसके घबराए हुए मन मे यह भी विचार आता था कि उसकी मा ने उसके
इज़्ज़त को गाओं के अवारों से बचाने के लिए उसे स्कूल की पड़ाई आठवीं क्लास
के बाद बंद करवा दिया और केवल घर मे ही रखी. इसके लिए उसकी विधवा मा को
काफ़ी संघर्ष भी करना पड़ा. अकेले घर को चलाने के लिए उसे काफ़ी मेहनत करनी
पड़ती थी और इसी लिए कई लोगो के घर जा कर बर्तन झाड़ू पोच्छा के काम करती.
आख़िर यह संघर्ष वह अब भी कर रही थी. इसीलिए वह सावित्री को गाओं मे कम
करने के बजाय वह अधेड़ पंडित जी के दुकान पर काम करने के लिए भेजा था. यही
सोचकर की बाप के उमर के अधेड़ भोला पंडित के दुकान पर उसकी लड़की पूरी
सुरक्षित रहेगी जैसा की लक्ष्मी ने बताया था कि पंडित जी काफ़ी शरीफ आदमी
हैं. लेकिन सीता की यह कदम की सावित्री भी काम कर के इस ग़रीबी मे इज़्ज़त
के लिए इस संघर्ष मे उसका साथ दे जिससे कुछ आमदनी बढ़ जाए और सावित्री की
जल्दी शादी के लिए पैसे का इंतेज़ाम हो जाए, सावित्री को अब ग़लत लगने लगा
था. लेकिन सावित्री अपने मा को बहुत अच्छी तरीके से जानती थी. सीता को
इज़्ज़त से बहुत प्यार था और वह कहती भी थी की मैं ग़रीब भले हूँ और मेरे
पास पैसे भले ना हो पर मेरे पास इज़्ज़त तो है. यह बात सही भी थी क्योंकि
सावित्री को याद था कि उसके बाप के मरने के बाद सीता ने इस ग़रीबी मे अपनी
इज़्ज़त मर्यादा को कैसे बचा कर रखने के लिए कैसे कैसे संघर्ष की. जब वह
सयानी हुई तब किस तरह से स्कूल की पड़ाई बंद कराके सावित्री को घर मे ही
रहने देने की पूरी कोशिस की ताकि गाओं के गंदे माहौल के वजह से उसके
इज़्ज़त पर कोई आँच ना आए. और इज़्ज़त के लिए ही गाओं के गंदे माहौल से डरी
सीता यह चाहती थी कि सावित्री की बहुत जल्दी शादी कर के ससुराल भेज दिया
जे और इसी लिए वह अपने इस संघर्ष मे सावित्री को भी हाथ बताने के लिए आगे
आने के लिए कही.वो भी इस उम्मीद से की कुछ पैसे का इंतेज़ाम हो जाए, पंडित
जी के दुकान पर काम के लिए मजबूरी मे भेजी थी इन्ही बातों को सोचते हुए
सावित्री को लगा की उसके आँख से आँसू गिर जाएँगे और आँखे लगभग दबदबा गयी.
और ज्यो ही सावित्री ने अपना काँपता हाथ पंडित जी के घने उगे बालो वाले
बालिश्ट जाँघ पर रखी उसे लगा कि उसकी मा और वह दोनो ही इज़्ज़त के लिए कर
रहे अंतिम शंघर्ष मे अब हार सी गयी हो. यही सोचते उसके दबदबाई आँखो से आँसू
उसके गालों पर लकीर बनाते हुए टपक पड़े. अपने चेहरे पर आँसुओं के आते ही
सावित्री ने अपना चेहरा दूसरी तरफ कर लिया ताकि पंडित जी की नज़र आँसुओं पर
ना पड़ जाए. तभी उसे लगा की पंडित जी उसके आँसुओं को देख लिया हो और दूसरे
पल वह उठकर लगभग बैठ गये. सावित्री को लगा की शायद भगवान ने ग़रीब की सुन
ली हो और अब इज़्ज़त बच जाय क्योंकि पंडित जी उसके रोने पर तरस खा कर उससे
जाँघ ना दब्वाये. ऐसी सोच ने सावित्री के शरीर मे आशा की एक लहर दौड़ा दी.
लेकिन अगले पलों मे ऐसा कुछ भी ना हुआ और पंडित जी बगल मे चौकी पर बिछे
बिस्तेर के नीचे से एक किताब निकाली और फिर बिना कुछ कहे वैसे ही लेट गये
और उस किताब को पढ़ने लगे. सावित्री को लगा कि वो आसमान से गिर गयी हो.
नतीज़ा यह की सावित्री अपने आँखो मे आँसू लिए हुए उनके बालिश्ट झांग को
दबाने लगी. जो कि बहुत कड़ा था और काफ़ी घने बाल होने के कारण सावित्री के
हाथ मे लगभग चुभ से रहे थे. और ऐसा लगता मानो ये बाल सावित्री के हथेली मे
गुदगुदी कर रहे हों क्योंकि काफ़ी मोटे और कड़े भी थे. जब भी सावित्री
पंडित जी के जाँघ को दबाती उसे महसूस होता की उनके झांग और उसके हाथों के
बीच मे उनके कड़े मोटे बाल एक परत सी बना ले रही हों. सावित्री के हथेलिओं
को पंडित जी की जाँघ की मांसपेशियो के काफ़ी कड़े और गातीलेपन का आभास हर
दबाव पर हो रहा था जैसे की कोई चट्टान के बने हों. पंडित जी किताब को दोनो
हाथो मे लेकर लेटे लेटे पढ़ रहे थे और किताब उनके मुँह के ठीक सामने होने
के कारण अब पंडित जी सावित्री को नही देख सकते थे. पंडित जी का मुँह अब
किताब के आड़ मे पा कर सावित्री की हिम्मत हुई और वह पंडित जी के कमर वाले
हिस्से के तरफ नज़र दौड़ाई तो देखा की धोती जो केवल जाँघो पर से हटी थी
लेकिन कमर के हिस्से को अच्छी तरह से ढक रखा था और कहीं से भी लंगोट भी
दिखाई नही दे रही थी.धोती से उनके निचले हिस्से का ठीक से ढके होने से सावित्री को कुछ राहत सी
महसूस हुई. और उसके आँखो के आँसू लगभग सूखने लगा ही था कि उसकी नज़र किताब
के उपर पड़ी. आठवीं क्लास तक पड़ी होने के वजह से उसे पड़ना तो आता ही था.
पंडित जी के हाथ मे जो किताब थी उसका नाम पढ़ कर सावित्री ऐसे सकपकाई जैसे
अभी उसके बुर से मूत निकल जाएगी. ऐसी नाम की कोई किताब भी हो सकती है यही
सोचकर सिहर ही गयी. ये नाम अक्सर वो गाओं मे झगड़े के समय औरतों को गाली
देने के लिए प्रयोग होते हैं. उस किताब का नाम उसके उपर हिन्दी के बड़े
अक्षरो मे "हरजाई" लिखा था. यह देखते ही सावित्री के अंदर फिर से घबराहट की
लहरें उठने लगी. अब पंडित जी के चरित्र और नियत दोनो सॉफ होती नज़र आ रही
थी. उसे अब लगने लगा था कि उसके शरीर मे जान है ही नही और किसी ढंग से वह
पंडित जी के जाँघ को दबा पा रही थी. जब जब उस किताब पर नज़र पड़ती तो
सावित्री ऐसे सनसना जाती मानो वह किताब नही बल्कि पंडित जी का मोटा खड़ा
लंड हो. अब सावित्री के मन को यह यकीन हो गया कि आज उसकी इज़्ज़त को भगवान
भी नही बचा पाएँगे. इसी के साथ उसे लगा की उसका मन हताशा की हालत मे डूबता
जा रहा था. वह एकदम कमजोर महसूस कर रही थी मानो कई सालों से बीमार हो और
मरने के कगार पर हा गयी हो. तभी पंडित जी को लगा की उनके कसरती जाँघ पर
सावित्री के हाथों से उतना दबाव नही मिल पा रहा हो और यही सोच कर उन्होने
सावित्री को जाँघो को हाथ के बजाय पैर से दबाने के लिए कहा. घबराई सावित्री
के सामने एक बड़ी परेशानी थी की उनके पैर और जाँघो पर कैसे चढ़ कर दबाए.
आख़िर मजबूर सावित्री उनके पैर और जांघों पर पैर रख कर खड़ी होने लगी तो
ऐसा लगने लगा मानो संतुलन ना बनाने के वजह से गिर जाएगी. तभी पंडित जी ने
उसे कहा "दुपट्टा हटा दे नही तो उसमे उलझ कर गिर जाएगी" सावित्री को भी कुछ
यह बात सही लगी क्योंकि जब वह पंडित जी के पैर और जाँघो पर खड़ी होने की
कोशिस करती तब उसका उपरी शरीर हवा मे इधेर उधेर लहराने लगता और दुपट्टा मे
उसके हाथ फँसने से लगता. लेकिन दुपट्टा से उसकी दोनो बड़ी बड़ी गोल चुचियाँ
धकि थी जो कि समीज़ मे काफ़ी तन कर खड़ी थी. हर हाल मे पैर तो दबाना ही था
इसलिए सावित्री दुपट्टा को उतारने लगी और उसे लगा कि उसके उपर आकाश की
बिजली गिर पड़ी हो. दुपट्टा उतार कर बगल मे फर्श पर रख दिया और जब सीधी
खड़ी हुई तब उसे दुपट्टे की कीमत समझ मे आने लगी. दोनो चुचियाँ एक दम बाहर
निकली दिख रही थी मानो समीज़ अभी फट जाएगा और दोनो बड़े बड़े गोल गोल
चुचियाँ आज़ाद हो जाएँगी. अब फिर सावित्री पंडित जी के जाँघ पर अपने पैर रख
कर चाड़ने की कोशिस करने लगी तो संतुलन बनाने लिए फिर उसका कमर के उपर का
शरीर हवा मे लहराया और साथ मे दोनो चुचियाँ भी और उसके शरीर मे सनसनाहट भर
सी गयी.लेकिन गनीमत यह थी की पंडित जी का ध्यान उस किताब मे ही था और वी
सावित्री के चुचिओ को नही देख रहे थे. सावित्री जब किसी तरह से उनके जाँघ
पर खड़ी हो कर उनके जाँघ को अपने पैरों से दबाव बना कर दबाती उनके जाँघ पर
उगे घने काले मोटे बालों से उसके पैर के तलवे मे चुभन सी महसूस होती.
सावित्री उनके जाँघ पर जब खड़ी हो कर दबा रही थी तभी उसे उनके कसरती शरीर
के गातीलेपन का आभास भी होने लगा और जाँघ लग रहा था कि पत्थर का बना हों.
थोड़ी देर तक दोनो जांघों को पैर से दबाने के बाद पंडित जी ने उस किताब को
एक किनारे रख दिया और फिर अपने जाँघो पर चड़ी सावित्री को घूर्ने लगे मानो
दोनो चुचिओ को ही देख रहे हो. अब यह सावित्री के उपर नया हमला था. कुछ पल
तक वो चुचिओ को ही निहारने के बाद बोले "उतरो" और सावित्री उनके जाँघो पर
से अपने पैर नीचे चटाई पर उतार ली और अपनी पीठ पंडित जी के तरफ कर ली ताकि
अपनी दोनो चुचिओ को उनके नज़रों से बचा सके और अगले पल ज्यों ही अपना
दुपट्टा लेने के लिए आगे बड़ी के कड़क आवाज़ उसके कानो मे गोली की तरह लगी
"कमर भी अपने पैर से" और उसने पलट कर पंडित जी की ओर देखा तो वे पेट के बगल
लेट गये थे और उनका पीठ अब उपर की ओर था. उनके शरीर पर बनियान और धोती थी
और अब इस हालत मे जब पैर से कमर दबाने के लिए पैर को कमर पर रखने का मतलब
उनका सफेद रंग की बनियान और धोती दोनो ही सावित्री के पैर से खराब होती.
पंडित जी के कपड़े इतने सॉफ और सफेद थे कि ग़रीब सावित्री की हिम्मत ना
होती उनके इन कपड़ो पर पैर रखे. कुछ पल हिचकिचाहट मे बीते ही थे की पंडित
जी मे दिमाग़ मे फिर ये बात गूँजी की सावित्री एक छोटी जाती की है और उसके
पैर से दबाने पर उनके कपड़े लगभग अशुद्ध हो जाएँगे. फिर अगले पल बोले "रूको
कपड़े तो उतार लूँ" और बैठ कर बनियान को निकाल कर चौकी पर रख दिया और धोती
को कमर से खोलकर ज्योन्हि अलग किया की उनके शरीर पर केवल एक लाल रंग की
लंगोट ही रह गयी.
धोती को भी पंडित जे ने बनियान की तरह चौकी पर रख कर केवल लाल रंग के लंगोट
मे फिर पेट के बगल लेट गये. सावित्री धोती हटने के बाद लाल लंगोट मे पंडित
जी को देखकर अपनी आँखे दूसरी तरफ दीवार की ओर कर लिया. उसके पास अब इतनी
हिम्मत नही थी की अधेड़ उम्र के पंडित जी को केवल लंगोट मे देखे. सावित्री
जो की दीवार की तरफ नज़रें की थी, जब उसे लगा कि अब पंडित जे पेट के बगल
लेट गये है तब वापस मूडी और उनके कमर पर पैर रख कर चढ़ गयी. अपना संतुलन
बनाए रखने के लिए सावित्री को पंडित जी के कमर की तरफ देखना मजबूरी थी और
ज्यों ही उसने पंडित जी की कमर की तरफ नज़रें किया वैसे ही पतले लंगोट मे
उनका कसा हुआ गातीला चूतड़ दिखाई दिया. सावित्री फिर से सिहर गयी. आज जीवन
मे पहली बार सावित्री किसी मर्द का चूतड़ इतने नज़दीक से देख रही थी. उनके
चूतदों पर भी बॉल उगे थे. लंगोट दोनो चूतदों के बीच मे फँसा हुआ था. गनीमत
यह थी की पंडित जे की नज़रें सावित्री के तरफ नहीं थी क्योंकि पेट के बगल
लेटे होने के वजह से उनका मुँहे दूसरी तरफ था इसी कारण सावित्री की कुछ
हिम्मत बढ़ी और वह पंडित जी के कमर और पीठ पर चढ़ कर अपने पैरों से दबाते
हुए पंडित जे के पूरे शरीर को भी देख ले रही थी. उनका गाथा हुआ कसरती
पहलवानो वाला शरीर देख कर सावित्री को लगता था कि वह किसी आदमी पर नही
बल्कि किसी शैतान के उपर खड़ी हो जो पत्थर के चट्टान का बना हो. सावित्री
अपने पूरे वजन से खड़ी थी लेकिन पंडित जी का शरीर टस से मास नही हो रहा था.
जैसा की सावित्री उनके शरीर को देखते हुए उनके कमर को दबा ही रही थी की
उसे ऐसा लगा मानो पंडित जी के दोनो जाँघो के बीच मे कुछ जगह बनती जा रही
हो. पंडित जी पेट के बगल लेटे लेटे अपने दोनो पैरो के बीच मे कुछ जगह बनाते
जा रहें थे. सावित्री की नज़रें पंडित जी के इस नये हरकत पर पड़ने लगी.
तभी उसने कुछ ऐसा देखा की देखते ही उसे लगा की चक्कर आ जाएगा और पंडित जी
के उपर ही गिर पड़ेगी. अट्ठारह साल की सावित्री उस ख़तरनाक चीज़ को देखते
ही समझ गयी थी की इसी से पंडित जी उसके चरित्र का नाश कर हमेसा के लिए
चरित्रहीं बना देंगे. यह वही चीज़ थी जिससे उसकी मा के सपनो को तार तार कर
उसके संघर्ष को पंडित जी ख़त्म कर देंगे. और आगे उसकी मा अपनी इज़्ज़त पर
नाज़ नही कर सकेगी. यह पंडित जी के ढीले लंगोट मे से धीरे धीरे बढ़ता हुआ
लंड था जो अभी पूरी तरीके से खड़ा नही हुआ था और कुछ फुलाव लेने के वजह से
ढीले हुए लंगोट के किनारे से बाहर आ कर चटाई पर साँप की तरह रेंगता हुआ
अपनी लम्बाई बढ़ा रहा था. फिर भी हल्के फुलाव मे भी वह लंड ऐसा लग रहा था
की कोई मोटा साँप हो. उसका रॅंड एकदम पंडित जी के रंग का यानी गोरा था. पेट
के बगल लेटने के वजह से जो चूतड़ उपर था उसकी दरार मे लंगोट फाँसी हुई और
ढीली हो गयी थी जिससे आलू के आकर के दोनो अनदुओं मे से एक ही दिखाई पड़ने
लगा था. उसके अगाल बगल काफ़ी बॉल उगे थे. तभी सावित्री को याद आया की जब वह
लंगोट साफ कर रही थी तभी यही झांट के बॉल लंगोट मे फँसे थे. अनदुओं के पास
झांट के बॉल इतने घने और मोटे थे की सावित्री को विश्वास नही होता था की
इतने भी घने और मोटे झांट के बाल हो सकते हैं. सावित्री अपने उपर होने वाले
हमले मे प्रयोग होने वाले हथियार को देख कर सिहर सी जा रही थी. उसके पैर
मे मानो कमज़ोरी होती जा रही थी और उसकी साँसे अब काफ़ी तेज होने लगी थी
जिसे पंडित जी भी सुन और समझ रहे थे. कुछ पल बाद ज्योन्हि सावित्री का नज़र
उस लंड पर पड़ी तो उसे लगा की मानो उसकी बुर से मूत छलक जाएगी और खड़ी
खड़ी पंडित जी के पीठ पर ही मूत देगी, क्योंकि अब पहले से ज़्यादा खड़ा हो
कर काफ़ी लंबा हो गया था. पंडित जी वैसे ही लेटे अपना कमर दबावा रहे थे और
उनका खड़ा लंड दोनो जाँघो के बीच मे चटाई पर अपनी मोटाई बढ़ा रहा था और
सावित्री को मानो देखकर बेहोशी छाने लगी थी. शायद यह सब उस लंड के तरफ
देखने से हो रही थी. अब सावित्री की हिम्मत टूट गयी और उसने अपनी नज़र चटाई
पर लेटे हुए पंडित जी के लंड से दूसरी ओर करने लगी तभी उसने देखा की पंडित
जी लेटे हुए ही गर्दन घुमा कर उसे ही देख रहे थे. ऐसी हालत मे सावित्री की
नज़र जैसे ही पंडित जी के नज़र से लड़ी की उसके मुँह से चीख ही निकल पड़ी
और " अरी माई" चीखते हुए पंडित जी के कमर पर से चटाई पर लगभग कूद गयी और
सामने फर्श पर पड़े दुपट्टे को ले कर अपने समीज़ को पूरी तरह से ढक ली.
लाज़ से बहाल होने के कारण अब उसका दिमाग़ काम करना एकदम से बंद ही कर दिया
था. नतीजा दो कदम आगे बढ़ी और चटाई से कुछ ही दूरी पर घुटनो को मोदते हुए
और अपने शरीर दोनो बाहों से लपेट कर बैठ गई और अपने चेहरे को दोनो घुटनो के
बीच ऐसे छुपा ली मानो वह किसी को अपना मुँह नही दिखाना चाहती हो. अब वह
लगभग हाँफ रही थी. फर्श पर ऐसे बैठी थी की वह अब वान्हा से हिलना भी नही
चाह रही हो. उसकी घुटना के बीच मे चेहरा छुपाते हुए सावित्री ने दोनो आँखे
पूरी ताक़त से बंद कर ली थी. सावित्री का पीठ पंडित जी के तरफ था जो कुछ ही
फुट की दूरी पर बिछे चटाई पर अब उठ कर बैठ गये थे. लेकिन उनकी लंगोट अब
काफ़ी ढीली हो चली थी और लंगोट के बगल से पंडित जी का गोरा और तननाया हुया
टमाटर जैसे लाल सूपड़ा चमकाता हुआ लंड लगभग फुंफ़कार रहा था मानो अब उसे
अपना शिकार ऐसे दिखाई दे रहा हो जैसे जंगल मे शेर अपने सामने बैठे शिकार को
देख रहा हो.
अब पंडित जी उठकर खड़े हुए और अपने कमर मे
ढीली लंगोट को खोलकर चौकी पर रख दिए. अब उनके शरीर पर एक भी कपड़ा नही था.
एकदम नंगे हो चुके पंडित जी का लंड अब पूरी तरीके से खड़ा था. जहाँ पंडित
जी पूरे नंगे थे वहीं ग़रीब सावित्री अपने पूरे कपड़े मे थी और लाज़ का
चदडार भी उसके पूरे जवान शरीर पर था. पंडित जी अपने पूरे आत्मविश्वासमे थे
और उनका उद्देश्या उनको सॉफ दिख रहा था. अब वह सावित्री पर अंतिम हमले के
तरफ बढ़ रहे थे. उन्होने देखा कि सावित्री लाज़ और डर से पूरी तरह दब गयी
है और अब उन्हे अपना कदम काफ़ी मज़बूती से उठाना होगा. उन्होने एक लंबी
सांस ली जिसकी आवाज़ सावित्री को भी सुनाई दी. वह समझ गयी कि अगले पल मे वह
लूट जाएगी. क्योंकि पंडित जी अब उसके सपनो और इज़्ज़त को मिट्टी मे मिलाने
के लिए तैयार हो गये हैं. उसके मन मे यह बात सॉफ थी कि वह आज अपनी इज़्ज़त
नही बचा पाएगी. उसका मनोबल पंडित जी के प्रभावशाली और कड़क व्यक्तित्व के
सामने घुटने टेक दिया था. अगले पल पंडित जी सामने बैठकर अपने चेहरे को
घुटनों के बीच छुपाए सावित्री के पास आए और झुककर सावित्री के एक बाँह को
अपने मज़बूत हाथों से पकड़कर उपर खड़ा करने लगे. अब सावित्री के पास इतनी
हिम्मत नही थी कि वह विरोध कर सके पूरी तरह से टूट चुकी सावित्री को आख़िर
खड़ा होना पड़ा. खड़ी तो हो गयी लेकिन अपना सिर को झुकाए हुए अपने नज़रों
को एकदम से बंद कर रखी थी. अपने दोनो हाथों से दोनो चुचिओ को छिपा रखी थी
जो की समीज़ मे थी और उसके उपर एक दुपट्टा भी था. पंडित जी की नज़रे
सावित्री को सर से पैर तक देखने और उसकी जवान शरीर को तौलने मे लगी थी.
समन्य कद की सावित्री जो गेहुअन और सवाले रंग की थी और शरीर भरा पूरा होने
के वजह से चुचियाँ और चूतड़ एकदम से निकले हुए थे. पंडित जी नेअपनी नज़रों
से तौलते हुए पूछा "लक्ष्मी के दूसरे बच्चे को देखी है" सावित्री का दिमाग़
मे अचानक ऐसे सवाल के आते ही हैरानी हुई कि पंडित जी लक्ष्मी चाची के दो
बच्चो जिसमे एक 13 साल की लड़की और 5 साल का लड़का था और उसके लड़के के
बारे मे क्यों पूछ रहे हैं. फिर भी इस मुसीबत के पलो मे उसने और भी कुछ
सोचे बगैर बोली "जी". फिर पंडित जी ने पूछा "कैसा दिखता है वो" सावित्री के
मन मे यह सवाल और कयि सवालों को पैदा कर दिया. आख़िर पंडित जी क्या पूछना
चाहते हैं या क्या जानना चाहते हैं. उसे कुछ समझ मे नही आया और चुप चाप
खड़ी रही. फिर पंडित जी का हाथ आगे बढ़ा और खड़ी सावित्री के दोनो हाथों को
जो की चूचियो को छुपाएँ थी हटाने लगे. सावित्री अब मजबूर थी पंडित जी के
सामने और आख़िर दोनो चुचिओ पर से साथ हट गये और दुपट्टा के नीचे दोनो
चुचियाँ हाँफने के वजह से उपर नीचे हो रहीं थी. अब दुपट्टे पर ज्योहीं
पंडित जी का हाथ गया सावित्री के शरीर का सारा खून सुख सा गया और कुछ
सकपकाते हुए एक हाथ से पंडित जी का हाथ पकड़नी चाही थी की पंडित जी ने उसके
दुपट्टे को हटा ही दिया और दोनो बड़ी बड़ी चुचियाँ अब समीज़ मे एकदम सॉफ
उभार लिए दिख रहीं थी.
सावित्री का दुपट्टा फर्श पर गिर पड़ा.
तभी पंडित जी ने सावित्री के दिमाग़ मे एक जबर्दाश्त विस्फोट किया "वह
लड़का मेरे लंड से पैदा है समझी...!" यह सुनते ही सावित्री खड़े खड़े मानो
लाश हो गयी थी. वह क्या सुनी उसे समझ नही आ रहा था. लक्ष्मी चाची को पंडित
जी ने चोदा होगा. इन बातों को और सोचने का समय उसके पास अब नही था क्योंकि
उसके उपर पंडित जी के हमले शुरू हो गये थे. अगले पल सावित्री के दिमाग़ मे
लक्ष्मी चाची के चरित्रा पर एक प्रश्नचिन्ह्आ लगने ही लगे थे कि पंडित जी
के हाथों मे सावित्री की गदराई चुचियाँ आ ही गयी और सावित्री को अपने चुचिओ
पर समीज़ के उपर से ही पहली बार किसी मर्द का हाथ पड़ते ही उसे लगा की
जांघों के बीच एक अज़ीब सी सनसनाहट फैल गयी हो. अचानक इस हमले से सावित्री
का मुँहा खुल गया और एक "सी..सी" की आवाज़ निकली थी कि फिर पंडित जी ने
दबाव बढ़ा कर मसलना शुरू कर दिया. चुचियाँ काफ़ी ठोस और कसी हुई थी. शरीर
मांसल होने के वजह से काफ़ी गदरा भी गयी थी. पंडित जी ने एक एक कर दोनो
चुचिओ को मसलना शुरू कर दिया. पंडित जी खड़े खड़े ही सावित्री की चुचिओ को
मसल रहे थे और सावित्री भी जो चटाई के बगल मे फर्श पर खड़ी थी, उसे लगा की
उसके पैर मे अब ताक़त ही नही है और गिर पड़ेगी. पंडित जी का एक हाथ तो
चुचिओ को बारी बारी से मीस रहे थे और दूसरा हाथ खड़ी सावित्री के पीछे पीठ
पर होते हुए उसे उसे पकड़ रखा था की चुचिओ वाले हाथ के दबाव से उसका सरीर
इधेर उधेर ना हीले और एक जगह स्थिर रहे ताकि चुचिओ को ठीक से मीसा जा सके.
पंडित जी ने खड़े खड़े ही सावित्री के शरीर को पूरी गिरफ़्त मे लेते हुए
चुचिओ को इतना कस कस कर मीज रहे थे कि मानो समीज़ को ही फाड़ देंगे. तभी
सावित्री की यह अहसास हुआ की उसके समीज़ जो उसके कसी हुई चुचिओ पर काफ़ी
तंग थी लगभग फट जाएगी क्योंकि पंडित जी के हाथों से मीज़ रही चुचिओ के उपर
का समीज़ का हिस्सा काफ़ी सिकुड और खीच जाता था. दूसरी बात ये भी थी की
सावित्री का समीज़ काफ़ी पुराना था और पंडित जी के कस कस कर चुचिओ को मीजने
से या तो समीज़ की सीवान उभड़ जाती या काफ़ी खींच जाने से फट भी सकती थी
जो की सावित्री के लिए काफ़ी चिंता और डर पैदा करने वाली बात थी. यदि कहीं
फट गयी तो वह घर कैसे जाएगी और दूसरी की मा यदि देख ली तो क्या जबाव देगी.
यही सोचते उसने पंडित जी से हिम्मत कर के बोली "जी समीज़ फट जाएगी" तभी
पंडित जी ने कहा "चल निकाल दे और आ चटाई पर बैठ, कब तक खड़ी रहेगी" इतना कह
कर पंडित जी चटाई पर जा कर बैठ गये. उनका लंड पूरी तरह से खड़ा था जो
सावित्री देख ही लेती और डर भी जाती उसकी मोटाई देख कर. समीज़ के फटने की
डर जहाँ ख़त्म हुआ वहीं दूसरी परेशानी भी खड़ा कर दी कि समीज़ को उतरना था
यानी अब नंगी होना था.
सावित्री को अब यह विश्वास हो चुका था कि
आज पंडित जी उसका इज़्ज़त को लूट कर ही दम लेंगे और उसकी इज़्ज़त अब बच भी
नहीं सकती. यह सोच मानो सावित्री से बार बार यही कह रहे हों कि विरोध करने
से कोई फ़ायदा नही है जो हो रहा है उसे होने दो. आख़िर सावित्री का मन यह
स्वीकार ही कर लिया की पंडित जी जो चाहें अब उसे ही करना पड़ेगा. और उसके
काँपते हाथ समीज़ के निचले हिस्से को पकड़ कर, पीठ को पंडित जी के तरफ करती
हुई धीरे धीरे निकाल ही ली और कुछ देर तक उस समीज़ के कपड़े से अपनी दोनो
चुचिओ को ढाकी रही जो की एक पुराने ब्रा मे कसी थी. फिर उसने उस समीज़ को
नीचे फर्श पर फेंक दिए और अपनी बाहों से अपनी दोनो चुचीोन को जो की ब्रा मे
थी धक ली और काफ़ी धीरे धीरे सर को नीचे झुकाए हुए पंडित जी के तरफ मूडी.
पंडित जी ने समीज़ के उतारते ही सावित्री की पीठ को देखा और पुराने ब्रा को
भी जो उसने पहन रखा था. लेकिन ज्योन्हि सावित्री ने अपना मुँह पंडित जी के
तरफ की उसके हाथों मे छिपी चुचियाँ जो काफ़ी बड़ी थी दिखी और पंडित जी के
खड़े लंड ने एक झटका लिया मानो सलामी कर रहा हो. "आओ" पंडित जी ने कड़क
आवाज़ मे बुलाया और बेबस सावित्री धीरे धीरे कदमो से चटाई पर आई तो पंडित
जी ने उसका हाथ पकड़ कर बैठने लगे ज्योन्हि सावित्री बैठने लगी पंडित जी
तुरंत उसका बड़ा चूतड़ अपने एक जाँघ पर खींच लिया नतीज़ा सावित्री पंडित जी
के जाँघ पर बैठ गयी. सावित्री जो लगभग अब समर्पण कर चुकी थी उसके चूतड़ मे
पंडित जी के जाँघ के कड़े मोटे बालों का गड़ना महसूस होने लगा. फिर पंडित
जी ने सावित्री के पीठ के तरफ से एक हाथ लगा उसे अपने जंघे पर कस कर पकड़
बनाते हुए बैठाए और ब्रा के उपर से ही चुचिओ को दूसरी हाथ से मीज़ना सुरू
कर दिया. सावित्री पंडित जी के जाँघ पर अब पूरी तरीके से समर्पित होते हुए
बैठी थी और अब उसके सरीर पर उपर ब्रा और नीचे सलवार थी अंदर उसने एक पुरानी
चड्धि पहन रखी थी. पंडित जी के हाथ चुचिओ के आकार के साथ साथ इसके कसाव का
भी मज़ा लेने लगे. सावित्री की साँसे बहुत तेज़ हो गयी थी और अब हाँफने
लगी थी. लेकिन एक बात ज़रूर थी जो पंडित जी दो को सॉफ समझ आ रही थी कि
सावित्री के तरफ से विरोध एकदम नही हो रहा था. यह देखते ही पंडित जी ने
उसके ब्रा के स्ट्रीप को हाथ से सरकाना चाहा लेकिन काफ़ी कसा होने से थोड़ा
सा भी सरकाना मुश्किल दीख रहा था फिर पंडित जी ने सावित्री के पीठ पर ब्रा
के हुक को देखा जो ब्रा पुरानी होने के कारण हुक काफ़ी कमज़ोर और टेढ़ी हो
चुकी थी, और उसे खोला ही था कि सावित्री की दोनो अट्टरह साल की काफ़ी बड़ी
और कसी कसी चूचिया छलक कर बाहर आ गयी तो मानो पंडित जी का तो प्राण ही सुख
गया.इस पुरानी ब्रा मे इतनी नयी और रसीली चुचियाँ हैं पंडित जी को विस्वास
ही नही हो रहा था. ज्योहीं दोनो चुचियाँ छलक कर बाहर आईं की सावित्री के
हाथ उन्हें ढकने के लिए आगे आईं लेकिन अब मनोबल ख़त्म हो चुका था, पूरी तरह
से टूट जाने के कारण सावित्री ने अपने सारे हथियार डाल चुकी थी और पंडित
जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व के सामने अब समर्पित हो चुकी सावित्री को अपनी
नंगी हो चुकी चुचिओ को ढकने से कोई फ़ायदा नही दीख रहा था और यही सोच कर
उसने अपना हाथ दोनो चुचिओ पर से स्वयम् ही हटा लिया नतीज़ा की दोनो चुचियाँ
पंडित जी के सामने एकदम नंगी हो चुकी थी.
पंडित जी इन्हे आँखे फाड़ फाड़ के देख रहे
थे. सावित्री जो पंडित जी जांघों पर बैठी थी उसके एक कूल्हे से पंडित जी
का लंड रगर खा रहा था जिसके वजह से वह लंड की गर्मी को महसूस कर रही थी और
इसके साथ ही साथ उसके शरीर मे एक मदहोशी भी छा रही थी. पंडित जी की साँसे
जो तेज़ चल रही थी खड़ी चुचिओ को देखकर मानो बढ़ सी गयी. फिर पंडित जी ने
अपना हाथ आगे बढ़ाया और सावित्री के नंगी चुचिओ पर रख ही दिया. सावित्री को
लगा की उसकी बुर से कोई चीज़ निकल जाएगी. फिर दोनो चुचिओ को बैठे बैठे ही
मीज़ना सुरू कर दिया. अब सावित्री जो अपनी आँखे शर्म से बंद की थी अब उसकी
आँखे खुद ही बंद होने लगी मानो कोई नशा छाता जा रहा हो उसके उपर. अब उसे
आँखे खोलकर देखना काफ़ी मुस्किल लग रहा था. इधेर पंडित जी दोनो चुचिओ को
अपने दोनो हाथो से मीज़ना चालू कर दिया. सावित्री जो पूरी तरह से नंगे हो
चुके पंडित जी की एक जाँघ मे बैठी थी अब धीरे धीरे उनकी गोद मे सरक्ति जा
रही थी. सावित्री के सरीर मे केवल सलवार और चड्डी रह गयी थी. सावित्री का
पीठ पंडित जी के सीने से सटने लगा था. सावित्री को उनके सीने पर उगे बॉल
अपनी पीठ से रगड़ता साफ महसूस हो रहा था. इससे वह सिहर सी जाती थी लेकिन
पंडित जी की चुचिओ के मीज़ने से एक नशा होने लगा था और आँखे बंद सी होने
लगी थी. बस उसे यही मालूम देता की पंडित जी पूरी ताक़त से और जल्दी जल्दी
उसकी चुचियाँ मीज़ रहे हैं और उनकी साँसे काफ़ी तेज चल रही हैं. अगले पल
कुछ ऐसा हुआ जिससे सावित्री कुछ घबरा सी गयी क्योंकि उसे ऐसा महसूस हुआ कि
उसकी बुर से कोई गीला चीज़ बाहर आना चाह रहा हो. जिसके बाहर आने का मतलब था
कि उसकी चड्डी और सलवार दोनो ही खराब होना. उसने अपनी बंद हो रही आँखो को
काफ़ी ज़ोर लगा कर खोली और फिर पंडित जी की गोद मे कसमसा कर रह गयी क्योंकि
पंडित जी अब सावित्री को कस पकड़ चुके थे और चुचिओ को बुरी तरह से मीज़
रहे थे. अभी यही सावित्री सोच रही थी कि आख़िर वह पंडित जी से कैसे कहे की
उसकी बुर मे कुछ निकलने वाला है और उससे उसकी चड्डी और सलवार खराब हो
जाएगी. यह सावित्री के सामने एक नयी परेशानी थी. उसे कुछ समझ मे नही आ रहा
था.पंडित जी का प्रभावशाली व्यक्तित्व और कड़क मिज़ाज़ के डर से उनसे कुछ
बोलने की हिम्मत नही थी. सावित्री को आज यह भी मालूम हो गया था कि लक्ष्मी
चाची भी उनसे बच नही पाई थी. वह यही अफ़सोस कर रही थी की पहले ही उसने
सलवार और चड्डी निकाल दी होती तो उसके कपड़े खराब ना होते. लेकिन वह यह भी
सोचने लगी की उसे क्या मालूम की उसकी बुर से कुछ गीला चीज़ निकलने लगेगा और
दूसरी बात यह की उसे लाज़ भी लग रहा था पंडित जी से. इसी बातों मे उलझी ही
थी की पंडित जी का एक हाथ सावित्री के नाभि के पास से फिसलता हुआ सलवार के
नडे के पास से सलवार के अंदर जाने लगा. चुचिओ के बुरी तरह मसले जाने के
वजह से हाँफ रही सावित्री घबरा सी गयी फिर वैसे ही पंडित जी के गोद मे बैठी
रही. पंडित जी का ये हाथ मानो कुछ खोज रहा हो और सावित्री के दोनो जाँघो
के बीच जाने की कोशिस कर रहा था. सलवार का जरवाँ के कसे होने के वजह से हाथ
आसानी से सलवार के अंदर इधेर उधर घूम नहीं पा रहा था. पंडित जी के हाथ के
कलाई के पास के घने बॉल सावित्री के नाभि पर रगड़ रहे थे. पंडित जी की
उंगलियाँ सलवार के अंदर चड्डी के उपर ही कुछ टटोल रही थी लेकिन उन्हे चड्डी
मे दबे सावित्री की घनी झांते ही महसूस हो सकी. लेकिन यह बात पंडित जी को
चौंका दी क्योंकि उन्हे लगा कि सावित्री के चड्डी काफ़ी कसी है और उसकी
झांते काफ़ी उगी है जिससे चड्डी मे एक फुलाव बना लिया है. सलवार का जरवाँ
कसा होने के वजह से पंडित जी का हाथ और आगे ना जा सका फिर उन्होने हाथ को
कुछ उपर की ओर खींचा और फिर सलवार के अंदर ही चड्डी मे घुसाने की कोसिस की
और चड्डी के कमर वाली रबर कसी होने के बावजूद पंडित जी की कुछ उंगलियाँ
सावित्री के चड्डी मे घुस गयी और आगे घनी झांतों मे जा कर फँस गयी. पंडित
जी का अनुमान सही निकला कि चड्डी के उपर से जो झांटें घनी लग रही थी वह
वास्तव मे काफ़ी घनी और मोटे होने के साथ साथ आपस मे बुरी तरह से उलझी हुई
थी. पंडित जी की उंगलियाँ अब सावित्री के झांतो को सहलाते हुए फिर आगे की
ओर बढ़ने की कोसिस की लेकिन कमर के पास सलवार का जरवाँ कसे होने के वजह से
ऐसा नही हो पाया.सलवार और चड्डी के अंदर पंडित जी के हाथों के हरकत ने सावित्री की परेशानी
और बढ़ा दी क्योंकि जो गीला चीज़ बुर से निकलने वाला था अब बुर के मुँह पर
लगभग आ गया था. तभी एक राहत सी हुई क्योंकि अब पंडित जी का हाथ चड्डी से
बाहर आ कर सलवार के जरवाँ के गाँठ को खोलने लगा और जरवाँ के खुलते ही पंडित
जी के हाथ जैसे ही सलवार निकालने के लिए सलवार को ढीला करने लगे सावित्री
ने भी अपने चौड़े चूतड़ को पंडित जी के गोद मे बैठे ही बैठे कुछ हवा मे
उठाई ताकि सलवार को चूतदों के नीचे से सरकया जा सके और जाँघो से सरकाते हुए
निकाला जा सके. पंडित जी ने मौका पाते ही सलवार को सरकाते हुए निकाल कर
फर्श पर फेंक दिया. अब सावित्री दुबारा जब पंडित जी की गोद मे बैठी तब केवल
चड्डी मे थी और उसकी जंघे भी नगी हो चुकी थी. बैठे ही बैठे सावित्री ने
अपने चड्डी के उपर से बुर वाले हिस्से को देखी तो चौंक गयी क्योंकि बुर से
कुछ गीला चीज़ निकल कर बुर के ठीक सामने वाला चड्डी का हिस्से को भीगा दिया
था. गोद मे बैठने के वजह से पंडित जी का फंफनता लंड भी सावित्री के कमर से
रगड़ खा रहा था. सावित्री की नज़र ज्योन्हि लंड पर पड़ती उसे लगता कि अब
मूत देगी.
पंडित जी ने सावित्री के चड्डी के उपर से
ही बुर को सहलाने लगे तभी उनकी उंगलियाँ चड्डी के उपर से ही बुर की दरार के
तरफ ज्योही बढ़ी उनकी उंगली भीगे हुए चड्डी पर गयी और उंगली भीग गयी.
पंडित जी ने भीगे उंगली के साथ सावित्री की चड्डी को भी देखा तो पाया कि
बुर से कमरस निकल कर बुर से सटी हुई चड्डी को भीगा दिया है. अब पंडित जी
समझ चुके थे कि तवा गरम हो गया है और रोटी सेंकने की बारी है. उन्हे लगा कि
शायद गरम हो जाने के कारण ही सावित्री विरोध नही कर पा रही थी. सावित्री
की आँखे फिर बंद होने लगी तभी पंडित जी ने सावित्री की चड्डी को निकालने की
कोशिस की तो पाया की चड्डी काफ़ी तंग थी और काफ़ी कसी होने के कारण आसानी
से सरकना मुस्किल दिख रहा था. फिर भी उंगली को चड्डी के कमर वाले हिस्से मे
डालकर नीचे सरकाने की कोसिस की तो चड्डी थोड़ी से सरक कर रह गयी और अब
पंडित जी की उंगली चड्डी और सावित्री के चूतड़ के माँस के बीच फँस सी गयी.
फिर भी पंडित जी तो जानते ही थे कि सावित्री की चड्डी तो निकालनी ही पड़ेगी
चाहे जैसे निकले. दुबारा उन्होने ने ज़ोर लगाया ही था कि सावित्री ने उनका
हाथ पाकर ली क्योंकि सावित्री को लगा कि उसकी पुरानी चड्डी जो काफ़ी कसी
हुई थी ज़ोर लगाने पर फट ज्एगी. चड्डी को पहनते और निकलते समय सावित्री को
काफ़ी मेहनत करनी पड़ जाती थी. इसका कारण यह भी था कि उसके शरीर मे अब भराव
भी हो जाने से उसके चूतड़ काफ़ी गोल और चौड़े हो गये थे. सावित्री समझ गयी
कि चड्डी को फटने से बचने के लिए खुद ही निकालनी पड़ेगी और अगले पल पंडित
जी के गोद से उठ कर खड़ी हुई तो पंडित जी के सामने सावित्री का बड़ा मांसल
चूतड़ आ गया जिसपर चड्डी चिपकी हुई थी.
सावित्री ने धीरे धीरे दोनो हाथों के
उंगलिओं के सहारे चड्डी को थोड़ा थोड़ा सरकाना सुरू कर दी. जब चड्डी कमर से
कुछ नीचे सरक गयी तो पंडित जी ने देखा की चूतड़ पर चड्डी वैसे ही चिपकी
पड़ी है. फिर सावित्री ने अपने गुदज मांसल चूतड़ और चड्डी के बीच मे उंगली
फँसैई और काफ़ी धीरे से नीचे की ओर सरकया ही था कि अचानक चूतर पर से चड्डी
सात की आवाज़ के साथ सरक कर जाँघो मे आ गयी. दोनो चूतड़ पंडित जी के सामने आ
गये. पंडित जी ने देखा कि ग़रीब सावित्री किस मुस्किल से अपनी तंग चड्डी
को सरका रही थी की कहीं फट ना जाए. शायद उसकी भरी जवानी के वजह से पुरानी
चड्डी अब काफ़ी कस गयी थी. चुतदो पर से चड्डी हट कर जाँघो मे आ गयी तब
सावित्री ने फिर धीरे धीरे अपनी मांसल जांघों से नीचे सरकाना सुरू किया.
चड्डी जैसे चूतदों पर कस कर फाँसी थी वैसे ही जांघों मे भी काफ़ी मेहनत
करनी पड़ी. आख़िर रोज़ जिस मुस्की से सावित्री चड्डी पहनती और निकलती आज
पंडित जी को भी मालूम चल गया. शायद पंडित जी इस चड्डी को निकालते तो निकाल
नही पाते और ज़ोर लगाने का मतलब कि ग़रीब सावित्री की चड्डी फट जाती. पहले
तो पंडित जी के दिमाग़ मे यह बात थी कि सावित्री की चड्डी छोटी है तभी इतनी
परेशानी हो रही है इसे निकालने मे लेकिन जब सावित्री के चूतादो और जांघों
को गौर से देखा तो समझ गये कि चड्डी से कही ज़्यादा कारण चूतादो और जांघों
का बड़ा और मांसल होना था.
इस परेशानी के लिए सावित्री के चुड़ाद और
जंघें ही सीधे ज़िम्मेदार हैं. कसे चड्डी के सॅट के निशान कमर और जाँघो पर
साफ दिख रहा था. सावित्री ने अपने पैरों से चड्डी निकाल कर फर्श पर रख दी
और अब वह एकदम नगी हो चुकी थी और इस पल उसकी मा की याद आ रही थी, सावित्री
को लग रहा था कि उसकी मा का संघर्ष जो वह इज़्ज़त के लिए लड़ रही थी, अब
ख़त्म हो गया क्योंकि आज वह पंडित जी के सामने एकदम नगी हो गयी थी. अपने
चूतदों को पंडित जी के तरफ करके यही सोच ही रही थी कि पंडित जी के हाथों ने
उसके कमर को पकड़ कर फिर अपने गोद मे बैठने का इशारा किया तो सावित्री समझ
गयी और पीछे एक नज़र बैठे पंडित जी के तरफ देखी जो बैठे थे लेकिन उनका लंड
एक दम से खड़ा था. सावित्री फिर उनके गोद मे बैठने लेगी तो पहली बार पंडित
जी के झांतो के बाल सावित्री के नंगे चौड़े चूतदों मे चुभने से लगे थे.
पंडित जी फिर अपने हाथों को चुचिओ पर फेरते हुए मीज़ना सुरू कर दिया.
सावित्री के चुचिओ की घुंडिया एकदम काली काली थी. उत्तेजना से खड़ी हो गयी
थी. घुंडीओ को पंडित जी एक एक कर के मरोड़ कर मज़ा लूटना सुरू कर दिया. यही
कारण था कि बुर से कमरस निकलना सुरू हो गया. अब पंडित जी झांतों मे भी
उंगली चलाई तो दंग रह गये झांते काफ़ी घनी होने के कारण उंगलियाँ फँस सी
जाती थी. फिर एक हाथ तो चुचिओ पर ही था और दूसरा झांतों से होते हुए
ज्योहीं बुर के मुँह पर गया की सावित्री एकदम पागल सी हो गयी मानो बेहोश हो
रही हो. पंडित जी के हाथ ने पवरोटी के समान फूली हुई बुर को सहलाते हुए
टटोला तो पाया की काफ़ी काफ़ी गुदाज़ बुर थी. झांते तो ऐसे उगी थी मानो कोई
जंगल हो और काफ़ी बड़ी होने के नाते बुर के ओठों को भी ढक रखी थी. पंडित
जी ने बुर के ओठों के उपर लटके हुई झांतों को उंगलिओं से हटाया और बुर के
दोनो फांको को उपर से ही सहलाया. फिर एक उंगली को फांको के बीच वाली कुवारि
दरार के उपर चलाया तो कमरस से भीग गयीं. ये बुर से निकला कमरस मानो पंडित
जी के हाथों को बुला रहा था. पंडित जी ने एक उंगली को फांको के बीच के दरार
पर सरकया मानो उसके बीच कोई जगह तलाश रहे हों. दरार के सही स्थान पर उंगली
के टिप से दबाव बनाया और कामयाब भी हो गये उंगली के अगला हिस्सा थोडा सा
घुस गया लेकिन दरार काफ़ी सांकारी होने के वजह से उंगली को मानो बाहर की ओर
धकेल रही हो. गीली हो चुकी बर की दरार मे उंगली के थोड़े से हिस्से के
घुसते ही उंगली कमरस से भीग गयी.पंडित जी अपने इस उंगली को उसी दरार पर लगाए रखा और बार बार उंगली के अगले
हिस्से को दरार के मुँह मे घुसाते और निकालते. मानो पंडित जी ऐसा कर के कुछ
समझने की कोसिस कर रहे थे. दरार मे उंगली का आराम से ना घुस पाना शायद यह
प्रमाणित कर रहा था कि सावित्री को उसके गाओं के अवारों ने चोद नही पाया
हो. पंडित जी भी सावित्री के गाओं के बारे मे खूब आक्ची तरीके से जानते थे
कि कितने आवारा और ऐयश किस्म के बदमाश वहाँ रहते हैं. शायद वह पहले यही
सोचते थे कि सावित्री भी अब तक बच नही पाई होगी अन्या लड़कीो की तरह लेकिन
उंगली का अगला हिस्सा बुर के मुँह पर फँस कर कस जाना उन्हे हैरान कर दी.
उन्हे तो चुचिओ के कसाव और आकार देखकर ही कुछ शक हो गया था कि किसी ने इन
अनारो पर हाथ नही फेरा हो. लेकिन फांको के बीच फाँसी उंगली ने पंडित जी को
यह विश्वास दिला दिया कि सावित्री एकदम उन्चुइ है. सावित्री की आँखे एकदम
बंद हो गयी थी और साँसे काफ़ी तेज़ चलराही थी. तभी पंडित जी ने जिस हाथ से
चुचिओ को मीज़ रहे थे उससे सावित्री के चेहरे को अपने मुँह के तरफ मोड़ा और
उसके निचले होंठ को अपनी मुँह मे लेने के बाद चूसना सुरू कर दिया. दूसरे
हाथ की उंगली जो बुर के फांको मे फँस गयी थी उसे वहीं रहने दिया और बीच बीच
मे उंगली को अंदर चंपने लगते. पहली बार किसी मर्द से ओठों की चुसाइ से
सावित्री का शरीर सिहर सा गया और उसे नशा और छाने लगा. कुछ देर तक ऐसे ही
होंठो को चूसने के बाद सावित्री को अपने गोद मे से उठाकर चटाई पर बैठा दिए
और एक हाथ पीठ के ररफ़ करके सहारा देते हुए दूसरे हाथ से सावित्री के एक
चुचि को मुँह मे लेकर घुंडीओ को दाँतों से दबा दबा कर चूसने लगे. सावित्री
एकदम झंझणा उठी. उसके शरीर मे अब एक आग सी लग गयी थी. वह अब पंडित जी को
रोकना नही चाहती थी. अब उसे ये सब अच्छा लगने लगा था. पंडित जी ने बारी
बारी से दोनो चुचिओ को खूब चूसा और बीच बीच मे खाली हाथ से फांकों के बीच
मे भी उंगली धंसा देते जिससे सावित्री कुछ उछल सी जाती. पंडित जी का लॅंड
जो काफ़ी तननाया हुआ था उसको उन्होने सावित्री के हाथ मे देने लगे.
चटाई पर बगल मे बैठी सावित्री कुछ लाज़ के
बाद आख़िर लंड को एक हाथ मे थाम ही ली. लंड काफ़ी गरम था और सावित्री के
जीवन का पहला लंड था जो रह रह कर झटके भी लेता था. सावित्री अब गरम हो चुकी
थी और लंड को थामे अपनी दोनो चुचिओ को पंडित जी के मुँह मे चुसा रही थी.
तभी पंडित जी ने सावित्री को लंड को आगे पीछे हिलाने के लिए अपने हाथ से
इशारा किया लेकिन सावित्री लाज़ के मारे केवल लंड को थामे ही रह गयी. जब
दुबारा उन्होने अपने हाथ से सावित्री के उस हाथ जो लंड थामे थी, को पकड़ कर
आगे पीछे हिलाते हुए ऐसा करने के लिए इशारा किया तो डर के मारे हिलाने तो
लगी लेकिन लंड को ठीक से हिला नही पा रही थी. वह केवल लंड को थोड़ा थोड़ा
ही हिला पाती और लंड को अपनी डूबती आँखो से देख भी रही थी जो पंडित जी के
घने झांतों से घिरा हुआ था लेकिन एकदम गोरा और लंबा और मोटा भी था. लंड के
मुँह से हल्की लसलसता हुआ पानी निकल रहा था जो कभी कभी सावित्री के हाथ मे
भी लग जाता. पंडित जी का दूसरा हाथ ज्योहीं खाली हुआ उन्होने फिर बुर के
फांको के बीच गूसाने लगते. चुचिओ की चुसाइ से बुर अब और भी ज़्यादा गीला हो
चुका था और पंडित जी की उंगली का कुछ हिस्सा बुर के सांकारी छेद मे घुसा
लेकिन कमरस से भीग गया. पंडित जी ने उस उंगली को अगले पल फांको के बीच खूब
नचाया और कमरस से भीगो कर तार कर लिया और फांकों से निकाल कर सीधे मुँह मे
लेकर चाट गये. ऐसा देखकर सावित्री चौंक सी गयी उसे समझ मे नही आया कि जो
पंडित जी छोटी जाती की लड़की को अपने बिस्तर को नही छूने देते वो कैसे उसके
पेशाब वाले स्थान यानी बुर के अंदर की उंगली को चाट गये.
अब पंडित जी और देर करना नही चाहते थे. वह
जानते थे कि जो सावित्री अभी लंड को ढंग से हिला नही पा रही है वह लंड को
कैसे चुसेगी. फिर ज़्यादा वक्त खराब ना करने के नियत से सावित्री को चटाई
पर लेटने के लिए कहा और सावित्री चिट लेट गयी लेकिन आँखे बंद कर ली.पंडित
जी अपनी उंगली को बुर मे घुसेड कर पहले ही समझ गये थे कि सावित्री कुँवारी
है और उसकी सील को तोड़ने के लिए काफ़ी ताक़त से चोदना होगा. अट्ठारह साल
की सावित्री को भी यह पता था की जब लड़की पहली बार मर्द से चुदति है तो
थोड़ा दर्द होता है और कुछ खून भी बुर से निकलता है, जो कि उसने अपने
सहेलिओं से सुन रखी था. अबतक पंडित जी ने जो कुछ सावित्री के शरीर के साथ
किया उससे वह एकदम गरम हो कर बह रही थी. उसकी स्थिति एक चुदासि औरत की तरह
हो चुकी थी. इसी वजह से वह विरोध के बजाय अब पंडित जी से अपनी बह रही गरम
बुर को चुदाना चाह रही थी. पंडित जी बिना समय गवाए चटाई के बीच मे लेटी
सावित्री के दोनो पैरों के बीच मे आ गये. पंडित जी ने सावित्री के दोनो
मांसल और साँवले रंग के मोटी मोटी जाँघो को फैलाया तो कुँवारी बुर एकदम
सामने थी. सावित्री के आँखे बंद थी और दिल बहुत तेज़ धड़क रहा था लेकिन गरम
हो जाने के वजह से वह खुद अपनी बुर मे लंड लेना चाह रही थी. इसी कारण वह
पंडित जी का सहयोग कर रही थी. सावित्री की दोनो जाँघो को अलग करने पर पंडित
जी ने देखा कि झांट के बॉल काफ़ी घने और बड़े होने के नाते बुर के होंठो
के उपर भी आ गये थे. पंडित जी ने उन झांट के बालो को बुर के होंठो से उपर
की ओर अपनी उंगलिओ से करने लगे. फिर बह रही बुर मे पंडित जी ने एक बार और
उंगली घुसाइ तो कुछ हिस्सा घुसा और फिर उंगली फँस गयी. अब बुर से लिसलिसा
पानी निकलना और तेज हो गया था. पंडित जी को लगा कि अब सही समय है सावित्री
को चोद देने का. सावित्री के दोनो जांघों को अपने बालो से भरी जांघों पर
चढ़ा कर उकड़ू हो कर बैठ गये और सावित्री चटाई पर सोए हुए अपनी आँखें एकदम
से बंद कर ली थी.उसका दिल इतना ज़ोर ज़ोर से धड़क रहा था मानो उसका सीना फड़कर बाहर आ
जाएगा.तभी पंडित जी नेअपने लंड को एक हाथ से पकड़ कर सुपादे के उपर वाली
चमड़ी को पीछे सरकया तो सूपड़ा बाहर आ कर चमकने लगा. लंड के मुँह से
लिसलिसा लार की तरह पानी थोडा थोडा चू रहा था. फिर उसी हाथ को पंडित जी
अपने मुँह के पास ले गये और मुँह से थूक निकाल कर हाथ मे लेकर सूपदे और लंड
पर लपेस कर काफ़ी चिकना कर लिए. अब सावित्री की बुर के साँकरी दरार को एक
हाथ की दोनो उँगलिओ से चौड़ा कर के लंड का चमकता हुआ सूपड़ा दरार के ठीक
बीचोबीच भिड़ाया. शायद सूपदे की गरमी सावित्री बर्दाश्त ना कर सकी और उसका
चौड़ा और लगभग काले रंग का चूतड़ उच्छल सा गया और लंड दरार से सरक कर
सावित्री के जाँघो से जा कर टकराया और पंडित जी ने जो थूक लंड और उसके
सूपदे पर लगाया था वह सावित्री के जाँघ पर लग गया. फिर पंडित जी ने अपने
मुँह से थूक निकाल कर दुबारा लंड और उसके सूपदे पर लपेस कर काफ़ी चिकना बना
लिया. इस बार पंडित जी सावित्री के जांघों के बीच काफ़ी मजबूती के साथ बैठ
कर एक हाथ से सावित्री के कमर के कूल्हे को पकड़ लिया ताकि उसे उछलने से
रोका जा सके और दूसरी हाथ की उंगलिओ से बुर की दोनो फांको को अलग अलग किया
लेकिन उंगलिओ के हटते ही फांके एकदम सिकुड जाती थी और सूपड़ा को लगाना
काफ़ी मुश्किल हो जाता. फिर पंडित जी ने सावित्री को सोए सोए ही अपने दोनो
हाथों से बुर को चौड़ा करने के लिए कहा.
सावित्री भी चुदाई के गर्मी मे होने के
नाते उसने अपने हाथ दोनो तरफ से लाकर अपने चूतड़ वाले हिस्से को खींच कर
फैलाया तो बुर की दरार भी थोड़ी सी खुल गयी. सही मौका देखते ही पंडित जी ने
थूक से लपेसे हुए चमकते सूपदे को दरार के ठीक बीचोबीच लगाते ही सावित्री
के कूल्हे को कस के पकड़ा और सूपदे का दबाव दरार मे देना सुरू कर किया. गरम
सूपड़ा को अपनी बुर मे पाते ही सावित्री एकदम से गन्गना गयी और इस बार फिर
कुछ हरकत मे आने वाली थी कि पंडित जी ने सावित्री के कमर को एक हाथ से कस
कर लपेटते हुए और दूसरे हाथ से लंड को पकड़ कर सांकारी बुर की दरार मे दबाए
रखा ताकि लंड फिसल कर बाहर ना आ जाए. इसका कारण यह भी था कि बुर का छेद
बहुत छोटा होने के कारण पंडित जी के लंड का चौड़ा सूपड़ा बुर मे घुसने के
बजाय फिसल कर बाहर आ सकता था. पंडित जी ने सावित्री की कमर को एक हाथ से
लपेटते हुए लगभग जाकड़ लिया ताकि सावित्री चाहकर भी कमर को हिला ना सके और
दूसरे हाथ मे लंड को पकड़ कर जब बुर की दरार मे दबाव बनाया तो थूक से चिकना
सूपड़ा और गीली बुर होने के बजाह से सूपड़ा बुर के दरार मे फिसल कर छेद के
तरफ सरकते हुए घुसने लगा. जिससे सावित्री की बुर की सांकारी दीवारें फैलने
लगी और सूपड़ा अपने आकार के बराबर फांको के दोनो दीवारों को फैलाने लगा.
कभी ना चुदी होने के कारण सावित्री की बुर की दीवारे सूपदे को चारो ओर से
कस कर पकड़ ली थी. इधेर पंडित जी काफ़ी ताक़त लगा कर सूपदे को बुर की दरार
मे फाँसना चाहते थे. कुछ देर तक एक हाथ से सावित्री का कमर और दूसरी हाथ से
अपना लंड पकड़ कर दरार मे अपना चमकता हुआ सूपड़ा धँसाने की कोशिस करते रहे
और काफ़ी मेहनत के बाद बुर मे सूपड़ा फँस ही गया और सावित्री को दर्द भी
हो रहा था क्योंकि पंडित जी केवल सूपदे को ही बुर मे धँसाने के लिए काफ़ी
ज़ोर लगा रहे थे. दर्द की वजह से सावित्री अपने दोनो हाथों को अपने चूतादो
से हटा ली थी. पंडित जी ने देखा कि किसी तरह से सूपड़ा घुस कर फँस गया है
तब अगला कदम उठाने के लिए एक लंबी सांस ली.
फिर उन्होने सावित्री को देखा कि केवल
सूपड़ा के ही बुर के दीवारो मे फसने के वजह से कुछ दर्द हो रहा है और वह
कुछ कराह रही थी तभी डाँटते हुए कहे "बुर को जैसे चौड़ा की थी वैसे कर तभी
दर्द कम होगा" सावित्री फिर से अपने चूतादो को दोनो हाथो से चौड़ा किया तो
फिर बुर के फाँक कुछ फैले लेकिन इससे पंडित जी को कोई फ़ायदा नही हुआ
क्योंकि पंडित जी ने पहले ही एक हाथ से लंड को पकड़ कर सुपादे को बुर मे
फँसाए हुए थे. वह जानते थे कि यदि लंड को हाथ से नही पकड़ेंगे तो सूपदे को
बुर की साँकरी दीवारे बाहर की ओर धकेल देंगी और फिर से सूपड़ा धाँसने के
लिए मेहनत करनी पड़ेगी. *************************************************
सूपदे का दबाव सावित्री की बुर के दीवारो पर बना रहा और केवल आधी इंच के
लगभग ही सूपड़ा घुस कर रुक गया था. लेकिन कुछ फँस कर रह जाने से अब पंडित
जी को यह आभास हो गया कि अब एक करारा धक्का देने पर लंड बुर की छेद मे ही
जाएगा और फिसल कर बाहर नहीं आएगा. और अगले पल पंडित जी ने अपनी पकड़ काफ़ी
मज़बूत कर ली और केवल सुपादे का दबाव पाकर सावित्री कराह रही थी की पंडित
जी ने सावित्री की शरीर के सही तरह से चित लेटे होने और दोनो जंघें फैली
हुई होने और अपने लंड को बुर के मुँह मे फँसा होना एक सही मौका था कि एक
जबर्दाश्त करारा धक्का मार कर सावित्री की कुँवारी बुर की सील को ताड़ने के
लिए. लेकिन यह बात सावित्री के मन मे नही था कि अगले पल मे पंडित जी उसे
कितना दर्द देंगे. उसे तो केवल यही मालूम था कि जो दर्द सूपदे के घुसने से
हुआ है उतना ही दर्द होगा जो वह किसी तरह बर्दाश्त कर ले रही थी. लेकिन
पंडित जी अपने जीवन मे बहुत सी कुवारि लड़की को चोद कर औरत बना चुके थे
इसलिए उन्हे बहुत अच्छा अनुभव था और वह यह जानते थे कि अगले पल मे जो कुछ
होगा वह सावित्री के लिए काफ़ी दर्द भरा होगा और वह उच्छल कर छटपटाएगी और
हो सकता है कि पकड़ से भागने की भी कोसिस करे. क्योंकि की कुछ लड़कीयो के
सील की झिल्ली कुछ मोटी होने के कारण काफ़ी जोरदार धक्के मार कर तोड़ना
पड़ता है और लड़की को दर्द भी बहुत होता है. लेकिन झिल्ली मोटी है या पतली
ये तो लंड का दबाव बनाने पर ही पता चलेगा. यह सब पंडित जी के दिमाग़ मे चल
ही रहा था कि उन्हे लगा कि अब एक सही समय आ गया है धक्का मारने का.उन्होने
ने बुर के मुँह मे अपने फँसे हुए लंड के सूपदे को ठीक वैसे ही बनाए रखा और
एक हाथ से लंड को भी पकड़े रखा और अपनी कमर और शरीर के हिस्सा को हल्का सा
लहराते हुए एक धक्का बुर मे मारा.इस धक्के से लंड का सूपड़ा जो बुर मे ही फँसा था, पंडित जी के पूरे शरीर का
वजन का दबाव पाते ही सावित्री के बुर के दीवारो को फैलाते हुए सांकरी बुर
मे अंदर की ओर सरक गया. लेकिन सावित्री की कुवारि झिल्ली से जाकर टकराया और
झिल्ली को अंदर की तरफ धकेलते हुए रुक गया. नतीज़ा यह हुआ कि लंड के सूपदे
के दबाव से झिल्ली काफ़ी खींच तो गयी लेकिन फट नही पाई और सुपाड़ा वहीं पर
रुक कर बुरी तरह से फँस गया. शायद यह इस वजह से भी हुआ क्योंकि बुर की छेद
काफ़ी साँकरी थी और जब पंडित जी ने धक्का मारा तो लंड बुर के दीवारो को
काफ़ी दबाव लगा कर फैलाते हुए झिल्ली तक आ सका था और झिल्ली पर सुपादे का
जबर्दाश्त दबाव नही बन पाया कि वो फट जाए. दूसरा कारण यह भी था कि झिल्ली
की परत कुछ मोटी भी थी. जब झिल्ली पर सुपादे के दबाव पड़ा और काफ़ी खींच
गयी तो झिल्ली के खींचाव का दर्द सावित्री को बहुत तेज हुआ उसे लगा कि उसके
शरीर का सारा खून बुर मे चला गया हो. बुर के अंदर उठे इस दर्द को वह
बर्दाश्त नही कर पाई और छटपटा कर चिल्ला उठी " आईए आईए रे म्माई आई री बाप
आरी बाहूत दराद होता ए ...आहही आही माई रे मे .. बाप रे ...आर बाप्प
!...निकाला आई रे माइए. आहह...""सावित्री के छटपटाने की हरकत से अब एक नयी
दिक्कत आने लगी क्योंकि सावित्री अपनी फैली हुई जांघों को सिकोड़ने और कमर
को इधेर उधेर नचाने की कोशिस करने लगी. फिर भी पंडित जी ने उसके कमर को कस
के पकड़ कर लंड का दबाव बुर मे धक्कों के रूप मे देने लगे लेकिन उन्हे
महसूस हुआ कि उनका लंड जो बुर मे फँस गया था और आगे नही बढ़ पा रहा था
बल्कि झिल्ली से टकरा कर उसे अंदर की ओर धकेल दे रहा था लेकिन झिल्ली को
फाड़ नही पा रहा था और झिल्ली पर जा कर रुक जा रहा था. उपर से सावित्री के
छटपटाने के वजह से पंडित जी को अब यह भी डर बन गया कि कहीं लंड फिसल कर बुर
से बाहर ना आ जाए और फिर उसे चोदना बहुत मुश्किल हो जाएगा. पंडित जी ने
जितनी ज़ोर लगा कर लंड का धक्का बुर मे मारे थे उतने मे उन्होने बहुत सी
लड़कियो की कुवारि बुर की सील तोड़ चुके थे. इससे पंडित जी समझ गये कि
सावित्री की बुर की झिल्ली कुच्छ मोटी है और अब वह अगला कदम ऐसा उठना चाह
रहे थे कि इस बार कोई फिर से परेशानी ना हो. पंडित जी ने बिना समय गवाए
अगले पल तक सावित्री को वैसे ही अपने पूरे शरीर के वजन से चटाई मे कस कर
दबाए रखा और कमर को काफ़ी ताक़त से पकड़े रखा, लंड जो बुर मे जा कर बुरी
तरह से फँस गया था उसे भी एक हाथ से पकड़े रखा. इधेर सावित्री जो की पंडित
जी के पूरे शरीर के वजन से चटाई मे नीचे बुरी तरह से दबी हुई थी मानो उसका
सांस ही रुक जाएगा और बुर के अंदर घुसे पंडित जी के मोटे और लंबे लंड के
सुपादे के दबाव से उठे दर्द से अभी मर जाएगी. सावित्री जिस चटाई पर दबी हुई
थी वह काफ़ी पतला था और इस वजह से नीचे से फर्श का कधोरपन से चूतड़ और पीठ
मे भी दर्द होना सुरू कर दिया था. उसका यह भी कारण था की पंडित जी अपने
पूरे शरीर का वजन सावित्री के उपर ही रख कर सावित्री के जंघें फैला कर
चौड़ी कर के चढ़ गये थे और उसे चटाई मे बुरी तरह से दबोच कर सूपड़ा बुर मे
पेल रखे थे जो झिल्ली तक जा कर फँस गया था. नतीज़ा यह कि सावित्री चाह कर
भी कसमसा नही पा रही थी. और केवल सिर को इधेर उधेर कर पा रही थी. दर्द के
वजह से आँखों मे आँसू आने लगे थे जो आँखों के किनारों से एक एक बूँद चटाई
पर गिर रहे थे. सावित्री अब रो रही थी. जब पंडित जी को यह मालून हुआ कि
उनके धक्के से झिल्ली अभी तक फट नही पाई है और सावित्री किसी भी वक्त उनके
पकड़ से छूट सकती है तो कुछ हड़बड़ा से गये और दूसरा करारा धक्के की तैयारी
मे लग गये. इस बार वो काफ़ी आवेश और ताक़त के साथ धक्का मारने के लिए अपनी
पकड़ को इतना मजबूत कर लिए मानो वह सावित्री को अपने पकड़ से ही मार
डालेंगे.अब सावित्री थोड़ी भी कसमसा नही पा रही थी और जबर्दाश्त पकड़ होने के बजाह
से अब वह काफ़ी डर गयी थी उसे ऐसा लग रहा था मानो पंडित जी अब उसका जान ले
लेंगे. तभी अचानक पंडित जी ने मौका देख कर अपने लंड को थोड़ा सा बाहर की ओर
किया लेकिन बुर के बाहर नही निकाला तो सावित्री को लगा कि अब वह लंड निकाल
रहे हैं क्योंकि ऐसा करने पर लंड के सूपदे का झिल्ली पर बना दबाव ख़त्म हो
गया और सावित्री के बुर मे उठा दर्द भी कुछ कम हुआ ही था की अगले पल पंडित
जी ने सावित्री के उपर बहुत बढ़ा ज़ुल्म ही ढा दिया. उन्होने ने अपने
पहलवानी शरीर के कसरती ताक़त को इकट्ठा कर के अपने शरीर के पूरे वजन और
पूरी ताक़त से चटाई मे लेटी सावित्री की बुर मे अपने खड़े लंड से एक बहुत
ही करारा धक्का मारा. इस बार पंडित जी के पूरे शरीर का वजन के साथ पूरे
ताक़त से मारे गये खड़े तननाए लंड के धक्के को सावित्री की बुर की कुवारि
झिल्ली रोक नही पाई और झिल्ली काफ़ी खींचने के बाद आख़िर फट गयी और सुपाड़ा
झिल्ली के फटे हिस्से को बुर की दीवारों मे दबाते हुए अंदर की तरफ घुस कर
फिर से सांकरी बुर मे फँस गया.
झिल्ल्ली के फटते ही सावित्री के उपर मानो
आसमान ही गिर पड़ा हो. इतना तेज दर्द हुआ कि वह एकदम बेहोश होने के कगार
पर आ गयी. वह बिलबिला कर चिल्ला उठी "" अरी...ए माई रे मैं मर जाब ....आरे प
आ न दी त जीए हम मर जाब .....अरे ई बाप हो बाप .... दा र आड़ आहह री
मैं...." साथ साथ उसके शरीर मे काफ़ी तेज छटपटाहट भी होने लगी लेकिन पंडित
जी भी बुरी ताक़त से सावित्री को चटाई मे दबोचे रखा. सावित्री कमर को इधेर
उधेर हिलाने की कोशिस करने लगी लेकिन पंडित जी के शरीर के नीचे दबे होने और
एक हाथ से कमर पकड़े होने के वजह से कुछ कर नही पा रही थी . फिर भी थोड़ा
बहुत कमर ज्यो ही इधेर उधेर हिलता तो पंडित जी अपने लंड का दबाव बुर मे बना
देते और हल्का सा लंड बुर मे सरक जाता. सावित्री की बुर की देवारें काफ़ी
फैल कर पंडित जी के चौड़े सुपादे को निगलने की कोशिस कर रही थी. पंडित जी
ने जिस हाथ से लंड को पकड़ा था उसे लंड से हटा लिए क्योंकि लंड अब लगभग आधा
घुस चुका था और पंडित जी के शरीर का वजन सीधे लंड पर ही था जो बुर मे
घुसता जा रहा था. लंड वाला हाथ सीधे चुचिओ पर गया और बड़ी बड़ी गोल और कसी
चुचिओ को आटा की तरह गुथने लगे. दूसरा हाथ जो कमर मे था उसे पंडित जे ने
वहीं रखा क्यों की सावित्री अभी भी छटपटा रही थी लेकिन उसके छटपटाने के वजह
से जब कमर का हिस्सा हिलता तब बुरी तरह से बुर मे दबा हुआ लंड अंदर की ओर
सरक जाता था. सावित्री के आँखों मे आँसू ही आँसू थे. वह पूरी तरह से रो रही
थी. वह कई बार पंडित जी से गिड़गिदा कर लंड निकालने के लिए भी कही. लेकिन
उसे ऐसा लग रहा था कि दर्द की वजह से अभी मर जाएगी. लेकिन पंडित जी अब उसके
चुचिओ को दबा रहे थे फिर थोड़ी देर चुचिओ को मुँह मे लेकर चूसने लगे और
लंड बुर मे वैसे ही झिल्ली तोड़कर आधा के करीब घुसा था और आधा लंड बुर के
बाहर था. पंडित जी यह समझ गये थे कि झिल्ली फट गयी है और इसी वजह से कुछ
लंड का हिस्सा अंदर की ओर घुस चुका है. अब वह जानते थे कि सावित्री आराम से
चुद जाएगी. अब रास्ता सॉफ हो चुका है. दोनो चुचिओ को चूसने के बाद जब दर्द
कुछ कम हुआ तब सावित्री रोना बंद कर के सिसकने लगी. फिर पंडित जी ने अपने
कमर को हल्का सा उपर की ओर लहराया तो लंड भी हल्का सा बाहर को ओर खींचा ही
था कि फिर ज़ोर से चंप दिए और लंड इस बार कुछ और अंदर सरक गया. इस बार
सावित्री थोड़ी सी कसमसाई लेकिन ऐसा लगा कि कोई बहुत ज़्यादा दर्द नही हुआ.
फिर पंडित जी ने वैसे ही अपने कमर को दुबारा उपर की ओर लहराते और ज्योन्हि
लंड हल्का सा बाहर की ओर हुआ फिर कस के चंप दिए और इस बार लंड बहुत
ज़्यादा ही अंदर घुस गया. फिर भी एक चौथाई हिसा बाहर ही रह गया. फिर पंडित
जी ने चुचिओ को चूसना सुरू कर दिया जिससे सावित्री फिर गरम होने लगी.वैसे तो पहले भी गरम हो चुकी थी लेकिन दर्द के वजह से घबरा और डर गयी,
लेकिन अब दर्द बहुत ही कम हो चुका था. चुचिओ के चुसाइ ने फिर ज्योन्हि
सावित्री के शरीर मे गर्मी भरी की पंडित जी पूरा लंड घुसाने के फिराक मे लग
गये. सावित्री के जांघों को और चौड़ा करके और उसके चौड़ा चूतड़ को हल्का
सा उपर की ओर उठा कर बोले "चल पहले जैसे बुर को चुदवा तभी दर्द कम होगा और
तुम्हे भी मर्द का मज़ा आएगा" सावित्री जो अब सिसक रही थी और आँख के आँसू
सूखने के करीब थे, ने कुछ जबाब नही दिया लेकिन गरम हो जाने के कारण और
पंडित जी से डर होने के वजह से अपने दोनो हाथों से अपने चौड़े चौड़े दोनो
चूतदों को फैलाया. पंडित जी ने देखा की सावित्री ने अपने बुर को फैलाने के
लिए अपने हाथ बड़ा कर चूतदों को चौड़ा कर लिया तो अब समय गवाना सही नही था.
फिर उन्होने सावित्री के कमर को अपने दोनो हाथों से पकड़ कर एक के बाद एक
धक्के मारने लगे. हर धक्के मे लंड थोड़ा थोड़ा अंदर घुसने लगा, हर धक्के मे
सावित्री कराह उठती लेकिन सावित्री ने अपने हाथ को वैसे चूतड़ पे लगा कर
बुर को फैलाए रखा. और पंडित जी का पूरा लंड सावित्री की बुर मे समा गया.
ज्योन्हि लंड जड़ तक समाया कि सावित्री के चूतदों पर पंडित जी के दोनो लटक
रहे अनदुओं से चाप छाप की आवाज़ के साथ चोट लगाने लगे. अब बुर एकदम से खुल
चुका था. बुर की झिल्ली फटने के वजह से निकले खून से लंड बुरी तरह भीग चुका
था. सावित्री का दर्द अब ख़त्म ही हो गया और अब उसे बहुत मज़ा आने लगा.
इसी वजह से वह अपने दोनो हाथों से अपने चूतदों को खींच रखा था जिससे बुर के
बाहरी होंठ कुछ फैले हुए थे. जब भी लंड बुर मे घुसता तो बुर एकदम कस उठती.
सावित्री अब अपनी पूरी ताक़त से अपने दोनो जाँघो को फैला रखी थी ताकि
पंडित जी उसे काफ़ी अंदर तक आराम से चोद सकें. पंडित जी यह समझ चुके थे कि
अब सावित्री को बहुत मज़ा आ रहा है तो फिर ज़ोर ज़ोर से धक्के लगाने लगे और
हर धक्के मे लंड बुर की अंतिम गहराई तक घुस जाता और पंडित जी के दोनो
अन्दुये सावित्री के चूतादो पर जा कर लड़ जाते.
वैसे पंडित जी का लंड लंबा और मोटा भी था
लेकिन सावित्री हश्तिनि नशल की लड़की थी और ऐसे नशल की औरतें और लड़कियो की
बुर की गहराई काफ़ी होती है. इसी वजह से पंडित जी पूरी ताक़त से उसे चोद
रहे थे और सावित्री आराम से चटाई मे लेटी अपने दोनो जांघों को चौड़ा कर के
चुदवा रही थी. कमरे मे फॅक..फ़च्छ...फ़च्छ की आवाज़ आना सुरू हो गयी.
सावित्री के जीवन मे इतना आनंद कभी नही मिला ना ही वो कभी कल्पना की थी कि
चुदाई मे इतना मज़ा मिलता है. वह अपनी आँखे बंद कर के आराम से चुदवा रही थी
और रह रह कर सिसक रही थी. क्योंकि कि अब उसे बहुत ही ज़यादा मज़ा आ रहा
था. जब भी पंडित जी अपना लंड खेंच कर बाहर निकलता की सावित्री अपने बुर को
उचका कर फर्श पर बिछे चटाई पर से अपने चौड़े और काले रंग के चूतड़ को कुछ
उपर उठा देती और दूसरे पल पंडित जी हुमच कर अपना लंड बुर मे छोड़ते हुए कस
कर चंप देते और सावित्री के चूतड़ का उठा हुया हिस्सा फिर से चटाई मे बुरी
तरह से दब कर सॅट जाता और फिर अगले पल ज्योन्हि पंडित जी अपना लंड बुर से
बाहर खींचते की सावित्री फिर अपने चूतादो को चटाई से उपर उठा देती और पंडित
जी हुमच कर चोदते हुए चटाई मे वापस दबा देते.अब पंडित जी का समूचा लंड सावित्री के बर मे समा जाता था और पंडित जी की
घनी झांते सावित्री की झांतों मे जा कर सॅट जाता था. पंडित जी ने सावित्री
को हुमच हुमच कर काफ़ी देर तक चोद्ते रहे. अचानक सावित्री को बहुत ज़्यादे
आनंद आने लगा और उसे लगा की उसके बुर के अंदर कुछ निकलने वाला है. और यह
आनंद उसे बर्दाश्त नही हो पा रहा था और उसने अपने चौड़े और काले रंग के
चूतदों को काफ़ी उँचा उठा देती जिससे पवरोती की तरह झांतों से भरी चुद रही
बुर काफ़ी उपर उठ जाता और वह बुर को ऐसे उचका कर पंडित जी से चुदाने लगती.
तब पंडित जी समझ गये की सावित्री झड़ने वाली है और उसके उठाए हुए बुर को
काफ़ी हुमच हुमच कर तेज़ी से चोदने लगे और अगले ही पल सावित्री के कमर मे
कुछ झटके दार ऐंठन हुई और सावित्री के बुर के अंदर तेज़ी से झड़ने वाला
पानी निकलने लगा और वह सीत्कार उठी. सावित्री झड़ने के बाद अपने उठे हुए
चूतदों को वापस चटाई पर सटा ली और हाँफने लगी. लेकिन पंडित जी अभी झाडे नही
थे. वे भी कुछ लंबी सांस ले रहे थे और अब धीरे धीरे चोद रहे थे. फिर
सावित्री के निचले होंठ को मुँह मे लेकर कस कर चूसने लगे और चुचिओ को भी
दबाने लगे. कुछ देर तक ऐसा करके चोदने ने फिर से सावित्री गरम होने लगी
लेकिन इस बार पहले से बहुत ज़्यादा उत्तेजित हो गयी थी और फिर अपने चौड़े
चूतड़ को चटाई से उठा कर बुर को उचकाने लगी. अब पंडित जी सावित्री के दोनो
होंठो को कस के मुँह मे लेकर चूस रहे थे और चोद रहे थे. सावित्री को पंडित
जी का लंड बुर मे घुसना इतना अछा लग रहा था कि जब पंडित जी लंड बुर से बाहर
की ओर खींचते तब लंड को वापस बुर मे लेने के लिए अपने बुर को काफ़ी उपर
उठा देती और फिर पंडित जी हुमच कर चोद्ते हुए समूचे लंड को "घच.." आवाज़ के
साथ जड़ तक बुर मे चंप देते और सावित्री का उठा हुआ चूतड़ पंडित जी के
धक्के के दबाव से वापस चटाई मे दब कर सॅट जाता. ऐसा लगभग हर धक्के के साथ
होता और सावित्री का चूतड़ मानो चटाई पर उपर नीचे हर चुदाई के साथ हो रहा
था.सावित्री को जब जयदा आनंद आने लगा तब अपने चूतड़ को और उपर उठाने लगी और
अपने बुर को लंड पर फेंकने लगी. बुर के रेशे अब काफ़ी ढीले हो चुके थे. बुर
काफ़ी गीली हो चुकी थी. बुर के चुदाई का रस और खून दोनो मिलकर बुर से बाहर
आ रहा था और सावित्री के गंद के छेद से होता हुआ चटाई पर छू रहा था.
सावित्री को इतना आनंद आ रहा था की वह सातवें आसमान पर उड़ रही थी. उसे ऐसा
लग रहा था की दुनिया का सबसे ज़यादा आनंद इसी चुदाई मे ही है. हर धक्के मे
वह बहुत ज़्यादा मज़ा ले रही थी. इस कारण जब भी धक्का लगता वह सीत्कार कर
रह जाती और तुरंत अपने चूतदों को उचका कर अगले धक्के की भीख माँगने लगती.
सावित्री ग़रीब तो ज़रूर थी लेकिन भिखरीन नहीं. फिर भी आज वह एक भिखरीन की
तरह चटाई मे छटपटा कर पंडित जी के धक्के की भीख माँग रही थी. इसी कारण से
वह लंड के बाहर आते ही अपने काले चौड़े चूतादो को उठा देती की जल्दी से
धक्का बुर मे मिले और काफ़ी गहराई तक लंड घुस जाए. चुदाई के आनंद ने मानो
सावित्री के शरीर का लाज़ और शर्म को उसके रोवे रोवे से धो डाला था. इसी
वजह से एक चुदैल की तरह अपने चूत को उपर की ओर फेंक फेंक कर लंड लील रही
थी. सावित्री अब हर धक्के के लिए गिड़गिदा रही थी. उसे बस पंडित जी के
धक्के की ज़रूरत थी. वह भी ज़ोर के धक्के जिससे उसकी बर की गहराई मे लंड जा
सके. सावित्री के हाव भाव को देखते हुए पंडित जी ने किसी दयालु इंसान की
तरह धक्के जोरे से लगाने के साथ धक्कों की रेफटार तेज करने लगे. सावित्री
अब आँखें खोल कर चुदवा रही थी और उसकी आँखों मे भी धक्कों की भीख सॉफ दिख
रहा था. मानो वह अब और धक्कों के लिए गिड़गिदाते हुए रो देगी.सावित्री का
शरीर काफ़ी मांसल और कसा हुआ होने के कारण वह पंडित जी के कसरती बलिशट शरीर
के धक्कों को बड़े आराम से ले पा रही थी. उसके चूतदों पर काफ़ी माँस था और
चौड़े होने के वजह से जब भी पंडित जी धक्के मारते हुए लंड जड़ तक धँसते थे
की उनका लंड बुर मे घुस जाता और पंडित जी के गोरे शरीर का वजन सावित्री के
चौड़े और काले चूतदों पर पड़ता. वैसे बुर अब फैल कर एक नया रूप ले चुका था
जिसे औरत का ही बुर कह सकते हैं. जो बर थोड़ी देर पहले कुवारि थी अब वह
कुवारि नही रह गयी थी और चुदाई के आनंद ने उसके शरीर के लाज़ और शर्म को भी
लगभग ख़त्म कर दिया था.सावित्री ने अपने जीवन मे किसी से कुछ माँगा नही था लेकिन आज वह पंडित जी
से धक्कों की भीख माँग रही थी वो भी लग रहा था की माँगते माँगते रो देगी.जब
पंडित जी ने देखा की चटाई मे चुद रही सावित्री की हरकत अब बहुत अश्लील और
बेशर्म होती जा रही है तब वह समझ गये की सावित्री दूसरी बार झड़ने की तरफ
बढ़ रही है. तब पंडित जी तेज़ी से चोदने के लिए अपने शरीर की सारी ताक़त को
इकट्ठा कर लिए और सावित्री को चटाई मे कस कर दबोच लिए. फिर भी सावित्री
अपने चूतदों को उछालना बंद नही किया तब पंडित जी ने काफ़ी कस कर उसे चोदने
लगे और एक सांड की तरह हुंकार लेने लगे. पंडित जी अपने पूरे लंड को बुर से
बाहर खींचते और दूसरे पल पूरा का पूरा लंड जड़ तक पेल देते. चुदाई की
रफ़्तार इतनी तेज कर दिया की सावित्री को चूतड़ उठाने का मौका ही नही
मिलता. एक के बाद एक धक्के ऐसे लगते मानो सावित्री को चोद कर पूरे शरीर को
दो हिस्सों मे फाड़ देंगे. पूरे कमरे मे घाकच्छ घच की आवाज़ गूँज उठी. तेज
चुदाई से सावित्री को इतना आनंद आया की वह काफ़ी अश्लील आवाज़ भी निकालने
से अपने को रोक नही पाई और लगभग चिल्ला उठी "अया जी पंडित जी ....मुझे
और....चोदियी जीई........बहुत अक्च्छा लग रहा है.....और और करिए.....अरे
माई रे बाप बहुत माज़ा रे माई और चोदिए आऊ हह .." पंडित जी के कान मे ये
गंदी आवाज़ जाते ही एक नया जोश भर गया और वह समझ गये की अगले कुछ पलों मे
सावित्री झाड़ जाएगी. तभी उन्हे लगा कि सावित्री का पूरा बदन काँपने सा लगा
और अपने पूरे शरीर को कुछ ऐंठने लगी है. वह अब झड़ने वाली है और दूसरे पल
मे धक्के पे धक्के मारते हुए पंडित जी का भी शरीर मे बिजली दौड़ने लगी और
वह किसी सांड या भैंसे की तरह हुंकारना सुरू कर दिया. और उनका भी शरीर
काफ़ी झटके के साथ ऐंठने लगा और हर ऐंठन मे वह सावित्री को दबोचना तेज कर
दिए उनके आंडवो से वीरया की धार अब चल पड़ी थी. और पंडित जी अपने लंड को
ऐसे बुर की गहराई मे चंपने लगे मानो वीरया की गाढ़ी और मोटी धार सावित्री
के बcचेदानि के मुँह मे ही गिरा कर दम लेंगे. आख़िर काफ़ी उत्तेजना का साथ
सावित्री झड़ना सुरू कर दी और चटाई मे पूरी तरह से ऐंठने लगी और दूसरे पल
ही पंडित जी का सुपाड़ा जो सावित्री की झाड़ रही बुर के तह मे घुसा था,
काफ़ी तेज गति से, एक के बाद एक काफ़ी गाढ़े और मोटे वीरया की धार छ्छूटने
लगा और किसी पीचकारी की तरह छूट छूट कर बछेदनि के मुँह पर पड़ने लगा. लंड
भी हर वीरया की बौछार के साथ झटके ले रहा था जो सावित्री की बुर् की
मांसपेशिया काफ़ी तेज महसूस कर रही थी. एक के बाद एक वीरया की बौछार बुर के
तह मे किसी बंदूक की गोली की तरह पड़ने लगी. सावित्री को ऐसा लग रहा था
मानो यह वीरया की बौच्हार बंद ही ना हो.
पंडित जी कई दीनो बाद बुर चोद रहे थे इस
कारण वीरया काफ़ी मात्रा मे निकल रहा था. वीरया की गर्मी से सावित्री पूरी
तरह से हिल गयी और पंडित जी के कमर को कस कर अपने टाँगो से दबोच ली और अपने
हाथों को पंडित जी के पीठ को लपेट ली. उसे ऐसा लगा रहा था मानो कोई काफ़ी
गर्म चीज़ बुर के तह मे उडेल रहे हों. जो एक के बाद एक लंड की उल्टी से बुर
की तह मे इकट्ठा होता जा रहा है और बुर अब भर गयी हो. सावित्री को इतना
आनंद आया की वह पूरी दुनिया भूल गयी और उसके सीतकारीओं से कमरा गूँज उठा.
अब दोनो पूरी तरह से झाड़ चुके थे. लंड भी कुछ हल्के झटके लेता हुआ बचा
खुचा वीरया की आख़िरी बूँद को भी बुर की तह मे उडेल दिया.
दोनो झाड़ चुके थे, पंडित जी सावित्री के
उपर वैसे ही कुछ देर पड़े रहने के बाद उठने लगे और अपने फँसे हुए लंड को
बुर मे से खींच कर निकालने लगे. लंड अभी भी खड़ा था और पहले से कुछ ढीला
हुआ था. लंड खींचते समय पंडित जी को ऐसे लगा मानो सावित्री की बुर ने उसे
मुट्ठी मे पकड़ रखा हो. पंडित जी ने अपने कमर को ज्योन्हि पीछे की ओर किया
लंड "पुउक्क" के आवाज़ के साथ बुर से बाहर आ गया. लंड के बाहर आते ही पंडित
जी ने देखा की बुर का मुँह जिसपर खून और चुदाई का रस दोनो लगा था,
सिकुड़ने लगा और बुर की दोनो फांके आपस मे सतने की कोशिस कर रही थी. लेकिन
अब बुर की फांके पहले की तरह सिकुड कर एकदम से सॅट नही पा रही थी और बुर के
मुँह पर थोड़ा सा फैलाव आ गया था. इसका यह भी कारण था कि पंडित जी का लंड
मोटा था और काफ़ी देर तक सावित्री की कुवारि बुर को चोदा था. सावित्री वैसे
ही लेटी थी और पंडित जी अपना लंड तो बुर से खींच के निकाल चुके थे लेकिन
सावित्री के झंघो के बीच अभी भी बैठे थे इस वजह से सावित्री अपनी जांघों को
आपस मे सता नही पा रही थी और पहली बार की चुदाई से थॅकी होने के कारण
सावित्री भी वैसे ही लेटी थी और तुरंत उठ कर बैठने की हिम्मत नही हो पा रही
थी. और जंघें फैली होने के नाते पंडित जी की नज़र बुर पर ही थी जिसका रूप
अब बदल चुका था. घनी झांतों से घिरी हुई बुर एकदम ही काली थी और पवरोटी की
तरह दिख रही थी. कुछ चुदाई की रस और खून झांतों मे भी लग गया था.सावित्री
की आँखें थकान से लगभग बंद हो गयी थी और उसकी साँसे तेज चल रही थी. पंडित
जी थोड़ी देर तक सावित्री की बुर की सुंदरता को देख रहे थे और काफ़ी खुशी
महसूस कर रहे थे की इस उमरा मे भी उन्हे कुवारि गदराई चूत मिल गयी.फिर अगले पल उन्होने सावित्री की बुर के दोनो होंठो को अपने हाथ से ज्योहीं
फैलाने की कोशिस किया कि सावित्री की धाप रहीं आँखें खुल गयी और मीठी दर्द
से लेटे लेटे ही हल्की सी चौंक गयी और अपने हाथ से पंडित जी के हाथ को
पकड़ ली. लेकिन तबतक तुरंत की चुदी हुई बुर के दोनो होंठ हल्की सी फैल गयी
लेकिन अंदर का गुलाबी भाग सिकुड कर एक हल्की सी छेद बना कर रह गया था.
पंडित जी समझ गये की सावित्री को कुछ दर्द हो रहा होगा. और कुछ पल बुर के
अंदर के गुलाबी भाग को देखने के बाद बुर के होंठो से अपने हाथ हटा लिए और
फिर पहले की तरह दोनो होंठ सताने को कोशिस करने लगे लेकिन कुछ हिस्सा खुला
रह कर मानो यह बता रहा था की अब बुर कुवारि नही बल्कि अब औरत की बुर हो
चुकी है. पंडित जी उठे और शौचालय मे जा कर पेशाब किए और अपने लंड और झांतों
मे लगे चुदाई रस और खून को पानी से धोने लगे. पंडित जी ज्योन्हि उठे
सावित्री ने अपने दोनो जांघों को आपस मे सताने की कॉसिश करने लगी तो उसे
जांघों और बुर मे दर्द का आभास हुआ. फिर उठ कर चटाई पर बैठी. सावित्री ने
देखा की पंडित जी शौचालय मे गये हैं तो मौका देखकर अपनी बुर की हालत देखने
के लिए अपने दोनो जाँघो को कुछ फैला ली और देखने लगी. चुदी हुई बुर को देख
कर सन्न रह गयी. झांटेन और बुर दोनो ही चुदाई रस और खून से भींगी हुई थी.
लेकिन अपनी बुर पर सावित्री नज़र पड़ते ही सकपका गयी. ऐसा लग रहा था की वह
उसकी बुर नही बल्कि किसी दूसरे की बुर है. बुर का शक्ल पहचान मे ही नही आ
रही थी. जो बुर चुदाई से पहले थी वैसी एकदम ही नही थी. चुदाई के पहले बुर
के दोनो फांको के सतने पर केवल एक लकीर ही दिखाई देती थी वह लकीर अब गायब
हो गयी थी और लकीर के स्थान पर कुछ नही था क्योंकि बुर का मुँह अब कुछ खुला
सा लग रहा था. बुर के दोनो होंठ आपस मे पूरी तरह से बंद नही हो पा रहे थे.
सावित्री बैठे बैठे अपने बुर की बदली हुई शक्ल को देख कर बुर की पहले वाली
शकल को याद कर रही थी. उसे ऐसा लग रहा था की अब उसकी बुर कभी भी पहले की
तरह नही हो पाएगी और वह सोच रही थी की वह चुद चुकी है, लूट चुकी है, एक औरत
हो चुकी है, पंडित जी को अपना कुवरापन दे चुकी है, और अब यह सब कुछ वापस
नही आने वाला है क्योंकि जीवन मे यह केवल एक ही बार होता है.बदली हुई बुर
की शक्ल पर नज़ारे गड़ाए यही सब सोच रही थी. की चटाई पर भी कुछ चुदाई रस और
खून दिखाई दिया तो वह अपने चूतड़ को हल्का सा पीछे की ओर खिस्काई तो देखा
की चूतड़ के नीचे भी हल्का सा खून लगा था जो चटाई मे अब सूख रहा था. उसके
मन मे यही बात उठी की यह सामानया खून नही बल्कि यह उसकी इज़्ज़त, असमात,
मान, मर्यादा और उसके मा सीता के काफ़ी संघर्ष से बचाया गया खून था जो किसी
दुल्हन का सबसे बड़ा धर्म होता है और जिस पर केवल उसके पति का ही हक होता
है और इसे आज पंडित जी ने लूट लिया और अब वह कभी भी कुवारि की तरह अपने
ससुराल नही जाएगी बल्कि एक चुदी हुई औरत की तरह ही जा सकेगी. अगले पल
सावित्री के मन मे एक बहुत बड़ा विस्फोट हुआ और एक नयी विचार की तरंगे उठने
लगी कि आज सब कुछ लूटने के बाद भी एक ऐसा चीज़ मिला जो आज तक वह नही पा
सकी थी और वह था चुदाई का आनंद. जो आनंद आज पंडित जी ने उसे चोद कर दिया
वैसा आनंद उसे अट्ठारह साल की उमर तक कही से भी नसीब नही हुआ था. उसके मन
मे एक नये विचार की स्थापना होने लगी. सावित्री का मन चिल्ला चिल्ला कर यह
स्वीकारने लगा कि यह आनंद एक ऐसा आनंद है जो किसी चीज़ के खाने से या पहनने
से या देखने से, या सुनने से या खेलने से कहीं से भी नही मिल सकता है और
यह आनंद केवल और केवल चुदाई से ही मिल सकता है जो कि कोई मर्द ही कर सकता
है जैसा कि पंडित जी ने किया और इस आनंद के आगे सब कुछ और सारी दुनिया
बेकार है. चटाई मे बैठी यही सोच रही थी कि तभी पंडित जी शौचालय से अपने लंड
और झांतों को धो कर वापस आ गये और चौकी पर लेट गये.सावित्री काफ़ी ताक़त लगा कर चटाई पर से उठी लेकिन एकदम नंगी होने के वजह
से सामने लेटे हुए पंडित जी को देख कर उसे लाज़ लग रही थी और अगले पल वह
फर्श पर पड़े अपने कपड़ों को लेने के लिए बढ़ी लेकिन बुर झांट और चूतड़ पर
चुदाई रस और खून से भीगे होने के वजह से रुक गयी और मज़बूरी मे नंगे ही
शौचालय की ओर चल पड़ी. उसने जैसे ही अपने पाँव आगे बढ़ाना चाहे कि लगा बुर
मे उठे दर्द से गिर पड़ेगी. काफ़ी हिम्मत के साथ एक एक कदम बढ़ाते हुए
शौचालय तक गयी. चौकी पर लेटे लेटे पंडित जी भी नंगी सावित्री को शौचालय के
तरफ जाते देख रहे थे. उसके चूतड़ काफ़ी गोल गोल और बड़े बड़े थे. उसकी कमर
के पास का कटाव भी काफ़ी आकर्षक लग रहा था. धीरे धीरे वह शौचालय मे जा रही
थी. वह जान रही थी कि पंडित जी उसे पीछे से देख रहे हैं और उसे लाज़ भी लग
रही थी लेकिन उसे अपना बुर और झांते, चूतड़ पर का चुदाई रस और खून को धोना
बहुत ज़रूरी भी था क्योंकि यदि उसके चड्डी और कपड़े मे लग जाती तो उसकी मा
सीता उसे पकड़ लेती. इसी डर से वह अपनी बुर झांट और चूतड़ को धोने के लिए
शौचालय मे अंदर जा कर दरवाजा मे सीत्कनी लगा कर फिर से अपनी चुदी हुई बुर
को देखी. और खड़े खड़े एक बार हाथ भी बुर पर फिराया तो मीठा मीठा दर्द का
आभास हुआ. फिर बुर धोने के नियत से बैठी लेकिन उसे कुछ पेशाब का आभास हो
रहा था तो बैठे बैठे ही पेशाब करने की कोशिस की तो थोड़ी देर बाद पेशाब की
धार बुर से निकलने लगी. तभी उसे याद आया कि पंडित जी के लंड से गर्म वीरया
बुर के अंदर ही गिरा था. वह यही सोच रही थी कि उनका सारा वीरया उसकी बुर मे
ही है. और बाहर नही निकला. फिर उसने पेशाब बंद होते ही सिर को झुकाते हुए
बुर के दरार मे देखी की शायद वीरया भी बाहर आ जाए. लेकिन बुर की दरार से बस
एक लसलाषसा चीज़ चू रहा था. वह समझ गयी कि यह वीरया ही है. लेकिन बस थोड़ी
सी निकल कर रह गयी. फिर सावित्री ने अपने बुर मे अंदर से ज़ोर लगाई कि बुर
मे गिरा पंडित जी का वीरया बाहर आ जाए. लेकिन ज़ोर लगाने पर बुर मे एक
दर्द की लहर दौड़ उठी और बस सफेद रंग का लसलसा चीज़ फिर काफ़ी थोड़ा सा चू
कर रह गया. सावित्री यह समझ गयी कि उसके बुर मे जब पंडित जी वीरया गिरा रहे
थे तो उनका लंड बुर के काफ़ी अंदर था और ढेर सारा वीरया काफ़ी देर तक
गिराते रहे. गिरे हुए वीरया की अनुपात मे चू रहा सफेद लसलसा चीज़ या वीरया
कुछ भी नही है. यानी पंडित जी के लंड से गिरा हुआ लगभग पूरा वीरया बुर के
अंदर ही रह गया था. सावित्री अब कुछ घबरा ही गयी थी.उसे अपने गाओं की सहेलिओं से यह मालूम था कि जब मर्द औरत को चोद्ता है तो
चुदाई के अंत मे अपनी लंड से वीरया बुर मे गिरा या उडेल देता है तो औरत को
गर्भ ठहर जाता है. वह यही सोच रही थी कि पंडित जी ने अपना वीरया अंदर गिरा
चुके हैं और यदि यह वीरया अंदर ही रह जाएगा तो उसका भी गर्भ ठहर जाएगा. अब
शौचालय मे बैठे बैठे उसे कुछ समझ नही आ रहा था. उसने फिर एक बार अपनी बुर
को दोनो हाथों से थोड़ा सा फैलाई तो दर्द हुआ और फिर ज़्यादा फैला नही पाई.
और जितना फैला था उतने मे ही अपने पेट के हिस्से से जैसे पेशाब करने के
लिए ज़ोर लगाते हैं वैसे ही ज़ोर लगाई कि वीरया बुर के बाहर आ जाए लेकिन
फिर बस थोड़ा सा सफेद लसलसा चीज़ चू कर रह गया.अचानक जिगयसा वश सावित्री ने बुर से चू रही लसलासी चीज़ को उंगली पर ले कर
नाक के पास ला कर सूंघने लगी. उसका महक नाक मे जाते ही सावित्री को लगा कि
फिर से मूत देगी. गजब की महक थी वीरया की. सावित्री के जीवन का पहला मौका
था जब किसी मर्द के वीरया को छु और सूंघ रही थी. पता नही क्यों पंडित जी के
वीरया का महक उसे काफ़ी अच्छी लग रहा था. आख़िर पूरा वीरया बुर से ना
निकलता देख सावित्री अपने बुर झांट और चूतड़ पर लगे चुदाई रस और खून को
धोने लगी. सावित्री अपनी बुर को ही बार बार देख रही थी कि कैसे बुर का मुँह
थोडा सा खुला रह जा रहा है. जबकि की चुदाई के पहले कभी भी पेशाब करने
बैठती थी तो बुर की दोनो फाँकें एकदम से सॅट जाती थी. लेकिन पंडित जी के
चोदने के बाद बुर की दरारें पहले की तरह सॅट नही पा रही हैं.फिर खड़ी हो कर
धीरे से सीत्कनी खोल कर कमरे आई. उसने देखा कि पंडित जी अपनी लंगोट पहन
रहे थे.उनका लंड अब छोटा होकर लंगोट मे समा चुका था. उसके बाद पंडित जी
धोती और कुर्ता भी पहनने लगे. सावित्री भी काफ़ी लाज़ और शर्म से अपनी
चुचिओ और बुर को हाथ से ढक कर फर्श पर पड़े कपड़ो की तरफ गयी. उन कपड़ो को
लेकर सीधे दुकान वाले हिस्से मे चली गयी क्योंकि अब पंडित जी के सामने एक
पल भी नंगी नही रहना चाहती थी. दुकान वाले हिस्से मे आकर पहले चड्डी पहनने
लगी जो कि काफ़ी कसा हो रहा था. किसी तरह अपनी बुर और झांतों और चूतड़ को
चड्डी मे घुसा पाई. पुरानी ब्रा को भी पहनने मे भी काफ़ी मेहनत करनी पड़ी.
चुचिओ को पंडित जी ने काफ़ी मीज़ दिया था इसलिए ब्रा को दोनो चुचिओ पर
चढ़ाने पर कुछ दुख भी रहा था. किसी तरह सलवार और समीज़ पहन कर दुपट्टा लगा
ली. पूरी तरह से तैयार हुई तभी याद आया कि चटाई मे चुदाई का रस और बुर से
निकला खून लगा है और उसे भी सॉफ करना है. दुकान के अगले हिस्से से पर्दे को
हटा कर अंदर वाले कमरे मे झाँकी तो देखी की पंडित जी चौकी पर बैठ कर चटाई
पर लगे चुदाई रस और खून को देख रहे थे.सावित्री को काफ़ी लाज़ लग रही थी लेकिन बहुत ज़रूरी समझते हुए फिर अंदर आई
और चटाई को लेकर बाथरूम मे चली गयी और उसमे लगे चुदाई रस और खून को धो कर
सॉफ कर दी. पंडित जी चौकी पर बैठे ही बैठे यह सब देख रहे थे. चटाई को साफ
करने के बाद जब सावित्री बाथरूम से बाहर आई तो देखी कि पंडित जी अब दुकान
का सामने वाला दरवाजा खोल रहे थे क्योंकि अब 3 बाज़ रहे थे और आज एक घंटे
देर से दुकान खुल रही थी. दुकान खुलने के बाद सावित्री अपने स्टूल पर बैठी
तो उसे लगा की बुर और जांघों में दर्द बना हुआ है। पंडित जी भी अपने कुर्सी
पर बैठ गए। सावित्री अपनी नज़रें झुकाए हुए यही सोच रही थी कि वीर्य आखिर
कैसे बुर से निकलेगा और गर्भ ठहरने की विपत उसके ऊपर से हट जाय। थोड़ी देर
में कुछ औरतें दुकान पर आई और कुछ सामान खरीदने के बाद चली गयी। अब शाम हो
चुकी थी और अँधेरा के पहले ही सावित्री अपने घर चली जाती थी। क्योंकि
रास्ते में जो सुनसान खंडहर पड़ता था। थोड़ी देर बाद सावित्री पंडित जी की
तरफ देख कर मानो घर जाने की इजाजत मांग रही हो। भोला पंडित ने उसे जाने के
लिए कहा और सावित्री घर के लिए चल दी। उसे चलने में काफी परेशानी हो रही
थी। थोड़ी देर पहले ही चुदी हुयी बुर कुछ सूज भी गयी थी और जब चलते समय बुर
की फांकें कुछ आपस में रगड़ खातीं तो सावित्री को काफी दर्द होता। उसका मन
करता की अपनी दोनों टांगों को कुछ फैला कर चले तो जांघों और बुर की सूजी
हुई फाँकों के आपस में रगड़ को कुछ कम किया जा सकता था। लेकिन बीच बाज़ार
में ऐसे कैसे चला जा सकता था। वह कुछ धीमी चल से अपने गाँव की और चल रही
थी। कसबे में से बाहर आते ही सावित्री की बुर की फाँकों के बीच का दर्द
रगड़ के वजह से कुछ तेज हो गया। लेकिन उसे इस बात से संतोष हुआ कि अब वह
कसबे के बाहर आ गयी थी और चलते समय अपने दोनों टांगों के बीच कुछ जगह बना
कर चले तो कोई देखने वाला नहीं था। और चारो तरफ नज़र दौड़ाई और पास में किसी
के न होने की दशा में वह अपने पैरों को कुछ फैला कर चलने लगी।ऐसे चलने में कुछ दर्द कम हुआ लेकिन आगे फिर वही खँडहर आ गया। सावित्री को
खँडहर के पास से गुजरना काफी भयावह होता था। किसी तरह से खँडहर पार हुआ तो
सावित्री को बड़ी राहत हुई और कुछ देर में वह अपने घर पहुँच घर पहुँचते ही
सावित्री को पेशाब का आभास हुआ तो उसे कुछ आशा हुआ की इस बार पेशाब के साथ
पंडित जी का वीर्य बुर से बाहर आ जाये तो काम बन जाये और गर्भ ठहरने का डर
भी समाप्त हो जाये। इसी उम्मीद से सावित्री तुरंत अपने घर के पिछवाड़े
दीवाल के पीछे जहाँ वह अक्सर मुता करती थी, गयी और चारो और नज़र दौड़ाई और
किसी को आस पास न पाकर सलवार और चड्डी सरकाकर मुतने बैठ गयी। सावित्री अपनी
नज़रें बुर पर टिका दी और बुर से मूत की धार का इंतजार करने लगी। थोड़ी देर
बाद मूत की एक मोती धार बुर से निकल कर जमीन पर गिरने लगी। लेकिन पंडित जी
द्वारा गिराए गए वीर्य का कुछ अता पता नहीं चल रहा था। मनो सारा वीर्य बुर
सोख गयी हो। सावित्री बार बार यही याद कर रही थी की कितना ज्यादे वीर्य
गिराया था बुर के अंदर। अब तो केवल मूत ही निकल रही थी और वीर्य के स्थान
पर कुछ लसलसा चीज़ भी पहले की तरह नहीं चू रही थी। मूत के बंद होते ही
सावित्री के मन में निराशा और घबराहट जाग उठी। अब सावित्री के मन में केवल
एक ही भय था की यदि उसे गर्भ ठहर गया तो क्या होगा। इस मुसीबत की घडी में
कौन मदद कर सकता है। तभी उसे याद आया की चोदने के पहले पंडित जी ने उससे
कहा था की लक्ष्मी का छोटा वाला लड़का उन्ही के चोदने से पैदा हुआ है। इस
बात के मन में आत ही उसे और दर लगने लगा। उसके मन में यही याद आता की उसे
भी गाँव के लक्ष्मी चाची के छोटे लड़के की तरह ही लड़का पैदा होगा। वह यही
बार बार सोच रही थी की अब क्या करे। आखिर रोज की तरह माँ और छोटे भाई के
साथ खाना खा कर रात को सोने चली गयी। उसे आज नीद भी बहुत तेज लग रही थी।
उसका शरीर काफी हल्का और अच्छा लग रहा था। वह जीवन में पहली बार भोला पंडित
जी के लन्ड पर झड़ी थी।
बिस्तर पर जाते ही वह दिन भर की थकी होने
के वजह से तुरंत नीद लग गयी। सुबह उसके माँ सीता ने जब उसे आवाज दे कर
उठाया तो उसकी नीद खुली तो भोर हो चूका था। वह माँ के साथ शौच के लिए खेत
के तरफ चल पड़ी । खेत में वह माँ से काफी दूर टट्टी करने के लिए बैठी
क्योंकि उसे शक था की माँ की नज़र कहीं सूजे हुए बुर पर पड़ेगी तो पकड़ जाएगी।
सावित्री टट्टी करते समय अपने बुर पर नज़र डाली तो देखा की सुजन लगभग ख़त्म
हो गया है लेकिन बुर की फांके पहले की तरह आपस में सट कर एक लकीर नहीं बना
पा रही थीं। हल्का सा बुर का मुंह खुला रह जा रहा था जैसा की उसके माँ
सीता का बुर थी। शौच करने के बाद जब घर आई और बर्तन धोने के लिए बैठी तो
उसे लगा की अब पिछले दिन की तरह कोई दर्द नहीं हो रहा था। लेकिन ज्योंही
पंडित जी के वीर्य की याद आती सावित्री कांप सी जाती। उसका जीवन मानो अब
ख़त्म हो गया है। घर पर नहाने के लिए सावित्री की माँ ने अपने घर के एक
दीवाल के पास तीन और से घेर दिया था की कोई नहाते समय देख न सके और एक ओर
से कपडे का पर्दा लगा होता था। सावित्री उसी में नहाने के लिए गयी और रोज
की तरह पर्दा को लगा कर अपने कपडे उतारने लगी।
सावित्री रोज केवल समीज ही निकाल कर नहा
लेती थी। लेकिन आज वह सलवार और ब्रेसरी को भी निकल करकेवल अपने पुरानी
चड्डी में हो गयी। आज पहली बार जवान होने के बाद केवल चड्डी में नहाने जा
रही थी। पतानहीं क्यों भोला पंडित से चुद जाने के बाद अब ज्यादे शर्म लाज
नहीं आ रही थी। वैसे सावित्री कोई देखने वाला नहींथा। लेकिन पता नहीं क्यों
उसका मन कुछ रंगीन सा हो गया था। सवित्री की दोनों बड़ी बड़ी चूचियां काफी
सुडौललग रही थीं। सावित्री अपने चुचिओं को देख कर मस्त हो गयी। उसे याद
आया की इन्हीं दोनों चुचिओं को पंडित जीने कल खूब मीज़ा और चूसा। सावित्री
को आज चूचियां कुछ बड़ी लग रही थीं। सावित्री जब पानी अपने शरीर पर डाल कर
नहाने लगी तब उसका मन बड़ा ही रंगीन होने लगा। वह अपने चुचियोंको खूब मल मल
कर नहाने लगी। बड़ा मज़ा आ रहा था। आज केवल चड्डी ही शरीर पर होने से एक
सनसनाहट होरही थी। फिर चड्डी को सरकाकर बुर और झांटों में साबुन लगाकर
नहाने लगी। बुर पर हाथ फेरने पर इतना मज़ाआता की सावित्री का जी चाहता की
खूब हाथ से सहलाये। खैर जल्दी से नहा कर सावित्री दुकान पर जाने के लिए
तैयार हो गयी। और आज उसका मन कुछ ज्यादा ही फड़करहा था की दुकान पर जल्दी
से पहुंचे। शायद पिछले दिन लन्ड का स्वाद मिल जाने के वजह से । उसके मन
मेंपंडित जी के प्रति एक आकर्षण पैदा होने लगा था। यह उसके शरीर की जरूरत
थी। जो की पंडित जी पूरा करसकते थे। सावित्री के मन में जो आकर्षण भोला
पंडित के तरफ हो रही थी उसे वह पूरी तरह समझ नहीं पा रहीथी। लेकिनउसे लगता
था की पंडित जी ने उसे बहुत आनंद दिया। सावित्री उस आनंद को फिर से पाना
चाहती थी। लेकिन जोसबसे चिंता की बात थी वह यह की पंडित जी का वीर्य जो बुर
में गिरा उससे कहीं गर्भ ठहर न जाये। आखिर इसी उधेड़बुन में लगी सावित्री
फिर दुकान पर पहुंची और रोज की तरह पंडित जी का प्रणाम की तो पंडितजी उसके
और देखकर मुस्कुराते हुए उसे अन्दर आने के लिए कहा। सावित्री चुपचाप दुकान
के अंदर आ गयी। यहपहली बार था की पंडित जी ने सावित्री को मुस्कुराकर दुकान
के अन्दर आने के लिए कहे थे। सावित्री के मन मेंअपने शरीर की कीमत समझ में
आने लगी। वह सोच रही थी की आज क्या होगा। पंडित जी कुर्सी पर बैठे ही
बैठेसावित्री की और देख रहे थे। सावित्री अपने स्टूल पर बैठी नज़रें झुकाई
हुई थी। उसे लाज लग रहा था। वह यही सोचरही थी की पंडित जी ने उसे कैसे नंगी
कर के चोदा था। कैसे उसे चोदकर एक औरत बना दिया। और अब कुछ दुरीपर बैठ कर
उसे देख रहे थे। उसके मन में यह बात भी आती थी की क्यों न वह पंडित जी से
ही यह कहे की उसका पेट में जो वीर्य गिरा दिया है तो उसका क्या होगा।
सावित्री को अपने सहेलिओं से इतना पता था की कुछ ऐसी दवाएं आती है जिसके
खाने से गर्भ नहीं ठहरता है। लेकिन सावित्री के सामने सबसे बड़ी परेशानी यह
थी की वह उस दवा को कहाँ से ले कर खाए। यही सब सोचते रही की दोपहर हो गयी
और पंडित जी पिछले दिन की तरह दुकान को बंद कर के खाना खाने और आराम करने
की तैयारी में लग गए। दूकान का बाहरी दरवाजा बंद होने के बाद सावित्री का
दिल जोर जोर से धड़कने लगा। वह पंडित जी के हर गतिविधि को ध्यान से देखने
लगी। पंडित जी दूकान के अंदर वाले हिस्से में आ गए। तब सावित्री ने चटाई को
लेकर दूकान वाले हिस्से में आ गयी और चटाई बिछा कर बैठ गयी। उसके मन में
एक घबराहट साफ दिख रहा था। अंदर वाले कमरे में पंडित जी की हर हरकत को
सावित्री ध्यान से समझने की कोशिस करती। वह दूकान वाले हिस्से में होने के
वजह से पंडित जी को देख तो नहीं पा रही थी लेकिन अपने कान से अंदर की हर
हरकत को समझने की कोशिस करती थी। उसे लगा की पंडित जी दोपहर का खाना खा रहे
हैं। थोड़ी देर बाद उनके खर्राटे की आवाज सावित्री को सुनाई देने लगी तब वह
समझ गयी की पंडित जी खाना खाने के बाद कल की तरह अब आराम करने लगे। तब
दुकान वाले हिस्से में चटाई पर बैठी सावित्री भी लेट गयी और दुकान में रखे
सामानों को लेटे लेटे देखने लगी। उसके मन में पिछले दिन की चुदाई की बात
याद आने लगी। दोपहर के सन्नाटे में दुकान के भीतर चटाई लेती सावित्री का भी
मन अब जवानी के झोंके में कुछ बहकने सा लगा उसके मन में एक अलग तरह की उमंग जन्म लेने लगा था। ऐसा उसे पहले कभी भी
नहीं होते था। पिछले दिन जो कुछ भी पंडित जी ने किया उसे बार बार यद् आने
लगा। लेटे लेटे उन बातों को सोचना बहुत ही अच्छा लगने लगा था। ऐसा लगता
मानो उन्होंने ने कुछ भी गलत नहीं किया बल्कि जो कुछ किया उसके साथ बहुत
पहले ही हो जाना चाहिए था। शायद यह सावित्री के जवान उम्र और गर्म खून होने
के वजह से हो रहा था। कुछ ही देर पहले उसके दिमाग में जो पंडित जी के
वीर्य को ले कर डर था कहीं ख़त्म सा हो गया था। वह यही नहीं सोच पा रही थी
कि उसका मन ऐसा क्यों बदल सा रहा है। सावित्री का अनाड़ीपन अपने धारणा के
अंदर हो रहे बदलाव को समझने में नाकाम हो रहा था। शायद सावित्री के शरीर कि
भूख ही इसके लिए जिम्मेदार थी। लेकिन यह भूख पहले क्यों नहीं लगाती थी
सिर्फ कल कि घटना के बाद ही इस भूख का लगना सुरु हुआ था? शायद हाँ ।
सावित्री के मन कि स्थिति काफी पहेली कि तरह होती जा रही थी। सावित्री को
लग रहा था कि पंडित जी के लन्ड ने जहाँ बुर के शक्ल को बदल दिया वहीँ उनके
गर्म वीर्य ने सावित्री के सोच को बदल कर जवान कर दिया। मानो वीर्य नहीं एक
ऐसा तेजाब था जो सावित्री के अंदर के शर्म और लाज को काफी हद तक गला दिया
हो। सावित्री के मन में जो कुछ उठ रहा था वह कल के पहले कभी नहीं उठता था।
उसे याद है कि कैसे उसकी माँ सीता ने सावित्री की इज्जत को गाँव के आवारों
से बचाने के लिए कितनी संघर्ष किया। सावित्री की पढाई आठवीं पूरी होने के
बाद ही बंद करा कर घर में ही रखा ताकि गाँव के गंदे माहौल में सावित्री
कहीं बिगड़ न जाये। लेकिन अब सावित्री को यह सब कुछ सही नहीं लग रहा था।
जहाँ सावित्री की माँ को इज्जत से रहने की जरूरत थी वहीँ अब सावित्री को
अपने शरीर के भूख को मिटाने की जरूरत महसूस हो रही थी। आखिर यह भूख पहले
क्यों नहीं लगी? कुछ देर सोचने के बाद सावित्री के मन में एक बात समझ में
आई की उसे तो पता ही नहीं था की मर्द जब औरत को चोदता है तो इतना मज़ा आता
है। फिर दूसरा सवाल उठा की आखिर क्यों नहीं पता था कि इतना मजा आता है?
इसका जबाव मन में आते ही सावित्री को कुछ गुस्सा लगने लगा। क्योंकि इसका
जबाव कुछ अलग था। सावित्री समझ गयी की कभी वह चुद ही नहीं पाई थी किसी से।
बस उसे कभी कभी किसी किसी से पता चलता था की गाँव की फलां लड़की या औरत किसी
के साथ पकड़ी गयी या देखि गयी। और उसके बाद अपने माँ से ढेर सारा उपदेश
सुनने को मिलता की औरत या लड़की को इज्जत से रहनी चाहिए और सावित्री शायद
यही सब सुन कर कई सालों से जवान होने के बावजूद घर में ही रह गयी और किसी
मर्द का स्वाद कभी पा न सकी और जान न सकी की मर्द का मजा क्या होता है। ये
तो शायद पैसे की मज़बूरी थी जिसके वजह से भोला पंडित के दुकान में काम करने
के लिए आना पड़ा और मौका देख कर भोला पंडित ने सावित्री को जवानी का महत्व
बता और दिखा दिया था। उसके मन में जो गुस्सा उठा था वह माँ के ऊपर ही था।
अब सावित्री का मन अपने शरीर की जरूरत की वजह से अपनी माँ की व्यवस्था के
खिलाफ विद्रोह करना सुरु कर दिया था। उसे लगा की अपनी माँ सीता का उपदेश
सुन कर घर में ही बंद रहना शायद काफी बेवकूफी का काम था। वह अपने कुछ
सहेलिओं के बारे में जानती थी जो इधर उधर से मज़ा ले लेती थीं लेकिन
सावित्री ने अपने माँ के उपदेशों के प्रभाव में आ कर कभी कोई ऐसी इच्छा मन
में पनपने नहीं दिया था। सावित्री दुकान वाले हिस्से में लेती हुई यही सब
सोच रही थी। पंडित जी अंदर वाले कमरे में चौकी पर खर्राटे ले रहे था।
सावित्री ने अपने एक हाथ को अपने सलवार के ऊपर से ही बुर और झांटों को
सहलाया और काफी आनंद मिला और यह भी अनुभव हुआ की अब दर्द ख़त्म हो गया था
जो कल सील तोड़ने के वजह से हुआ था। कुछ सोच कर सावित्री चटाई में लेती हुई
एक तरफ करवट हुई और सोचने लगी कि आज क्या होगा जब पंडित जी सो कर उठेंगे।
यह बात मन में आते ही सावित्री एकदम सनसनाती हुई मस्त सी हो गयी। सावित्री
के दिमाग में पंडित जी का लन्ड दिखने लगा। उसे ये सब बहुत अच्छा लग रहा था।
उसने दुबारा अपने हाथ को बुर पर ले जाकर सलवार के ऊपर से ही थोडा सहलाया
तो उसका बदन एक बार फिर झनझना उठा। दोपहेर का सन्नाटा ही था जो सावित्री के
शरीर मे एक आग धधकने का काम कर रहा था. उसके शरीर मे जवानी की आग लगना
सुरू हो गया था. वह पंडित जी के बारे मे सोचना सुरू कर दी. एक दिन पहले जिस
काम से वह इतना डरती थी आज उसे उसी काम की ज़रूरत समझ मे आने लगी थी. चटाई
पर लेटे लेटे ही उसका मन अब लहराने लगा था. वह यही सोच रही थी कि आज पंडित
जी सोकर उठेंगे तो उसे बुलाकर चोदेन्गे. ऐसी सोच उसे मस्त कर दे रही थी.
वह यही बार बार मन मे ला रही थी कि आज फिर से चुदाई होगी. शायद सावित्री
कुछ ज़्यादा ही जल्दबाजी मे थी इसी वजह से उसको पंडित जी का खर्राटा ठीक
नही लग रहा था. उसे इस बात की जल्दी थी कि पंडित जी उठे और उसे अंदर वाले
कमरे मे बुला कर चोद डालें. उसका ध्यान पंडित जी के खर्राटे और अपनी शरीर
की मस्ती पर ही था. आख़िर यह सब होते करीब एक घंटा बीता ही था का पंडित जी
का खर्राटा बंद हो गया. और अगले पल सावित्री को लगा कि पंडित जी चौकी पर
उठकर बैठ गये हैं. सावित्री का कलेजा धक धक करने लगा. सावित्री भी अपने
चटाई पर उठकर बैठ गयी. उसे कुछ घबराहट सी हो रही थी. कुछ पल पहले ही वह सोच
रही थी कि पंडित जी आज भी चोदेन्गे तो बहुत अच्छा होगा लेकिन जब पंडित जी
की नीद खुली तब सावित्री को डर लगने लगा. शायद उसके अंदर इतनी हिम्मत नही
थी कि वह उनका सामना आसानी से कर सके. थोड़ी देर बाद शौचालय से पंडित जी के
पेशाब करने की आवाज़ आने लगी. सावित्री यह आवाज़ सुनकर लगभग हिल सी गई.
चटाई मे बैठे बैठे अपने दुपट्टे को भी ठीक ठाक कर लिया. अब अगले पल मे होने
वाली घटना का सामना करने के लिए हिम्मत जुटा रही थी. तभी पंडित जी पेशाब
करके वापस आए और चौकी पर बैठ गये. तभी सावित्री के कान मे एक आवाज़ आई और
वह कांप सी गई. पंडित जी ने उसे पुकारा था "आओ इधेर" सावित्री को लगा कि वह
यह आवाज़ सुनकर बेहोश हो जाएगी. अगले पल सावित्री चटाई पर से उठी और अंदर
के हिस्से मे आ गयी. सावित्री ने देखा कि पंडित जी चौकी पर बैठे हैं और उसी
की ओर देख रहे हैं. अगले पल पंडित जी ने कहा "चटाई ला कर बिच्छा यहाँ और
तैयार हो जा, अभी काफ़ी समय है दुकान खुलने मे" सावित्री समझ गयी कि पंडित
जी क्या करना चाहते हैं. उसने चटाई ला कर पिछले दिन वाली जगह यानी चौकी के
बगल मे बिछा दी.
अब पंडित जी के कहे गये शब्द यानी तैयारी
के बारे मे सोचने लगी. उसका मतलब पेशाब करने से था. उसे मालूम था कि पंडित
जी ने उसे तैयार यानी पेशाब कर के चटाई पर आने के लिए कहे हैं. लेकिन उनके
सामने ही शौचालय मे जाना काफ़ी शर्म वाला काम लग रहा था और यही सोच कर वह
एक मूर्ति की तरह खड़ी थी. तभी पंडित जी ने बोला "पेशाब तो कर ले, नही तो
तेरी जैसी लौंडिया पर मेरे जैसा कोई चढ़ेगा तो मूत देगी तुरंत" दूसरे पल
सावित्री शौचालय के तरफ चल दी. शौचालय मे अंदर आ कर सीत्कनी बंद कर के
ज्योन्हि अपनी सलवार के जरवाँ पर हाथ लगाई कि मन मस्ती मे झूम उठा. उसके
कानो मे पंडित जी की चढ़ने वाली बात गूँज उठी. सावित्री का मन लहराने लगा.
वह समझ गयी कि अगले पल मे उसे पंडित जी अपने लंड से चोदेन्गे. जरवाँ के
खुलते ही सलवार को नीचे सरकई और फिर चड्डी को भी सरकाकर मूतने के लिए बैठ
गयी. सावित्री का मन काफ़ी मस्त हो चुका था. उसकी साँसे तेज चल रही थी. वह
अंदर ही अंदर बहुत खुश थी. फिर मूतने के लिए जोरे लगाई तो मूत निकालने लगा.
आज मूत की धार काफ़ी मोटी थी. मूतने के बाद खड़ी हुई और चड्डी उपर सरकाने
से पहले एक हाथ से अपनी बुर को सहलाई और बुर के दोनो फांकों को अपने उंगलिओ
से टटोल कर देखा तो पाया कि सूजन और दर्द तो एकदम नही था लेकिन बुर की
फांके अब पहले की तरह आपस मे सॅट कर लकीर नही बना पा रही थी. चड्डी पहन कर
जब सलवार की जरवाँ बाँधने लगी तो सावित्री को लगा कि उसके हाथ कांप से रहे
थे. फिर सिटकनी खोलकर बाहर आई तो देखी कि पंडित जी अपना कुर्ता निकाल कर
केवल धोती मे ही चटाई पर बैठे उसी की ओर देख रहे थे.
अब सावित्री का कलेजा तेज़ी से धक धक कर
रहा था. वह काफ़ी हिम्मत करके पंडित जी के तरफ बढ़ी लेकिन चटाई से कुछ दूर
पर ही खड़ी हो गयी और अपनी आँखें लगभग बंद कर ली. वह पंडित जी को देख पाने
की हिम्मत नही जुटा जा पा रही थी. तभी पंडित जी चटाई पर से खड़े हुए और
सावित्री का एक हाथ पकड़ कर चटाई पर खींच कर ले गये. फिर चटाई के बीच मे
बैठ कर सावित्री का हाथ पकड़ कर अपनी गोद मे खींच कर बैठाने लगे. पंडित जी
के मजबूत हाथों के खिचाव से सावित्री उनके गोद मे अपने बड़े बड़े चूतादो के
साथ बैठ गयी. अगले पल मानो एक बिजली सी उसके शरीर मे दौड़ उठी. सावित्री
अपने पूरे कपड़े मे थी. गोद मे बैठते ही पंडित जी ने सावित्री के दुपट्टे
को उसके गले और चूचियो पर से हटा कर फर्श पर फेंक दिए. अब सावित्री की बड़ी
बड़ी चुचियाँ केवल समीज़ मे एक दम बाहर की ओर निकली हुई दीख रहीं थी.
सावित्री अपनी आँखें लगभग बंद कर रखी थी. लेकिन सावित्री ने अपने हाथों से
अपने चुचिओ को ढकने की कोई कोशिस नही की और दोनो चुचियाँ समीज़ मे एक दम से
खड़ी खड़ी थी. मानो सावित्री खुद ही दोनो गोल गोल कसे हुए चुचिओ को दिखाना
चाहती हो. पिछले दिन के चुदाई के मज़ा ने सावित्री को लालची बना दिया था.
सावित्री पंडित जी के गोद मे बैठे ही बैठे मस्त होती जा रही थी. पंडित जी
ने सावित्री के दोनो चुचिओ को गौर से देखते हुए उनपर हल्के से हाथ फेरा
मानो चुचिओ की साइज़ और कसाव नाप रहे हों. सावित्री को पंडित जी का हाथ
फेरना और हल्का सा चुचिओ का नाप तौल करना बहुत ही अच्छा लग रहा था. इसी वजह
से वह अपनी चुचिओ को छुपाने के बजाय कुछ उचका कर और बाहर की ओर निकाल दी
जिससे पंडित जी उसकी चुचिओ को अपने हाथों मे पूरी तरह से पकड़ ले. सावित्री
पंडित जी की गोद मे एकदम मूर्ति की तरह बैठ कर मज़ा ले रही थी. फिर उसे
याद आया कि कल की तरह आज भी समीज़ नही निकाल पाई थी. फिर अगले पल वह खुद ही
पंडित जी के गोद मे आगे की ओर थोड़ी सी उचकी और अपने समीज़ को दोनो हाथों
से खुद ही निकालने लगी. आज वह खुद ही आगे आगे चल रही थी. सावित्री को अब
देर करना ठीक नही लग रहा था. आख़िर समीज़ को निकाल कर फर्श पर रख दी. फिर
पंडित जी की गोद मे खुद ही काफ़ी ठीक से बैठ कर अपने सिर को कुछ झुका ली.
लेकिन दोनो छातियो को ब्रा मे और उपर करके निकाल दी. पंडित जी सावित्री के
उतावलेपन को देख कर मस्त हो गये. वह सोचने लगे कि कल ही सील तुड़ाई और आज
लंड के लिए पग्लाने लगी है. फिर भी पंडित जी एक पुराने चोदु थे और अपने
जीवन मे बहुत सी लड़कियो और औरतों को चोद चुके थे इस वजह से वे कई किस्म की
लड़कियो और औरतों के स्वाभाव से भली भाँति परिचित थे. इस वजह से समझ गये
की सावित्री काफ़ी गर्म किस्म की लड़की है और अपने जीवन मे एक बड़ी छिनाल
भी बन सकती है, बस ज़रूरत है उसको छिनाल बनाने वालों की. अगले पल मे यही
सोचने लगे की सावित्री को उसके गाओं वाले खुद ही एक बड़ी चुड़ैल बना देंगे
बस उन्हे मौका मिल जाए. क्योंकि सावित्री के गाँव मे भी एक से एक चोदु
आवारा रहते थे. पंडित जी यही सब सोच रहे थे और ब्रा के उपर से दोनो चुचिओ
को अपने हाथों से हल्के हल्के दबा रहे था. सावित्री अपने शरीर को काफ़ी
अकड़ कर पंडित जी के गोद मे बैठी थी जैसे लग रहा था कि वह खुद ही दब्वाना
चाहती हो. पंडित जी नेब्रा के उपर से ही दोनो चुचिओ को मसलना सुरू कर दिया
और थोड़ी देर बाद ब्रा की हुक को पीछे से खोल कर दोनो चुचिओ से जैसे ही
हटाया की दोनो चुचियाँ एक झटके के साथ बाहर आ गयीं. चुचियाँ जैसे ही बाहर
आईं की सावित्री की मस्ती और बढ़ गयी और वह सोचने लगी की जल्दी से पंडित जी
दोनो चुचिओ को कस कस कर मीसे. और पंडित जी ब्रा को फर्श पर पड़े दुपट्टे
और समीज़ के उपर ही ब्रा को फेंक कर चुचिओ पर हाथ फिराना सुरू कर दिया.नंगी चुचिओ पर पंडित जी हाथ फिरा कर चुचिओ के आकार और कसाव को देख रहे थे
जबकि सावित्री के इच्छा थी की पंडित जी उसकी चुचिओ को अब ज़ोर ज़ोर से
मीसे. आख़िर सावित्री लाज़ के मारे कुछ कह नही सकती तो अपनी इस इच्छा को
पंडित जी के सामने रखने के लिए अपने छाति को बाहर की ओर उचकाते हुए एक
मदहोशी भरे अंदाज़ मे पंडित जी के गोद मे कसमासाई तो पंडित जी समझ गये और
बोले "थोड़ा धीरज रख रे छिनाल,, अभी तुझे कस कस के चोदुन्गा,,, धीरे धीरे
मज़ा ले अपनी जवानी का समझी, तू तो इस उम्र मे लंड के लिए इतना पगला गयी है
आगे क्या करेगी कुतिया साली,,,,,"" पंडित जी भी सावित्री की गर्मी देख कर
दंग रह गये. उन्हे भी ऐसी किसी औरत से कभी पाला ही नही पड़ा था जो सील
टूटने के दूसरे दिन ही रंडी की तरह व्यवहार करने लगे. सावित्री के कान मे
पंडित जी की आवाज़ जाते ही डर के बजाय एक नई मस्ती फिर दौड़ गयी. तब पंडित
जी ने उसके दोनो चुचिओ को कस कस कर मीज़ना सुरू कर दिया. ऐसा देख कर
सावित्री अपनी छातियो को पंडित जी के हाथ मे उचकाने लगी. रह रह कर पंडित जी
सावित्री के चुचिओ की घुंडीओ को भी ऐंठने लगे फिर दोनो चुचिओ को मुँह मे
लेकर खूब चुसाइ सुरू कर दी. अब क्या था सावित्री की आँखें ढपने लगी और उसकी
जांघों के बीच अब सनसनाहट फैलने लगी थोड़ी देर की चुसाइ के बाद बुर मे
चुनचुनी उठने लगी मानो चींटियाँ रेंग रहीं हो. अब सावित्री कुछ और मस्त हो
गयी और लाज़ और शर्म मानो शरीर से गायब होता जा रहा था. पंडित जी जो की
काफ़ी गोरे रंग के थे और धोती और लंगोट मे चटाई के बीच मे बैठे और उनकी गोद
मे सावित्री काफ़ी साँवली रंग की थी और चुहियाँ भी साँवली थी और उसकी
घुंडिया तो एकदम से काले अंगूर की तरह थी जो पंडित जी के गोरे मुँह मे काले
अंगूर की तरह कड़े और खड़े थे जिसे वी चूस रहे थे. पंडित जी की गोद मे
बैठी सावित्री पंडित जी के काफ़ी गोरे होने के वजह से मानो सावित्री एकदम
काली नज़र आ रही थी. दोनो के रंग एक दूसरे के बिपरीत ही थे. जहाँ पंडित जी
लंड भी गोरा था वहीं सावित्री की बुर तो एकदम से काली थी. सावित्री की
चुचिओ की चुसाइ के बीच मे ही पंडित जी ने सावित्री के मुँह को अपने हाथ से
ज़ोर से पकड़ कर अपने मुँह मे सताया. फिर सावित्री के निचले और उपरी होंठो
को चूसने और चाटने लगी. सावित्री एकदम से पागल सी हो गयी. अब उसे लगा की
बुर मे फिर पिछले दिन की तरह कुछ गीला पन हो रहा है. सावित्री पंडित जी के
गोद मे बैठे ही बैठे अपने होंठो को चूसा रही थी तभी पंडित जी बोले "जीभ
निकाल" सावित्री को समझ नही आया की जीभ का क्या करेंगे. फिर भी मस्त होने
की स्थिति मे उसने अपने जीभ को अपने मुँह से बाहर निकाली और पंडित जी लपाक
से अपने दोनो होंठो मे कस कर चूसने लगे. जीभ पर लगे सावित्री के मुँह मे का
थूक चाट गये. सावित्री को जीभ का चटाना बहुत अच्छा लगा. फिर पंडित जी अपने
मुँह के होंठो को सावित्री के मुँह के होंठो पर कुछ ऐसा कर के जमा दिए की
दोनो लोंगो के मुँह एक दूसरे से एकदम सॅट गया और अगले ही पल पंडित जी ने
ढेर सारा थूक अपने मुँह मे से सावित्री के मुँह मे धकेलना सुरू कर किया.
सावित्री अपने मुँह मे पंडित जी का थूक के आने से कुछ घबरा सी गयी और अपने
मुँह हटाना चाही लेकिन सावित्री के मुँह के जबड़े को पंडित जी ने अपने
हाथों से कस कर पकड़ लिए था. तभी पंडित जी के मुँह मे से ढेर सारा थूक
सावित्री के मुँह मे आया ही था की सावित्री को लगा की उसे उल्टी हो जाएगी
और लगभग तड़फ़ड़ाते हुए अपने मुँह को पंडित जी के मुँह से हटाने की जोरे
मारी. तब पंडित जी ने उसके जबड़े पर से अपना हाथ हटा लिए और सावित्री के
मुँह मे जो भी पंडित जी का थूक था वह उसे निगल गयी. लेकिन फिर पंडित जी ने
सावित्री के जबड़े को पकड़ के ज़ोर से दबा कर मुँह को चौड़ा किए और मुँह के
चौड़ा होते ही अपने मुँह मे बचे हुए थूक को सावित्री के मुँह के अंदर
बीचोबीच थूक दिया जो की सीधे सावित्री के गले के कंठ मे गिरी और सावित्री
उसे भी निगल गयी.
सावित्री के मुँह मे पंडित जी का थूक जाते
ही उसके शरीर मे अश्लीलता और वासना का एक नया तेज नशा होना सुरू हो गया.
मानो पंडित जी ने सावित्री के मुँह मे थूक नही बल्कि कोई नशीला चीज़ डाल
दिया हो. सावित्री मदहोशी की हालत मे अपने सलवार के उपर से ही बुर को भींच
लिया. पंडित जी सावित्री की यह हरकत देखते समझ गये कि अब बुर की फाँकें
फड़फड़ा रही हैं. दूसरे पल पंडित जी के हाथ सावित्री के सलवार के जरवाँ पर
पहुँच कर जरवाँ की गाँठ खोलने लगा. लेकिन पंडित जी की गोद मे बैठी सावित्री
के सलवार की गाँठ कुछ कसा बँधे होने से खुल नही पा रहा था.. ऐसा देखते ही
सावित्री पंडित जी की गोद मे बैठे ही बैठे अपने दोनो हाथ जरवाँ पर लेजाकर
पंडित जी के हाथ की उंगलिओ को हटा कर खुद ही जरवाँ की गाँठ खोलने लगीं. ऐसा
देख कर पंडित जी ने अपने हाथ को जरवाँ की गाँठ के थोड़ा दूर कर के
सावित्री के द्वारा जरवाँ को खुल जाने का इंतजार करने लगे. अगले पल जारवा
की गाँठ सावित्री के दोनो हाथों नेकी उंगलियाँ खोल दी और फिर सावित्री के
दोनो हाथ अलग अलग हो गये. यह देख कर पंडित जी समझ गये की आगे का काम उनका
है क्योंकि सावित्री सलवार के जरवाँ के गाँठ खुलते ही हाथ हटा लेने का मतलब
था कि वह खुद सलवार नही निकलना चाहती थी. शायद लाज़ के कारण. फिर सावित्री
का हाथ हटते ही पंडित जी अपने हाथ को सलवार के जरवाँ को उसके कमर मे से
ढीला करने लगे. पंडित जी के गोद मे बैठी सावित्री के कमर मे सलवार के ढीले
होते ही सलवार कमर के कुछ नीचे हुआ तो गोद मे बैठी सावित्री की चड्डी का
उपरी हिस्सा दिखने लगा. फिर पंडित जी अगले पल ज्योन्हि सावित्री की सलवार
को निकालने की कोशिस करना सुरू किए की सावित्री ने अपने चौड़े चूतदों को
गोद मे से कुछ उपर की ओर हवा मे उठा दी और मौका देखते ही पंडित जी सलवार को
सावित्री के चूतदों के नीचे से सरकाकर उसके पैरों से होते हुए निकाल कर
फर्श पर फेंक दिए. अब फिर केवल चड्डी मे सावित्री अपने बड़े बड़े और काले
चूतदों को पंडित जी के गोद मे बैठ गयी. सावित्री के दोनो चूतड़ चौड़े होने
के नाते काफ़ी बड़े बड़े लग रहे थे और फैले से गये थे. जिस अंदाज़ मे
सावित्री बैठी थी उससे उसकी लंड की भूख एकदम सॉफ दिख रही थी. चेहरे पर जो
भाव थे वह उसके बेशर्मी को बता रहे थे. शायद पिछले दिन जो चुदाई का मज़ा
मिला था वही मज़ा फिर लेना चाह रही थी. अब सावित्री की साँसे और तेज चल रही
थी. . सलवार हटते ही सावित्री के जंघें भी नंगी हो गयी जिसपर पंडित जी की
नज़र और हाथ फिसलने लगे. सावित्री की जंघें काफ़ी मांसल और गोल गोल साँवले
रंग की थी. लेकिन बुर के पास के जाँघ का हिस्सा कुछ ज़्यादा ही सांवला था.
पंडित जी सावित्री के नंगी और मांसल साँवले रंग की जांघों को आज काफ़ी
ध्यान से देख रहे थे. अट्ठारह साल की सावित्री जो की पंडित जी के गोद मे
ऐसे बैठी थी मानो अब पंडित जी के गोद से उठना नही चाहती हो. पंडित जी का
लंड भी धोती के अंदर ढीले लंगोट मे खड़ा हो चुका था. जिसका कडापन और चुभन
केवल चड्डी मे बैठी सावित्री अपने काले चूतदों मे आराम से महसूस कर रही थी.
फिर भी बहुत ही आराम से एक चुदैल औरत की तरह अपने दोनो चूतदों को उनके गोद
मे पसार कर बैठी थी. पंडित जी सावित्री को गोद मे बैठाए हुए उसकी नंगी गोल
गोल चुचिओ पर हाथ फेरते हुए काफ़ी धीरे से पुचछा "मज़ा पा रही हो ना" इस
पर सावित्री ने धीरे से बोली "जी". और अगले पल अपनी सिर कुछ नीचे झुका ली.
साँसे कुछ तेज ले रही थी. लेकिन पंडित जी ने धीरे से फिर पुचछा "तुम्हे कभी
कोई चोदने की कोशिस नही की थी क्या,,, तेरे गाओं मे तो बहुत सारे आवारा
हैं." इस सवाल पर सावित्री ने कुछ जबाब नही दिया बल्कि अपनी नज़रे झुकाए ही
रही. "गाँव मे इधेर उधेर घूमने फिरने नही जाती थी क्या" पंडित जी ने
दुबारा धीरे से पुछा तो सावित्री ने नही मे सिर हिलाया तो पंडित जी बोले
"घर पर ही पड़ी रहती थी इसी वजह से बची रही नही तो घर से बाहर कदम रखी होती
तो आज के माहौल तुरंत चुद जाती., वैसे तेरे गाओं मे आवारे भी बहुत ज़्यादे
हैं..... तेरी मा बेचारी भी कुछ नही कर पति उन बदमाशों का और वो सब तेरे
को चोद चोद कर गाओं की कुतिया बना देते."
पंडित जी अपने गोद मे बैठी हुई सावित्री
के जांघों पर हाथ फेरते हुए फिर बोले "बेचारी तेरी मा अपनी हिफ़ाज़त कर ले
वही बहुत है नही तो विधवा बेचारी का कहीं भी पैर फिसला तो गाओं के लोफरों
और अवारों के लंड के नीचे दब्ते देर नही लगेगी." आगे फिर बोले "और अवारों
के लंड का पानी बहुत ज़्यादे ही नशीला होता है" आगे फिर बोले "और जिस औरत
को आवारा चोद कर उसकी बुर मे अपने लंड का नशीला पानी गिरा देते हैं वह औरत
अपने जीवन मे सुधर नही सकती,...और एक पक्की चुदैल बन ही जाती हैं,
समझी....... तुम भी बच के रहना इन आवारों से, .....इनके लंड का पानी बहुत
तेज होता है" पंडित जी सावित्री के चड्डी के उपर से ही बुर को मीज़ते हुए
यह सब बातें धीरे धीरे बोल रहे थे और सावित्री सब चुप चाप सुन रही थी. वह
गहरी गहरी साँसें ले रही थी और नज़रें झुकाए हुए थी. पंडित जी की बातें सुन
रही सावित्री खूब अच्छी तरह समझ रही थी कि पंडित जी किन आवारों की बात कर
रहें हैं. लेकिन वह नही समझ पा रही थी कि अवारों के लंड का पानी मे कौन सा
नशा होता है जो औरत को छिनार या चुदैल बना देता है. वैसे सावित्री तो बस
पिछले दिन ही किसी मर्द के लंड का पानी अपनी बुर मे गिरता महसूस की थी जो
कि पंडित जी के लंड का था. पंडित जी यह सब बता कर उसे अवारों से दूर रहने
की हिदायत और सलाह दे रहे थे. शवित्री को पंडित जी की यह सब बातें केवल एक
सलाह लग रही थी जबकि वास्तव मे पंडित जी के मन मे यह डर था कि अब सावित्री
को लंड का स्वाद मिल चुका है और वह काफ़ी गर्म भी है. ऐसे मे यदि को गाओं
के आवारा मौका पा के सावित्री का रगड़दार चुदाई कर देंगे तो सावित्री केवल
पंडित जी से चुद्ते रहना उतना पसंद नही करेगी और अपने गाओं के आवारे लुंडों
के चक्कर मे इधेर उधेर घूमती फिरती रहेगी. जिससे हो सकता है कि पंडित जी
के दुकान पर आना जाना भी बंद कर दे. इसी वजह से पंडित जी भी आवारों से बचने
की सलाह दे रहे थे. बुर को चड्डी के उपर से सहलाते हुए जब भी बुर के छेद
वाले हिस्से पर उंगली जाती तो चड्डी को छेद वाला हिस्सा बुर के रस से भीगे
होने से पंडित जी की उंगली भी भीग जा रही थी. पंडित जी जब यह देखे कि
सावित्री की बुर अब बह रही है तो उसकी चड्डी निकालने के लिए अपने हाथ को
सावित्री के कमर के पास चड्डी के अंदर उंगली डाल कर निकालने के लिए सरकाना
सुरू करने वाले थे कि सावित्री समझ गयी कि अब चड्डी निकालना है तो चड्डी
काफ़ी कसी होने के नाते वह खुद ही निकालने के लिए उनकी गोद से ज्योन्हि
उठना चाही पंडित जी ने उसका कमर पकड़ कर वापस गोद मे बैठा लिए और धीरे से
बोले "रूको आज मैं तुम्हारी चड्डी निकालूँगा,,, थोड़ा मेरे से अपनी कसी हुई
चड्डी निकलवाने का तो मज़ा लेलो." सावित्री पंडित जी के गोद मे बैठने के
बाद यह सोचने लगी कि कहीं आज चड्डी फट ना जाए. फिर पंडित जी चड्डी के
किनारे मे अपनी उंगली फँसा कर धीरे धीरे कमर के नीचे सरकाने लगे. चड्डी
काफ़ी कसी होने के वजह से थोड़ी थोड़ी सरक रही थी. सावित्री काफ़ी मदद कर
रही थी कि उसकी चड्डी आराम से निकल जाए. फिर सावित्री ने अपने चूतादो को
हल्के सा गोद से उपर कर हवा मे उठाई लेकिन पंडित जी चूतड़ की चौड़ाई और
चड्डी का कसाव देख कर समझ गये कि ऐसे चड्डी निकल नही पाएगी. क्योंकि कमर का
हिस्सा तो कुछ पतला था लेकिन नीचे चूतड़ काफ़ी चौड़ा था. फिर उन्होने
सावित्री को अपने गोद मे से उठकर खड़ा होने के लिए कहा "चल खड़ी हो जा तब
निकालूँगा चड्डी .....तेरा चूतड़ का हिस्सा बड़ा चौड़ा है रे .....लगता है
किसी हथिनी का चूतड़ है..." इतना सुनते ही सावित्री उठकर खड़ी हो गयी और
फिर पंडित जी उसकी चड्डी निकालने की कोशिस करने लगे. चड्डी कोशिस के बावजूद
बस थोड़ी थोड़ी किसी तरह सरक रही थी. पंडित जी धोती और ढीले लंगोट मे चटाई
पर बैठे ही चड्डी निकाल रहे थे. सावित्री का चौड़ा चूतड़ पंडित जी के मुँह
के ठीक सामने ही था. जिस पर चड्डी आ कर फँस गयी थी. जब पंडित जी चड्डी को
नीचे की ओर सरकाते तब आगे यानी सावित्री के झांट और बुर के तरफ की चड्डी तो
सरक जाती थी लेकिन जब पिछला यानी सावित्री के चूतदों वाले हिस्से की चड्डी
नीचे सरकाते तब चूतदों का निचला हिस्सा काफ़ी गोल और मांसल होकर बाहर
निकले होने से चड्डी जैसे जैसे नीचे आती वैसे वैसे चूतड़ के उभार पर कस कर
टाइट होती जा रही थी. आख़िर किसी तरह चड्डी नीचे की ओर आती गयी और ज्योन्हि
चूतदों के मसल उभार के थोड़ा सा नीचे की ओर हुई कि तुरंत "फटत्त" की आवाज़
के साथ चड्डी दोनो बड़े उभारों से नीचे उतर कर जाँघ मे फँस गयी. चड्डी के
नीचे होते ही सावित्री के काले और काफ़ी बड़े दोनो चूतदों के गोलाइयाँ अपने
पूरे आकार मे आज़ाद हो कर हिलने लगे. मानो चड्डी ने इन दोनो चूतदों के
गोलाईओं को कस कर बाँध रखा था. चूतदों के दोनो गोल गोल और मांसल हिस्से को
पंडित जी काफ़ी ध्यान से देख रहे थे. सावित्री तो साँवले रंग की थी लेकिन
उसके दोनो चूतड़ कुछ काले रंग की थी.
चूतड़ काफ़ी कसे हुए थे. चड्डी के नीचे
सरकते ही सावित्री को राहत हुई कि अब चड्डी फटने के डर ख़त्म हो गया था.
फिर पंडित जी सावित्री के जांघों से चड्डी नीचे की ओर सरकाते हुए आख़िर
दोनो पैरों से निकाल लिए. निकालने के बाद चड्डी के बुर के सामने वाले
हिस्से को जो की कुछ भीग गया था उसे अपनी नाक के पास ले जा कर उसका गंध नाक
से खींचे और उसकी मस्तानी बुर की गंध का आनंद लेने लगे. चड्डी को एक दो
बार कस कर सूंघने के बाद उसे फर्श पर पड़े सावित्री के कपड़ों के उपर फेंक
दिए. अब सावित्री एकदम नंगी होकर पंडित जी के सामने अपना चूतड़ कर के खड़ी
थी. फिर अगले पल पंडित जी चटाई पर उठकर खड़े हुए और अपनी धोती और लंगोट
दोनो निकाल कर चौकी पर रख दिए. उनका लंड अब एकदम से खड़ा हो चुका था. पंडित
जी फिर चटाई पर बैठ गये और सावित्री जो सामने अपने चूतड़ को पंडित जी की
ओर खड़ी थी, फिर से गोद मे बैठने के बारे मे सोच रही थी कि पंडित जी ने उसे
गोद के बजाय अपने बगल मे बैठा लिए. सावित्री चटाई पर पंडित जी के बगल मे
बैठ कर अपनी नज़रों को झुकाए हुए थी. फिर पंडित जी ने सावित्री के एक हाथ
को अपने हाथ से पकड़ कर खड़े तननाए लंड से सटाते हुए पकड़ने के लिए कहे.
सावित्री पिच्छले दिन भी लंड को पकड़ चुकी थी. सावित्री ने पंडित के लंड को
काफ़ी हल्के हाथ से पकड़ी क्योंकि उसे लाज़ लग रही थी. पंडित जी का लंड
एकदम गरम और कड़ा था. सुपादे पर चमड़ी चड़ी हुई थी. लंड का रंग गोरा था और
लंड के अगाल बगल काफ़ी झांटें उगी हुई थी. पंडित जी ने देखा की सावित्री
लंड को काफ़ी हल्के तरीके से पकड़ी है और कुछ लज़ा रही है तब धीरे से बोले
"अरे कस के पकड़ .. ये कोई साँप थोड़ी है कि तुम्हे काट लेगा.... थोड़ा
सुपादे की चॅम्डी को आगे पीछे कर....अब तुम्हारी उमर हो गयी है ये सब करने
की... थोड़ा मन लगा के लंड का मज़ा लूट" आगे बोले "पहले इस सूपदे के उपर
वाली चॅम्डी को पीछे की ओर सरका और थोड़ा सुपादे पर नाक लगा के सुपादे की
गंध सूंघ ...." सावित्री ये सब सुन कर भी चुपचाप वैसे ही बगल मे बैठी हुई
लंड को एक हाथ से पकड़ी हुई थी और कुछ पल बाद कुछ सोचने के बाद सुपादे के
उपर वाली चमड़ी को अपने हाथ से हल्का सा पीछे की ओर खींच कर सरकाना चाही और
अपनी नज़रे उस लंड और सूपदे के उपर वाली चमड़ी पर गढ़ा दी थी. बहुत ध्यान
से देख रही थी कि लंड एक दम साँप की तरह चमक रहा था और सुपादे के उपर वाली
चमड़ी सावित्री के हाथ की उंगलिओ से पीछे की ओर खींचाव पा कर कुछ पीछे की
ओर सर्की और सुपादे के पिछले हिस्से पर से ज्योन्हि पीछे हुई की सुपादे के
इस काफ़ी चौड़े हिस्से से तुरंत नीचे उतर कर सुपादे की चमड़ी लंड वाले
हिस्से मे आ गयी और पंडित जी के लंड का पूरा सुपाड़ा बाहर आ गया जैसे कोई
फूल खिल गया हो और चमकने लगा. ज्योन्हि सुपाड़ा बाहर आया कि पंडित जी
सावित्री से बोले "देख इसे सूपड़ा कहते हैं और औरत की बुर मे सबसे आगे यही
घुसता है, अब अपनी नाक लगा कर सूँघो और देखा कैसी महक है इसकी" "इसकी गंध
सूँघोगी तो तुम्हारी मस्ती और बढ़ेगी चल सूंघ इसे" सावित्री ने काफ़ी ध्यान
से सुपादे को देखा लेकिन उसके पास इतनी हिम्मत नही थी कि वह सुपादे के पास
अपनी नाक ले जाय. तब पंडित जी ने सावित्री के सिर के पीछे अपना हाथ लगा कर
उसके नाक को अपने लंड के सुपादे के काफ़ी पास ला दिया लेकिन सावित्री उसे
सूंघ नही रही थी. पंडित जी ने कुछ देर तक उसके नाक को सुपादे से लगभग सटाये
रखा तब सावित्री ने जब साँस ली तब एक मस्तानी गंध जो की सुपादे की थी,
उसके नाक मे घुसने लगी और सावित्री कुछ मस्त हो गयी. फिर वह खुद ही सुपादे
की गंध सूंघने लगी. और ऐसा देख कर पंडित जी ने अपना हाथ सावित्री के सिर से
हटा लिया और उसे खुद ही सुपाड़ा सूंघने दिया और वह कुछ देर तक सूंघ कर
मस्त हो गयी. फिर पंडित जी ने उससे कहा "अब सुपादे की चमड़ी को फिर आगे की
ओर लेजा कर सुपादे पर चढ़ा दो" यह सुन कर सावित्री ने अपने हाथ से सुपादे
के चमड़ी को सुपादे के उपर चढ़ाने के लिए आगे की ओर खींची और कुछ ज़ोर
लगाने पर चमड़ी सुपादे के उपर चढ़ गयी और सुपादे को पूरी तरीके से ढक दी
मानो कोई नाप का कपड़ा हो जो सुपादे ने पहन लिया हो.
सावित्री अगले पल अपने जीभ को सुपादे पर फिराने लगी. सुपादे के स्पर्श से ही सावित्री की जीभ और मन दोनो मस्त हो उठे. सावित्री की जीभ का थूक सुपादे पर लगने लगा और सुपाड़ा गीला होने लगा, सावित्री के नज़रें सुपादे की बनावट और लालपन पर टिकी थी. सावित्री अपने साँवले हाथों मे पंडित जी के खड़े और गोरे लंड को कस के पकड़ कर अपने जीभ से धीरे धीरे चाट रही थी. पंडित जी सावित्री के चेहरे को देख रहे थे और लंड चूसने के तरीके से काफ़ी खुश थे. सावित्री के चेहरे पर एक रज़ामंदी और खुशी का भाव सॉफ दीख रहा था. पंडित जी की नज़रें चेहरे पर से हट कर सावित्री के साँवले और नंगे शरीर पर फिसलने लगी. पंडित जी अपना एक हाथ आगे बढ़ाकर उसकी काली रंग के बड़े बड़े दोनो चूतदों पर फिरने लगे और चूतदों पर के मांसल गोलाईओं के उठान को पकड़ कर भींचना सुरू कर दिए. ऐसा लग रहा था कि पंडित जी के हाथ सावित्री के चूतदों पर के माँस के ज़यादा होने का जयजा ले रहे हों. जिसका कसाव भी बहुत था. और उनके गोरे हाथ के आगे सावित्री के चूतड़ काफ़ी काले लग रहे थे. सावित्री बगल मे बैठी हुई पंडित जी के लंड और सुपादे पर जीभ फिरा रही थी. पंडित जी से अपने चूतदों को मसलवाना बहुत अछा लग रहा था. तभी पंडित जी बोले "कब तक बस चाटती रहेगी.............अब अपना मुँह खोल कर ऐसे चौड़ा करो जैसे औरतें मेला या बेज़ार मे ठेले के पास खड़ी होकर गोलगापा को मुँह चौड़ा कर के खाती हैं....समझी" सावित्री यह सुन कर सोच मे पड़ गयी और अपने जीवन मे कभी भी लंड को मुँह मे नही ली थी इस लिए उसे काफ़ी अजीब लग रहा था. वैसे तो अब गरम हो चुकी थी लेकिन मर्द के पेशाब करने के चीज़ यानी लंड को अपने मुँह के अंदर कैसे डाले यही सोच रही थी. वह जीभ फिराना बंद कर के लंड को देख रही थी फिर लंड को एक हाथ से थामे ही पंडित जी की ओर कुछ बेचैन से होते हुए देखी तो पंडित जी ने पूछा "कभी गोलगापा खाई हो की नही?" इस पर सावित्री कुछ डरे और बेचैन भाव से हाँ मे सिर हल्का सा हिलाया तो पंडित जी बोले "गोलगप्पा जब खाती हो तो कैसे मुँह को चौड़ा करती हो ..वैसे चौड़ा करो ज़रा मैं देखूं..." पंडित जी के ऐसी बात पर सावित्री एक दम लज़ा गयी क्योंकि गोलगप्पा खाते समय मुँह को बहुत ज़्यादा ही चौड़ा करना पड़ता हैं और तभी गोलगापा मुँह के अंदर जाता है. वह अपने मुँह को वैसे चौड़ा नही करना चाहती थी लेकिन पंडित जी उसके मुँह के तरफ ही देख रहे थे. सावित्री समझ गयी की अब चौड़ा करना ही पड़ेगा. और अपनी नज़रें पंडित जी के आँख से दूसरी ओर करते हुए अपने मुँह को धीरे धीरे चौड़ा करने लगी और अपंदिट जी उसके मुँह को चौड़ा होते हुए देख रहे थे. जब सावित्री अपने मुँह को कुछ चौड़ा करके रुक गयी और मुँह के अंदर सब कुछ सॉफ दिखने लगा. तभी पंडित जी बोले "थोड़ा और चौड़ा करो और अपने जीभ को बाहर निकाल कर लटका कर आँखें बंद कर लो."इतना सुन कर सावित्री जिसे ऐसा करने मे काफ़ी लाज़ लग रही थी उसने सबसे पहले अपनी आँखें ही बंद कर ली फिर मुँह को और चौड़ा किया और जीभ को बाहर कर ली जिससे उसके मुँह मे एक बड़ा सा रास्ता तैयार हो गया. पंडित जी नेएक नज़र से उसके मुँह के अंदर देखा तो सावित्री के गले की कंठ एक दम सॉफ दीख रही थी. मुँह के अंदर जीभ, दाँत और मंसुड़ों मे थूक फैला भी सॉफ दीख रहा था. "मुँह ऐसे ही चौड़ा रखना समझी.....बंद मत करना....अब तुम्हारे मुँह के अंदर की लाज़ मैं अपने लंड से ख़त्म कर दूँगा और तुम भी एक बेशर्म औरत की तरह गंदी बात अपने मुँह से निकाल सकती हो.....यानी एक मुँहफट बन जाओगी.., और बिना मुँह मे लंड लिए कोई औरत यदि गंदी बात बोलती है तो उसे पाप पड़ता है... गंदी बात बोलने या मुँहफट होने के लिए कम से कम एक बार लंड को मुँह मे लेना ज़रूरी होता है " अगले पल पंडित जी ने बगल मे बैठी हुई सावित्री के सर पर एक हाथ रखा और दूसरे हाथ से अपने लंड को सावित्री के हाथ से ले कर लंड के उपर सावित्री का चौड़ा किया हुआ मुँह लाया और खड़े और तननाए लंड को सावित्री के चौड़े किए हुए मुँह के ठीक बीचोबीच निशाना लगाते हुए मुँह के अंदर तेज़ी से थेल दिए और सावित्री के सिर को भी दूसरे हाथ से ज़ोर से दबा कर पकड़े रहे. लंड चौड़े मुँह मे एकदम अंदर घुस गया और लंड का सुपाड़ा सावित्री के गले के कंठ से टकरा गया और सावित्री घबरा गयी और लंड निकालने की कोशिस करने लगी लेकिन पंडित जी उसके सिर को ज़ोर से पकड़े थे जिस वजह से वह कुछ कर नही पा रही थी. पंडित जी अगले पल अपने कमर को उछाल कर सावित्री के गले मे लंड चाँप दिए और सावित्री को ऐसा लगा कि उसकी साँस रुक गयी हो और मर जाएगी. इस तड़फ़ड़ाहट मे उसके आँखों मे आँसू आ गये और लगभग रोने लगी और लंड निकालने के लिए अपने एक हाथ से लंड को पकड़ना चाही लेकिन लंड का काफ़ी हिस्सा मुँह के अंदर घुस कर फँस गया था और उसके हाथ मे लंड की जड़ और झांते और दोनो गोल गोल अंदू ही आए और सावित्री के नाक तो मानो पंडित जी के झांट मे दब गयी थी. सावित्री की कोसिस बेकार हो जा रही थी क्योंकि पंडित जी सावित्री के सर के बॉल पकड़ कर उसे अपने लंड पर दबाए थे और अपनी कमर को उछाल कर लंड मुँह मे चॅंप दे रहे थे.
पंडित जी ने देखा की सावित्री लंड को
काफ़ी ध्यान से अपने हाथ मे लिए हुए देख रही थी. और उन्होने ने उसे दिखाने
के लिए थोड़ी देर तक वैसे ही पड़े रहे और उसके साँवले हाथ मे पकड़ा गया
गोरा लंड अब झटके भी ले रहा था. फिर बोले "चमड़ी को फिर पीछे और आगे कर के
मेरे लंड की मस्ती बढ़ा कि बस ऐसे ही बैठी रहेगी...अब तू सयानी हो गयी है
और तेरी मा तेरी शादी भी जल्दी करेगी .... तो लंड से कैसे खेला जाता है कब
सीखेगी.... और मायके से जब ये सब सिख कर ससुराल जाएगी तब समझ ले कि अपने
ससुराल मे बढ़े मज़े लूटेगी और तुम्हे तो भगवान ने इतनी गदराई जवानी और
शरीर दिया है कि तेरे ससुराल मे तेरे देवर और ससुर का तो भाग्य ही खूल
जाएगा." "बस तू ये सब सीख ले की किसी मर्द से ये गंदा काम कैसे करवाया जाता
है और शेष तो भगवान तेरे पर बहुत मेरहबान है..." पंडित जी बोले और
मुस्कुरा उठे. सावित्री ये सब सुन कर कुछ लज़ा गयी लेकिन पंडित जी के मुँह
से शादी और अपने ससुराल की बात सुनकर काफ़ी गर्व महसूस की और थोड़ी देर के
लिए अपनी नज़रें लंड पर से हटा कर लाज़ के मारे नीचे झुका ली लेकिन अपने एक
हाथ से लंड को वैसे ही पकड़े रही. पंडित जी ने देखा की सावित्री भी अन्य
लड़कियो की तरह शादी के नाम पर काफ़ी खुश हो गयी और कुछ लज़ा भी रही थी.
तभी सावित्री के नंगे काले काले मासल चूतदों पर हाथ फेरते वो आगे धीरे से
बोले "अपनी शादी मे मुझे बुलाओगी की नही" ग़रीब सावित्री ने जब पंडित जी के
मुँह से ऐसी बात सुनी तो उसे खुशी का ठिकाना ही नही रहा और नज़ारे झुकाए
ही हल्की सी मुस्कुरा उठी लेकिन लाज़ के मारे कुछ बोल नही पाई और शादी के
सपने मन मे आने लगे तभी पंडित जी ने फिर बोला "बोलो ..बुलाओगी की नही..."
इस पर सावित्री काफ़ी धीरे से बोली "जी बुलाउन्गि" और एकदम से सनसना गयी.
क्योंकि पंडित जी का लंड उसके हाथ मे भी था और वह एकदम से नंगी पंडित जी के
बगल मे बैठी थी और उसके चूतदों पर पंडित जी का हाथ मज़ा लूट रहा था. ऐसे
मे शादी की बात उठने पर उसके मन मे उसके होने वाले पति, देवर, ससुर, ननद,
सास और ससुराल यानी ये सब बातों के सपने उभर गये इस वजह से सावित्री लज़ा
और सनसना गयी थी. पंडित जी की इन बातों से सावित्री बहुत खुश हो गयी थी.
किसी अन्य लड़की की तरह उसके मन मे शादी और ससुराल के सपने तो पहले से ही
थे लेकिन पंडित जी जैसे बड़ा आदमी ग़रीब सावित्री के शादी मे आएगा उसके लिए
यह एक नयी और गर्व वाली बात थी. शायद यह भी उसके सपनों मे जुड़ गया. इस
वजह से अब उसका आत्म विश्वाह भी बढ़ गया और लंड को थामे थामे ही वह शादी के
सपने मे डूबने लगी तभी पंडित जी ने कहा "तेरी मा बुलाए या नही तू मुझे
ज़रूर बुलाना मैं ज़रूर आउन्गा ...चलो लंड के चमड़ी को अब आगे पीछे करो और
लंड से खेलना सीख लो...." कुछ पल के लिए शादी के ख्वाबों मे डूबी सावित्री
वापस लंड पर अपनी नज़रे दौड़ाई और सुपादे की चमड़ी को फिर पीछे की ओर खींची
और पहले की तरह सुपाड़ा से चमड़ी हटते ही खड़े लंड का चौड़ा सुपाड़ा एक दम
बाहर आ गया. सावित्री की नज़रे लाल सूपदे पर पड़ी तो मस्त होने लगी. लेकिन
उसके मन मे यह बात बार बार उठ रही थी कि क्या पंडित जी उसकी शादी मे
आएँगे, वह इतनी ग़रीब है तो उसके शादी मे कैसे आएँगे? यदि आएँगे तो कितनी
इज़्ज़त की बात होगी उसके लिए.. यही सोच रही थी और सुपादे की चमड़ी को आगे
पीछे करना सुरू कर दी और सोचते सोचते आख़िर हिम्मत कर के पूछ ही लिए "सच मे
आएँगे" और पंडित जी के जबाव मिलने से पहले अपनी नज़रें लंड पर से हटा कर
नीचे झुका ली लेकिन लंड पर सावित्री का हाथ वैसे ही धीरे धीरे चल रहा था और
खड़े लंड की चमड़ी सुपादे पर कभी चढ़ती तो कभी उतरती थी. इतना सुन कर
पंडित जी ने अपने एक हाथ से उसके चूतड़ और दूसरे हाथ मे एक चुचि को ले कर
दोनो को एक साथ कस कर मसल्ते हुए बोले "क्यो नही आउन्गा ....ज़रूर ऑंगा
तेरी शादी मे...." फिर पंडित जी के दोनो हाथों से चूतड़ और चुचि को कस कर
मीज़ना सुरू किए और आगे बोले "मैं तेरे मर्द से भी मिल कर कह दूँगा कि
तुम्हे ससुराल मे कोई तकलीफ़ नही होनी चाहिए....आज का जमाना बहुत खराब हो
गया है साले दहेज और पैसे के लालच मे शादी के बाद लड़की को जला कर मार
डालते हैं और तेरी मा बेचारी बिध्वा है क्या कर सकती है यदि तेरे साथ कुछ
गड़बड़ हो गया तो"" सावित्री के चुचिओ और चूतदों पर पंडित जी के हाथ कहर
बरपा रहे थे इस वजह से उसके हाथ मे लंड तो ज़रूर था लेकिन वह तेज़ी से
सुपादे की चमड़ी को आगे पीछे नही कर पा रही थी.
वह यह सब सुन रही थी लेकिन अब उसकी आँखे
कुछ दबदबाने जैसी लग रही थी. पंडित जी के सॉफ आश्वासन से कि वह उसकी शादी
मे आएँगे, वह खुश हो गयी लेकिन उनकी दूसरी बात जो दहेज और ससुराल मे किसी
आतायाचार से था, कुछ डर सी गयी. लेकिन पंडित जी की इस बात की वह उसके मर्द
और ससुराल वालों को यह इशारा कर देंगे की उसके साथ ऐसा कुछ नही होना चाहिए,
सावित्री को संतुष्टि मिल गयी थी. अब चूतदों और चुचिओ के मीसाव से मस्त
होती जा रही थी. फिर पंडित जी बोले "और मेरे ही लंड से तुम एक लड़की से औरत
बनी हो.. तो मेरे ही सामने शादी के मंडप तुम किसी की पत्नी बनोगी तो मुझे
बहुत अच्छा लगेगा क्योंकि मैं ये तो देख लूँगा के मैने जिसकी सील तोड़ी
उसकी सुहागरात किसके साथ मनेगि......सही बात है कि नही"" इतना कह कर पंडित
जी मुस्कुरा उठे और आगे बोले "लंड तो देख लिया, सूंघ लिया और अब इसे चाटना
और चूसना रह गया है इसे भी सीख लो...चलो इस सुपादे को थोड़ा अपने जीभ से
चॅटो..." "आज तुम्हे इतमीनान से सब कुछ सीखा दूँगा ताकि ससुराल मे तुम एक
गुणवती की तरह जाओ और अपने गुनो से सबको संतुष्ट कर दो. " फिर आगे बोले "
चलो जीभ निकाल कर इस सुपादे पर फिराओ..."
सावित्री अगले पल अपने जीभ को सुपादे पर फिराने लगी. सुपादे के स्पर्श से ही सावित्री की जीभ और मन दोनो मस्त हो उठे. सावित्री की जीभ का थूक सुपादे पर लगने लगा और सुपाड़ा गीला होने लगा, सावित्री के नज़रें सुपादे की बनावट और लालपन पर टिकी थी. सावित्री अपने साँवले हाथों मे पंडित जी के खड़े और गोरे लंड को कस के पकड़ कर अपने जीभ से धीरे धीरे चाट रही थी. पंडित जी सावित्री के चेहरे को देख रहे थे और लंड चूसने के तरीके से काफ़ी खुश थे. सावित्री के चेहरे पर एक रज़ामंदी और खुशी का भाव सॉफ दीख रहा था. पंडित जी की नज़रें चेहरे पर से हट कर सावित्री के साँवले और नंगे शरीर पर फिसलने लगी. पंडित जी अपना एक हाथ आगे बढ़ाकर उसकी काली रंग के बड़े बड़े दोनो चूतदों पर फिरने लगे और चूतदों पर के मांसल गोलाईओं के उठान को पकड़ कर भींचना सुरू कर दिए. ऐसा लग रहा था कि पंडित जी के हाथ सावित्री के चूतदों पर के माँस के ज़यादा होने का जयजा ले रहे हों. जिसका कसाव भी बहुत था. और उनके गोरे हाथ के आगे सावित्री के चूतड़ काफ़ी काले लग रहे थे. सावित्री बगल मे बैठी हुई पंडित जी के लंड और सुपादे पर जीभ फिरा रही थी. पंडित जी से अपने चूतदों को मसलवाना बहुत अछा लग रहा था. तभी पंडित जी बोले "कब तक बस चाटती रहेगी.............अब अपना मुँह खोल कर ऐसे चौड़ा करो जैसे औरतें मेला या बेज़ार मे ठेले के पास खड़ी होकर गोलगापा को मुँह चौड़ा कर के खाती हैं....समझी" सावित्री यह सुन कर सोच मे पड़ गयी और अपने जीवन मे कभी भी लंड को मुँह मे नही ली थी इस लिए उसे काफ़ी अजीब लग रहा था. वैसे तो अब गरम हो चुकी थी लेकिन मर्द के पेशाब करने के चीज़ यानी लंड को अपने मुँह के अंदर कैसे डाले यही सोच रही थी. वह जीभ फिराना बंद कर के लंड को देख रही थी फिर लंड को एक हाथ से थामे ही पंडित जी की ओर कुछ बेचैन से होते हुए देखी तो पंडित जी ने पूछा "कभी गोलगापा खाई हो की नही?" इस पर सावित्री कुछ डरे और बेचैन भाव से हाँ मे सिर हल्का सा हिलाया तो पंडित जी बोले "गोलगप्पा जब खाती हो तो कैसे मुँह को चौड़ा करती हो ..वैसे चौड़ा करो ज़रा मैं देखूं..." पंडित जी के ऐसी बात पर सावित्री एक दम लज़ा गयी क्योंकि गोलगप्पा खाते समय मुँह को बहुत ज़्यादा ही चौड़ा करना पड़ता हैं और तभी गोलगापा मुँह के अंदर जाता है. वह अपने मुँह को वैसे चौड़ा नही करना चाहती थी लेकिन पंडित जी उसके मुँह के तरफ ही देख रहे थे. सावित्री समझ गयी की अब चौड़ा करना ही पड़ेगा. और अपनी नज़रें पंडित जी के आँख से दूसरी ओर करते हुए अपने मुँह को धीरे धीरे चौड़ा करने लगी और अपंदिट जी उसके मुँह को चौड़ा होते हुए देख रहे थे. जब सावित्री अपने मुँह को कुछ चौड़ा करके रुक गयी और मुँह के अंदर सब कुछ सॉफ दिखने लगा. तभी पंडित जी बोले "थोड़ा और चौड़ा करो और अपने जीभ को बाहर निकाल कर लटका कर आँखें बंद कर लो."इतना सुन कर सावित्री जिसे ऐसा करने मे काफ़ी लाज़ लग रही थी उसने सबसे पहले अपनी आँखें ही बंद कर ली फिर मुँह को और चौड़ा किया और जीभ को बाहर कर ली जिससे उसके मुँह मे एक बड़ा सा रास्ता तैयार हो गया. पंडित जी नेएक नज़र से उसके मुँह के अंदर देखा तो सावित्री के गले की कंठ एक दम सॉफ दीख रही थी. मुँह के अंदर जीभ, दाँत और मंसुड़ों मे थूक फैला भी सॉफ दीख रहा था. "मुँह ऐसे ही चौड़ा रखना समझी.....बंद मत करना....अब तुम्हारे मुँह के अंदर की लाज़ मैं अपने लंड से ख़त्म कर दूँगा और तुम भी एक बेशर्म औरत की तरह गंदी बात अपने मुँह से निकाल सकती हो.....यानी एक मुँहफट बन जाओगी.., और बिना मुँह मे लंड लिए कोई औरत यदि गंदी बात बोलती है तो उसे पाप पड़ता है... गंदी बात बोलने या मुँहफट होने के लिए कम से कम एक बार लंड को मुँह मे लेना ज़रूरी होता है " अगले पल पंडित जी ने बगल मे बैठी हुई सावित्री के सर पर एक हाथ रखा और दूसरे हाथ से अपने लंड को सावित्री के हाथ से ले कर लंड के उपर सावित्री का चौड़ा किया हुआ मुँह लाया और खड़े और तननाए लंड को सावित्री के चौड़े किए हुए मुँह के ठीक बीचोबीच निशाना लगाते हुए मुँह के अंदर तेज़ी से थेल दिए और सावित्री के सिर को भी दूसरे हाथ से ज़ोर से दबा कर पकड़े रहे. लंड चौड़े मुँह मे एकदम अंदर घुस गया और लंड का सुपाड़ा सावित्री के गले के कंठ से टकरा गया और सावित्री घबरा गयी और लंड निकालने की कोशिस करने लगी लेकिन पंडित जी उसके सिर को ज़ोर से पकड़े थे जिस वजह से वह कुछ कर नही पा रही थी. पंडित जी अगले पल अपने कमर को उछाल कर सावित्री के गले मे लंड चाँप दिए और सावित्री को ऐसा लगा कि उसकी साँस रुक गयी हो और मर जाएगी. इस तड़फ़ड़ाहट मे उसके आँखों मे आँसू आ गये और लगभग रोने लगी और लंड निकालने के लिए अपने एक हाथ से लंड को पकड़ना चाही लेकिन लंड का काफ़ी हिस्सा मुँह के अंदर घुस कर फँस गया था और उसके हाथ मे लंड की जड़ और झांते और दोनो गोल गोल अंदू ही आए और सावित्री के नाक तो मानो पंडित जी के झांट मे दब गयी थी. सावित्री की कोसिस बेकार हो जा रही थी क्योंकि पंडित जी सावित्री के सर के बॉल पकड़ कर उसे अपने लंड पर दबाए थे और अपनी कमर को उछाल कर लंड मुँह मे चॅंप दे रहे थे.
दूसरे पल पंडित जी सावित्री के सिर पर के
हाथ को हटा लिए और सावित्री तुरंत अपने मुँह के अंदर से लंड को निकाल कर
खांसने लगी और अपने दोनो हाथों से आँखों मे आए आँसुओं को पोंछने लगी. इधेर
लंड मुँह के अंदर से निकालते लहराने लगा. लंड सावित्री के थूक और लार से
पूरी तरह नहा चुका था. पंडित जी खाँसते हुए सावित्री से बोले "चलो तुम्हारे
गले के कंठ को अपने सुपादे से चोद दिया हूँ अब तुम किसी भी असलील और गंदे
शब्दों का उच्चारण कर सकती हो और एक बढ़िया मुहफट बन सकती हो. मुहफट औरतें
बहुत मज़ा लेती हैं.." आगे बोले "औरतों को जीवन मे कम से कम एक बार मर्द के
लंड से अपने गले की कंठ को ज़रूर चुदवाना चाहिए....इसमे थोडा ज़ोर लगाना
पड़ता है ...ताकि लंड का सुपाड़ा गले के कंठ को छ्छू सके और कंठ मे असलीलता
और बेशर्मी का समावेश हो जाए. " सावित्री अभी भी खांस रही थी और पंडित जी
की बातें चुपचाप सुन रही थी. सावित्री के गले मे लंड के ठोकर से कुछ दर्द
हो रहा था. फिर सावित्री की नज़रें पंडित जी के तननाए लंड पर पड़ी जो की
थूक और लार से पूरा भीग चुका था. फिर पंडित जी ने सावित्री से बोला "मैने
जो अभी तेरे साथ किया है इसे कंठ चोदना कहते हैं..और जिस औरत की एक बार कंठ
चोद दी जाती है वह एक काफ़ी रंगीन और बेशरम बात करने वाली हो जाती है. ऐसी
औरतों को मर्द बहुत चाहतें हैं ..ऐसी औरतें गंदी और अश्लील कहानियाँ भी
खूब कहती हैं जिसे मर्द काफ़ी चाव से सुनते हैं..वैसे कंठ की चुदाई जवानी
मे ही हो जानी चाहिए. गाओं मे कंठ की चुदाई बहुत कम औरतों की हो पाती है
क्योंकि बहुत लोग तो यह जानते ही नही हैं. समझी ...अब तू मज़ा कर पूरी
जिंदगी ... " पंडित जी मुस्कुरा उठे. सावित्री के मन मे डर था कि फिर से
कहीं लंड को गले मे ठूंस ना दें इस वजह से वह लॅंड के तरफ तो देख रही थी
लेकिन चुपचाप बैठी थी. तभी पंडित जी बोले "चलो मुँह फिर चौड़ा करो ..घबराव
मत इस बार केवल आधा ही लंड मुँह मे पेलुँगा...अब दर्द नही होगा...मुँह मे
लंड को आगे पीछे कर के तुम्हारा मुँह चोदुन्गा जिसे मुँह मारना कहतें
हैं..यह भी ज़रूरी है तुम्हारे लिए इससे तुम्हारी आवाज़ काफ़ी सुरीली
होगी..चलो मुँह खोलो " सावित्री ने फिर अपना मुँह खोला लेकिन इस बार सजग थी
की लंड कहीं फिर काफ़ी अंदर तक ना घूस जाए. पंडित जी ने सावित्री के ख़ूले
मुँह मे लंड बड़ी आसानी से घुसाया और लंड कुछ अंदर घुसने के बाद उसे आगे
पीछे करने के लिए कमर को बैठे ही बैठे हिलाने लगे और सावित्री के सिर को एक
हाथ से पकड़ कर उपर नीचे करने लगे. उनका गोरे रंग का मोटा और तननाया हुआ
लंड सावित्री के मुँह मे घूस कर आगे पीछे होने लगा. सावित्री के जीभ और
मुँह के अंदर तालू से लंड का सुपाड़ा रगड़ाने लगा वहीं सावित्री के मुँह के
दोनो होंठ लंड की चमड़ी पर कस उठी थी मानो मुँह के होंठ नही बल्कि बुर की
होंठ हों. पंडित जी एक संतुलन बनाते हुए एक लय मे मुँह को चोदने लगे. आगे
बोले "ऐसे ही रहना इधेर उधेर मत होना...बहुत अच्छे तरीके से तेरा मुँह मार
रहा हूँ...साबाश..." इसके साथ ही उनके कमर का हिलना और सावित्री के मुँह मे
लंड का आना जाना काफ़ी तेज होने लगा. सावित्री को भी ऐसा करवाना बहुत अछा
लग रहा था. उसकी बुर मे लिसलिसा सा पानी आने लगा. सावित्री अपने मुँह के
होंठो को पंडित जी के पिस्टन की तरह आगे पीछे चल रहे लंड पर कस ली और मज़ा
लेने लगी. अब पूरा का पूरा लंड और सुपाड़ा मुँह के अंदर आ जा रहा था.कुछ देर तक पंडित जी ने सावित्री की मुँह को ऐसे ही चोदते रहे और सावित्री
के बुर मे चुनचुनी उठने लगी. वह लाज के मारे कैसे कहे की बुर अब तेज़ी से
चुनचुना रही है मानो चीटिया रेंग रही हों. अभी भी लंड किसी पिस्टन की तरह
सावित्री के मुँह मे घूस कर आगे पीछे हो रहा था. लेकिन बुर की चुनचुनाहट
ज़्यादे हो गयी और सावित्री के समझ मे नही आ रहा था कि पंडित जी के सामने
ही कैसे अपनी चुनचुना रही बुर को खुज़लाए. इधेर मुँह मे लंड वैसे ही आ जा
रहा था और बुर की चुनचुनाहट बढ़ती जा रही थी. आख़िर सावित्री का धीरज टूटने
लगा उसे लगा की अब बुर की चुनचुनाहट मिटाने के लिए हाथ लगाना ही पड़ेगा.
और अगले पल ज्योन्हि अपने एक हाथ को बुर के तरफ ले जाने लगी और पंडित जी की
नज़र उस हाथ पर पड़ी और कमरे मे एक आवाज़ गूँजी "रूको.....बुर पर हाथ मत
लगाना...लंड मुँह से निकाल और चटाई पर लेट जा" और सावित्री का हाथ तो वहीं
रुक गया लेकिन बुर की चुनचुनाहट नही रुकी और बढ़ती गयी. पंडित जी का आदेश
पा कर सावित्री ने मुँह से लंड निकाल कर तुरंत चटाई पर लेट गयी और बर की
चुनचुनाहट कैसे ख़त्म होगी यही सोचने लगी और एक तरह से तड़पने लगी. लेकिन
पंडित जी लपक कर सावित्री के दोनो जांघों के बीच ज्योहीं आए की सावित्री ने
अपने दोनो मोटी और लगभग काली जांघों को चौड़ा कर दी और दूसरे पल पंडित जी
ने अपने हाथ के बीच वाली उंगली को बुर के ठीक बीचोबीच भीदाते हुए लिसलिशसाई
बुर मे गाच्छ.. की आवाज़ के साथ पेल दिया और पंडित जी का गोरे रंग की बीच
वाली लंबी उंगली जो मोटी भी थी सावित्री के एकदम से काले और पवरोती के तरह
झांतों से भरी बुर मे आधा से अधिक घूस कर फँस सा गया और सावित्री लगभग चीख
पड़ी और अपने बदन को मरोड़ने लगी. पंडित जी अपनी उंगली को थोड़ा सा बाहर
करके फिर बुर मे चॅंप दिए और अब गोरे रंग की उंगली काली रंग की बुर मे पूरी
की पूरी घूस गयी. पंडित जी ने सावित्री की काली बुर मे फँसी हुई उंगली को
देखा और महसूस किया कि पवरोती की तरह फूली हुई बुर जो काफ़ी लिसलिसा चुकी
थी , अंदर काफ़ी गर्म थी और बुर के दोनो काले काले होंठ भी फड़फड़ा रहे थे.
चटाई मे लेटी सावित्री की साँसे काफ़ी तेज थी और वह हाँफ रही थी साथ साथ
शरीर को मरोड़ रही थी. पंडित जी चटाई मे सावित्री के दोनो जांघों के बीच मे
बैठे बैठे अपनी उंगली को बुर मे फँसा कर उसकी काली रंग की फूली हुई बुर की
सुंदरता को निहार रहे थे कि चटाई मे लेटी और हाँफ रही सावित्री ने एक हाथ
से पंडित जी के बुर मे फँसे हुए उंगली वाले हाथ को पकड़ ली. पंडित जी की
नज़र सावित्री के चेहरे की ओर गयी तो देखे कि वह अपनी आँखें बंद करके मुँह
दूसरे ओर की है एर हाँफ और कांप सी रही थी. तभी सावित्री के इस हाथ ने
पंडित जी के हाथ को बुर मे उंगली आगे पीछे करने के लिए इशारा किए.
सावित्री का यह कदम एक बेशर्मी से भरा था.
वह अब लाज़ और शर्म से बाहर आ गयी थी. पंडित जी समझ गये की बुर काफ़ी
चुनचुना रही है. इसी लिए वह एकदम बेशर्म हो गयी है. और इतने देखते ही पंडित
जी ने अपनी उंगली को काली बुर मे कस कस कर आगे पीछे करने लगे. सावित्री ने
कुछ पल के लिए अपने हाथ पंडित जी के हाथ से हटा ली. पंडित जी सावित्री की
बुर अब अपने हाथ के बीच वाली उंगली से कस कस कर चोद रहे थे. अब सावित्री
अपने जाँघो को काफ़ी चौड़ा कर दी. सावित्री की जंघें तो साँवली थी लेकिन
जाँघ के बुर के पास वाला हिस्सा काला होता गया था और जाँघ के कटाव जहाँ से
बुर की झांटें शुरू हुई थी, वह काला था और बुर की दोनो फांके तो एकदम से ही
काली थी जिसमे पंडित जी का गोरे रंग की उंगली गच्छ गच्छ ..जा रही थी. जब
उंगली काले बुर मे घूस जाती तब केवल हाथ ही दिखाई पड़ता और जब उंगली बाहर
आती तब बुर के काले होंठो के बीच मे कुछ गुलाबी रंग भी दीख जाती थी. पंडित
जी काली और फूली हुई झांतों से भरी बुर पर नज़रें गढ़ाए अपनी उंगली को चोद
रहे थे कि सावित्री ने फिर अपने एक हाथ से पंडित जी के हाथ को पकड़ी और बुर
मे तेज़ी से खूद ही चोदने के लिए जोरे लगाने लगी.
सावित्री की यह हरकत काफ़ी गंदी और अश्लील
थी लेकिन पंडित जी समझ गये कि अब सावित्री झदने वाली है और उसका हाथ पंडित
जी के हाथ को पकड़ कर तेज़ी से बुर मे चोदने की कोशिस करने लगी जिसको
देखते पंडित जी अपने उंगली को सावित्री की काली बुर मे बहुत ही तेज़ी से
चोदना शुरू कर दिया. सावित्री पंडित जी के हाथ को बड़ी ताक़त से बुर के
अंदर थेल रही थी लेकिन केवल बीच वाली उंगली ही बुर मे घूस रही थी. अचानक
सावित्री तेज़ी से सिस्कार्ते हुए अपने पीठ को चटाई मे एक धनुष की तरह तान
दी और कमर का हिस्सा झटके लेने लगा ही था की सावित्री चीख पड़ी "आररीए माई
री माईए सी उउउ री माएई रे बाप रे ...आअहह " और पंडित जी के उंगली को बुर
मानो कस ली और गर्म गर्म रज बुर मे अंदर निकलने लगा और पंडित जी की उंगली
भींग गयी. फिर पंडित जी के हाथ पर से सावित्री ने अपने हाथ हटा लिए और चटाई
मे सीधी लेट कर आँखे बंद कर के हाँफने लगी. पंडित जी ने देखा की सावित्री
अब झाड़ कर शांत हो रही है. फिर काली बुर मे से अपने उंगली को बाहर निकाले
जिसपर सफेद रंग का कमरस यानी रज लगा था और बीच वाली उंगली के साथ साथ बगल
वाली उंगलियाँ भी बुर के लिसलिसा पानी से भीग गये थे. पंडित जी की नज़र जब
सावित्री की बुर पर पड़ी तो देखा की बुर की दोनो होंठ कुछ कांप से रहे थे.
और बुर का मुँह, अगाल बगल के झांट भी लिसलिस्से पानी से भीग गये थे. तभी
बीच वाली उंगली के उपर लगे कमरस को पंडित जी अपने मुँह मे ले कर चाटने लगे
और सावित्री की आँखें बंद थी लेकिन उसके कान मे जब उंगली चाटने की आआवाज़
आई तो समझ गयी की पंडित जी फिर बुर वाली उंगली को चाट रहे होंगे. और यही
सोच कर काफ़ी ताक़त लगाकर अपनी आँखे खोली तो देखी की पंडित जी अपनी बीच
वाली उंगली के साथ साथ अगल बगल की उंगलिओ को भी बड़े चाव से चाट रहे थे.
उंगलिओ को चाटने के बाद सावित्री ने देखा की पंडित जी बीच वाली उंगली को
सूंघ भी रहे थे. फिर सावित्री के बुर के तरफ देखे और उंगली चुदाई का रस और
बुर के अंदर से निकला रज कुछ बुर के मुँह पर भी लगा था. सावित्री अपने दोनो
मोटी मोटी साँवले रंग के जांघों को जो को फैली हुई थी , आपस मे सटना चाहती
थी लेकिन पंडित जी उसकी बुर को काफ़ी ध्यान से देख रहे थे और दोनो जांघों
के बीच मे ही बैठे थे और इन दोनो बातों को सोच कर सावित्री वैसे ही जंघें
फैलाए ही लेटी पंडित जी के चेहरे की ओर देख रही थी. झाड़ जाने के वजह से
हाँफ रही थी. तभी उसकी नज़र उसकी जांघों के बीच मे बैठे पंडित जी के लंड पर
पड़ी जो अभी भी एक दम तननाया हुआ था और उसकी छेद मे से एक पानी का लार
टपाक रहा था. अचानक पंडित जी एक हाथ से सावित्री की बुर के झांतों को जो
बहुत ही घनी थी उसे उपर की ओर फिराया और बुर पर लटकी झांटें कुछ उपर की ओर
हो गयीं और बुर का मुँह अब सॉफ दिखाई देने लगा. फिर भी बुर के काले होंठो
के बाहरी हिस्से पर भी कुछ झांट के बॉल उगे थे जिसे पंडित जी ने अपनी
उंगलिओ से दोनो तरफ फैलाया और अब बुर के मुँह पर से झांटें लगभग हट गयीं
थी. पंडित जी ऐसा करते हुए सावित्री की काली काली बुर के दोनो होंठो को
बहुत ध्यान से देख रहे थे और सावित्री चटाई मे लेटी हुई पंडित जी के मुँह
को देख रही थी और सोच रही थी की पंडित जी कितने ध्यान से उसकी बुर के हर
हिस्से को देख रहे हैं और झांट के बालों को भी काफ़ी तरीके से इधेर उधेर कर
रहे थे.पंडित जी का काफ़ी ध्यान से बुर को देखना सावित्री को यह महसूस करा रहा था
की उसकी जांघों के बीच के बुर की कितनी कीमत है और पंडित जी जैसे लोंगों के
लिए कितना महत्व रखती है. यह सोच कर उसे बहुत खुशी और संतुष्टि हो रही थी.
सावित्री को अपने शरीर के इस हिस्से यानी बुर की कीमत समझ आते ही मॅन
आत्मविश्वास से भर उठा. पंडित जी अभी भी उसकी बुर को वैसे ही निहार रहे थे
और अपने हाथ की उंगलिओ से उसकी बुर के दोनो फांकों को थोड़ा सा फैलाया और
अंदर की गुलाबी हिस्से को देखने लगे. सावित्री भी पंडित जी की लालची नज़रों
को देख कर मन ही मन बहुत खुश हो रही थी की उसकी बुर की कीमत कितनी ज़्यादा
है और पंडित जी ऐसे देख रहे हैं मानो किसी भगवान का दर्शन कर रहे हों. तभी
अचानक पंडित जी को बुर के अंदर गुलाबी दीवारों के बीच सफेद पानी यानी रज
दिखाई दे गयी जो की सावित्री के झड़ने के वजह से थी. पंडित जी नेअब अगले
कदम जो उठाया की सावित्री को मानो कोई सपना दिख रहा हो. सावित्री तो उछल सी
गयी और उसे विश्वास ही नही हो रहा था. क्योंकि की पंडित जी अपने मुँह
सावित्री के बुर के पास लाए और नाक को बुर के ठीक बेचोबीच लगाकर तेज़ी से
सांस अंदर की ओर खींचे और अपनी आँखे बंद कर के मस्त हो गये. बुर की गंध नाक
मे घुसते ही पंडित जी के शरीर मे एक नयी जवानी की जोश दौड़ गयी. फिर अगला
कदम तो मानो सावित्री के उपर बिजली ही गिरा दी. पंडित जी सावित्री के काले
बुर के मुँह को चूम लिए और सावित्री फिर से उछल गयी. सावित्री को यकीन नही
हो रहा था की पंडित जी जैसे लोग जो की जात पात और उँछ नीच मे विश्वास रखते
हों और उसकी पेशाब वाले रास्ते यानी बुर को सूंघ और चूम सकते हैं. वह एक दम
से आश्चर्या चकित हो गयी थी. उसे पंडित जी की ऐसी हरकत पर विश्वास नही हो
रहा था. लेकिन यह सच्चाई थी. सावित्री अपने सहेलिओं से यह सुनी थी की आदमी
लोग औरतों के बुर को चूमते और चाटते भी हैं लेकिन वह यह नही सोचती थी की
पंडित जी जैसे लोग भी उसकी जैसे छ्होटी जाती की लड़की या औरत के पेशाब वाले
जगह पर अपनी मुँह को लगा सकता हैं. सावित्री चटाई पर लेटी हुई पंडित जी के
इस हरकत को देख रही थी और एकदम से सनसना उठी थी. उसके मन मे यही सब बाते
गूँज ही रही थी कि पंडित जी ने अगला काम शुरू कर ही दिया सावित्री जो केवल
पंडित जी के सिर को की देख पा रही थी क्योंकि चटाई मे लेटे लेटे केवल सिर
ही दिखाई पड़ रहा था , उसे महसूस हुआ की पंडित जी क़ी जीभ अब बुर के फांकों
पर फिर रहा था और जीभ मे लगा थूक बुर के फांको भी लग रहा था. पंडित जी का
यह कदम सावित्री को हिला कर रख दिया. सावित्री कभी सोची नही थी की पंडित जी
उसके पेशाब वाले जगह को इतना इज़्ज़त देंगे. उसका मन बहुत खुश हो गया. उसे
लगा की आज उसे जीवन का सबसे ज़्यादा सम्मान या इज़्ज़त मिल रहा है. वह आज
अपने को काफ़ी उँचा महसूस करने लगी थी. उसके रोवे रोवे मे खुशी,
आत्मविश्वास और आत्मसम्मान भरने लगा. उसने अपने साँवले और मोटे मोटे जांघों
को और फैला दी जिससे उसके पवरोती जैसी फूली हुई बुर के काले काले दोनो
होंठ और खूल गये और पंडित जी का जीभ दोनो फांकों के साथ साथ बुर की छेद मे
भी घुसने लगा. सावित्री जो थोड़ी देर पहले ही झाड़ गयी थी फिर से गर्म होने
लगी और उसे बहुत मज़ा आने लगा. बुर पर जीभ का फिरना तेज होने लगा तो
सावित्री की गर्मी भी बढ़ने लगी. उसे जहाँ बहुत मज़ा आ रहा था वहीं उसे
अपने बुर और शरीर की कीमत भी समझ मे आने लगी जी वजह से आज उसे पंडित जी
इतने इज़्ज़त दे रहे थे. जब पंडित जी बुर पर जीभ फेरते हुए सांस छोड़ते तब
सांस उनकी नाक से निकल कर सीधे झांट के बालों मे जा कर टकराती और जब सांस
खींचते तब झाँत के साथ बुर की गंध भी नाक मे घूस जाती और पंडित जी मस्त हो
जाते. फिर पंडित जी ने अपने दोनो हाथों से काली बुर के दोनो फांकों को फैला
कर अपने जीभ को बुर छेद मे घुसाना शुरू किया तो सावित्री का पूरा बदन
झंझणा उठा. वह एक बार कहर उठी. उसे बहुत मज़ा मिल रहा था. आख़िर पंडित जी
का जीभ बुर की सांकारी छेद मे घुसने की कोशिस करने लगी और बुर के फांकों के
बीच के गुलाबी हिस्से मे जीभ घुसते ही सावित्री की बुर एक नये लहर से
सनसनाने लगी. और अब जीभ बुर के गुलाबी हिस्से मे अपने घुसने के लिए जगह
बनाने लगी.
जीभ का अगला हिस्सा हो काफ़ी नुकीला जैसा
था वह बुर के अंदर के गुलाबी भाग को अब फैलाने और भी अंदर घुसने लगा था. यह
सावित्री को बहुत सॉफ महसूस हो रहा था की पंडित जी का जीभ अब उसकी बुर मे
घूस रहा है. सावित्री बहुत खुस हो रही थी. उसने अपने बुर को कुछ और उचकाने
के कोशिस ज्योन्हि की पंडित जे ने काफ़ी ज़ोर लगाकर जीभ को बुर के बहुत
अंदर घुसेड दिया जी की बुर की गुलाबी दीवारों के बीच दब सा गया था. लेकिन
जब जीभ आगे पीछे करते तब सावित्री एकदम से मस्त हो जाती थी. उसकी मस्ती
इतना बढ़ने लगी की वह सिसकारने लगी और बुर को पंडित जी के मुँह की ओर ठेलने
लगी थी. मानो अब कोई लाज़ शर्म सावित्री के अंदर नही रह गया हो. पंडित जी
समझ रहे थे की सावित्री को बहुत मज़ा आ रहा है बुर को चटवाने मे. फिर पंडित
जी ने अपने दोनो होंठो से बुर के दोनो फांकों को बारी बारी से चूसने लगे
तो सावित्री को लगा की तुरंत झाड़ जाएगी. फिर पंडित जी दोनो काले और मोटे
बुर के फांको को खूब चूसा जिसमे कभी कभी अगल बगल की झांटें भी पंडित जी के
मुँह मे आ जाती थी. दोनो फांकों को खूब चूसने के बाद जब सावित्री के बुर के
दरार के उपरी भाग मे टिंग जो की किसी छोटे मटर के दाने की तरह था , मुँह
मे लेकर चूसे तो सावित्री एकदम से उछल पड़ी और पंडित जी के सर को पकड़ कर
हटाने लगी. उसके शरीर मे मानो बिजली दौड़ गयी. लेकिन पंडित जी ने उसके टिंग
तो अपने दोनो होंठो के बीच ले कर चूसते हुए बुर की दरार मे फिर से बीच
वाली उंगली पेल दी और सावित्री चिहूंक सी गयी और उंगली को पेलना जारी रखा.
टिंग की चुसाई और उंगली के पेलाई से सावित्री फिर से ऐंठने लगी और यह काम
पंडित जी तेज़ी से करते जा रहे थे नतीजा की सावित्री ऐसे हमले को बर्दाश्त
ना कर सकी और एक काफ़ी गंदी चीख के साथ झड़ने लगी और पंडित जी ने तुरंत
उंगली को निकाल कर जीभ को फिर से बुर के गहराई मे थेल दिए और टिंग को अपने
एक हाथ की चुटकी से मसल दिया. बुर से रज निकल कर पंडित जी के जीभ पर आ गया
और काँपति हुई सावित्री के काली बुर मे घूसी पंडित जी के जीभ बुर से निकल
रहे रज को चाटने लगे और एक लंबी सांस लेकर मस्त हो गये. सावित्री झाड़ कर
फिर से हाँफ रही थी. आँखे बंद हो चुकी थी. मन संतुष्ट हो चुका था. पंडित जी
अपना मुँह बुर के पास से हटाया और एक बार फिर बुर को देखा. वह भी आज बहुत
खुस थे क्योंकि जवान और इस उम्र की काली बुर चाटना और रज पीना बहुत ही
भाग्य वाली बात थी.
सावित्री भले ही काली थी लेकिन बुर काफ़ी
मांसल और फूली हुई थी और ऐसी बुर बहुत कम मिलती है चाटने के लिए. ऐसी
लड़कियो की बुर चाटने से मर्द की यौन ताक़त काफ़ी बढ़ती है. यही सब सोच कर
फिर से बुर के फूलाव और काली फांकों को देख रहे थे. सावित्री दो बार झाड़
चुकी थी इस लिए अब कुछ ज़्यादे ही हाँफ रही थी. लेकिन पंडित जी जानते थे की
सावित्री का भरा हुआ गदराया शरीर इतना जल्दी थकने वाला नही है और इस तरह
की गदराई और तन्दरूश्त लड़कियाँ तो एक साथ कई मर्दों को समहाल सकती हैं.
फिर सावित्री के जांघों के बीचोबीच आ गये और अपने खड़े और तननाए लंड को बुर
की मुँह पर रख दिए. लंड के सुपादे की गर्मी पाते ही सावित्री की आँखे खूल
गयी और कुछ घबरा सी गयी और पंडित जी की ओर देखने लगी. दो बार झड़ने के बाद
ही तुरंत लंड को बुर के मुँह पर भिड़ाकर पंडित जी ने सावित्री के मन को
टटोलते हुए पूछा "मज़ा लेने का मन है ..या रहने दें...बोलो.." सावित्री जो
की काफ़ी हाँफ सी रही थी और दो बार झाड़ जाने के वजह से बहुत संतुष्ट से हो
गयी थी फिर भी बुर के मुँह पर दाहकता हुआ लंड का सुपाड़ा पा कर बहुत ही
धर्म संकट मे पड़ गयी. इस खेल मे उसे इतना मज़ा आ रहा था की उसे नही करने
की हिम्मत नही हो रही थी. लेकिन कुछ पल पहले ही झाड़ जाने की वजह से उसे
लंड की ज़रूरत तुरंत तो नही थी लेकिन चुदाई का मज़ा इतना ज़्यादे होने के
वजह से उसने पंडित जी को मना करना यानी लंड का स्वाद ना मिलने के बराबर ही
था. इस कारण वह ना करने के बजाय हा कहना चाहती थी यानी चूड़ना चाहती थी.
लेकिन कुच्छ पल पहले ही झड़ने की वजह से शरीर की गर्मी निकल गयी थी और उसे
हाँ कहने मे लाज़ लग रही थी. और वह चुदना भी चाहती थी. और देखी की पंडित जी
उसी की ओर देख रहे थे शायद जबाव के इंतजार मे. सावित्री के आँखें ज्योन्हि
पंडित जी एक आँखों से टकराई की वह लज़ा गयी और अपने दोनो हाथों से अपनी
आँखें मूंद ली और सिर को एक तरफ करके हल्का सा कुछ रज़ामंदी मे मुस्कुरई ही
थी की पंडित जी ने अपने लंड को अपने पूरे शरीर के वजन के साथ उसकी काली और
कुच्छ गीली बुर मे चंपा ही था की सावित्री का मुँह खुला "आरे बाअप रे
माईए...." और अपने एक हाथ से पंडित जी का लंड और दूसरी हाथ से उनका कमर
पकड़ने के लिए झपटी लेकिन पंडित जी के भारी शरीर का वजन जो की अपने गोरे
मोटे लंड पर रख कर काली रंग की फूली हुई पवरोती की तरह बुर मे चॅंप चुके थे
और नतीज़ा की भारी वजन के वजह से आधा लंड सावित्री की काली बुर मे घूस
चुका था, अब सावित्री के बस की बात नही थी की घूसे हुए लंड को निकाले या
आगे घूसने से रोक सके. लेकिन सावित्री का जो हाथ पंडित जी के लंड को पकड़ने
की कोशिस की वह उनका आधा ही लंड पकड़ सकी और सावित्री को लगा मानो लंड नही
बल्कि कोई गरम लोहे की छड़ हो. अगले पल पंडित जी अपने शरीर के वजन जो की
अपने लंड के उपर ही रख सा दिया था , कुछ कम करते हुए लंड को थोड़ा सा बाहर
खींचा तो बुर से जितना हिस्सा बाहर आया उसपर बुर का लिसलिसा पानी लगा था.
अगले पल अपने शरीर का वजन फिर से लंड पर डालते हुए हुमच दिए और इसबार लंड
और गहराई तक घूस तो गया लेकिन सावित्री चटाई मे दर्द के मारे ऐंठने लगी.
पंडित जी ने देखा की अब उनका गोरा और मोटा
लंड झांतों से भरी काली बुर मे काफ़ी अंदर तक घूस कर फँस गया है तब अपने
दोनो हाथों को चटाई मे दर्द से ऐंठ रही सावित्री की दोनो गोल गोल साँवले
रंग की चुचिओ पर रख कर कस के पकड़ लिया और मीज़ना शुरू कर दिया. सावित्री
अपनी चुचिओ पर पंडित जी के हाथ का मीसाव पा कर मस्त होने लगी और उसकी काली
बुर मे का दर्द कम होने लेगा. सावित्री को बहुत ही मज़ा मिलने लगा. वैसे
उसकी मांसल और बड़ी बड़ी गोल गोल चुचियाँ किसी बड़े अमरूद से भी बड़ी थी और
किसी तरह पंडित जी के पूरे हाथ मे समा नही पा रही थी. पंडित जीने चुचिओ को
ऐसे मीज़ना शुरू कर दिया जैसे आटा गूथ रहे हों. चटाई मे लेटी सावित्री ऐसी
चुचि मिसाई से बहुत ही मस्त हो गयी और उसे बहुत अच्छा लगने लगा था. उसका
मन अब बुर मे धन्से हुए मोटे लंड को और अंदर लेने का करने लगा. लेकिन चटाई
मे लेटी हुई आँख बंद करके मज़ा ले रही थी. कुछ देर तक ऐसे ही चुचिओ के
मीसावट से मस्त हुई सावित्री का मन अब लंड और अंदर लेने का करने लगा लेकिन
पंडित जी केवल लंड को फँसाए हुए बस चुचिओ को ही मीज़ रहे थे. चुचिओ की काली
घुंडिया एक दम खड़ी और चुचियाँ लाल हो गयी थी. सावित्री की साँसे अब तेज
चल रही थी. सावित्री को अब बर्दाश्त नही हो पा रहा था और उसे लंड को और
अंदर लेने की इच्छा काफ़ी तेज हो गयी. और धीरज टूटते ही पंडित जी के नीचे
दबी हुई सावित्री ने नीचे से ही अपने चूतड़ को उचकाया और पंडित जी इस हरकत
को समझ गये और अगले पल सावित्री के इस बेशर्मी का जबाव देने के लिए अपने
शरीर की पूरी ताक़त इकठ्ठा करके अपने पूरे शरीर को थोड़ा सा उपर की ओर
उठाया तो लंड आधा से अधिक बाहर आ गया. और चुचिओ को वैसे ही पकड़े हुए एक
हुंकार मारते हुए अपने लंड को बुर मे काफ़ी ताक़त से चाँप दिए और नतीज़ा
हुआ कि बुर जो चुचिओ की मीसावट से काफ़ी गीली हो गयी थी, लंड के इस
जबर्दाश्त दबाव को रोक नही पाई और पंडित जी के कसरती बदन की ताक़त से चांपा
गया लंड बुर मे जड़ तक धँस कर काली बुर मे गोरा लंड एकदम से कस गया. बुर
मे लंड की इस जबर्दाश्त घूसाव से सावित्री मस्ती मे उछल पड़ी और चीख सी
पड़ी "सी रे ....माई ... बहुत मज़ाअ एयेए राहाआ हाइईइ आअहह..." फिर पंडित
जी ने अपने लंड की ओर देखा तो पाया कि लंड का कोई आता पता नही था और पूरा
का पूरा सावित्री की काली और झांतों से भरी हुई बुर जो अब बहुत गीली हो
चुकी थी, उसमे समा गया था.
पंडित जी यह देख कर हंस पड़े और एक लंबी
साँस छोड़ते हुए बोले "तू बड़ी ही गदराई है रे....तेरी बुर बड़ी ही रसीली
और गरम है..तुझे चोद्कर तो मेरा मन यही सोच रहा कि तेरी मा का भी स्वाद
किसी दिन पेल कर ले लू.....क्यों ....कुच्छ बोल ..." सावित्री जो चटाई मे
लेटी थी और पूरे लंड के घूस जाने से बहुत ही मस्ती मे थी कुच्छ नही बोली
क्योंकि पंडित जी का मोटा लंड उसकी बुर के दीवारों के रेशे रेशे को खींच कर
चौड़ा कर चुका था. और उसे दर्द के बजाय बहुत मज़ा मिल रहा था. पंडित जी के
मुँह से अपने मा सीता के बारे मे ऐसी बात सुनकर उसे अच्च्छा नही लगा लेकिन
मस्ती मे वह कुछ भी बोलना नही पसंद कर रही थी. बस उसका यही मन कर रहा था
की पंडित जी उस घूसे हुए मोटे लंड को आगे पीछे करें. जब पंडित जी ने देखा
की सावित्री ने कोई जबाव नही दिया तब फिर बोले "खूद तो दोपहर मे मोटा बाँस
लील कर मस्त हो गयी है, और तेरी मा के बारे मे कुछ बोला तो तेरे को बुरा लग
रहा है...साली हराम्जादि...कहीं की.., .वो बेचारी विधवा का भी तो मन करता
होगा कि किसी मर्द के साथ अपना मन शांत कर ले ..लेकिन लोक लाज़ से और शरीफ
है इसलिए बेचारी सफेद सारी मे लिपटी हुई अपना जीवन घूट घूट कर जी रही
है...ग़रीबी का कहर उपर से....क्यों ...बोलो सही कहा की नहीं....." इतना
कहते ही अगले पल पंडित जी सावित्री की दोनो चोचिओ को दोनो हाथों से थाम कर
ताच.. ताच्छ... पेलना शुरू कर दिए. पंडित जी का गोरा और मोटा लंड जो बुर के
लिसलिस्से पानी से अब पूरी तरीके से भीग चुका था, सावित्री के झांतों से
भरी काली बुर के मुँह मे किसी मोटे पिस्टन की तरह आगे पीच्चे होने लगा. बुर
का कसाव लंड पर इतना ज़्यादे था कि जब भी लंड को बाहर की ओर खींचते तब लंड
की उपरी हिस्से के साथ साथ बुर की मांसपेशियाँ भी बाहर की ओर खींच कर आ
जाती थी. और जब वापस लंड को बुर मे चाम्पते तब बुर के मुँह का बाहरी हिस्सा
भी लंड के साथ साथ कुच्छ अंदर की ओर चला जाता था. लंड मोटा होने की वजह से
बुर के मुँह को एकदम से चौड़ा कर के मानो लंड अपने पूरे मोटाई के आकार का
बना लिया था. सावित्री ने पंडित जी के दूसरी बात को भी सुनी लेकिन कुछ भी
नही बोली. वह अब केवल चुदना चाह रही थी. लेकिन पंडित जी कुच्छ धक्के मारते
हुए फिर बोल पड़े "मेरी बात तुम्हे ज़रूर खराब लगी होगी .....क्योंकि मैने
गंदे काम के लिए बोला ....लेकिन तेरी दोनो जांघों को चौड़ा करके आज तेरी
बुर चोद रहा हूँ ...ये तुम्हें खराब नही लग रहा है....तुम्हे मज़ा मिल रहा
है......शायद ये मज़ा तेरी मा को मिले यह तुम्हे पसंद नही
पड़ेगा.....दुनिया बहुत मतलबी है रे ...और तू भी तो इसी दुनिया की है...."
और इतना बोलते ही पंडितजी हुमच हुमच कह चोदने लगे और सावित्री उनकी ये बात
सुनी लेकिन उसे अपने बुर को चुदवाना बहुत ज़रूरी था इस लिए मा के बारे मे
पंडित जी के कहे बात पर ध्यान नही देना ही सही समझी. और अगले पल बुर मे लगी
आग को बुझाने के लिए हर धक्के पर अपने चौड़े और काले रंग के दोनो चूतदों
को चटाई से उपर उठा देती थी क्योंकि पंडित जी के मोटे लंड को पूरी गहराई मे
घूस्वा कर चुदवाना चाह रही थी.
पंडित जी के हर धक्के के साथ सावित्री की
बुर पूरी गहराई तक चुद रही थी. पंडित जी का सुपाड़ा सावित्री के बुर की
दीवार को रगड़ रगड़ कर चोद रहा था. सावित्री जैसे सातवें आसमान पर उड़ रही
हो. पंडित जी हर धाक्के को अब तेज करते जा रहे थे. लंड जब बुर मे पूरी तरह
से अंदर धँस जाता तब पंडित जी के दोनो अन्दुए सावित्री के गंद पर टकरा जाते
थे. कुछ देर तक पंडित जी सावित्री को चटाई मे कस कस कर चोद्ते रहे. उनका
लंड सावित्री की कसी बुर मे काफ़ी रगड़ के साथ घूस्ता और निकलता था. पंडित
जी को भी कसी हुई बुर का पूरा मज़ा मिल रहा था तो वहीं सावित्री को भी
पंडित जी के कसरती शरीर और मोटे लूंबे और तगड़े लंड का मज़ा खूब मिल रहा
था. कमरे मे फाकच्छ फ़ाच्छ के आवाज़ भरने लगी. सावित्री का चूतड़ अब उपर की
ओर उठने लगा और हर धक्के के साथ चटाई मे दब जाता था. बुर से पानी भी
निकलना काफ़ी तेज हो गया था इस वजह से बुर का निकला हुआ पानी सावित्री के
गंद की दरार से होता हुआ चटाई पर एक एक बूँद चुहुना शुरू हो गया. सावित्री
अब सिसकरने तेज कर दी थी. अचानक सावित्री के शरीर मे एक ऐंठन शुरू होने लगी
ही थी की पंडित जी सावित्री को कस कर जाकड़ लिए और उसकी गीली और चू रही
काली बुर को काफ़ी तेज़ी से चोदने लगे. चुदाइ इतनी तेज होने लगी कि बुर से
निकलने वाला पानी अब बुर के मुँह और लंड पर साबुन के फेन की तरह फैलने लगा.
जब लंड बाहर आता तब उसपर सफेद रंग के लिसलीषसा पानी अब साबुन की फेन की
तरह फैल जाता था. पंडित जी सावित्री को काफ़ी तेज़ी से चोद रहे थे लेकिन
फिर भी सावित्री पीछले दीं की तरह गिड़गिडाना शुरू कर दी
"...सीई....और....तेज...जी पंडित जी ....जल्दी ...जल्दी........" पंडित जी
के कान मे ये शब्द पड़ते ही उनके शरीर मे झटके दार ऐतन उठने लगी उनका कमर
का हिस्सा अब झटका लेना शुरू कर दिया क्योंकि पंडित जी के दोनो अनदुओं से
वीर्य की एक तेज धारा चल पड़ी और पंडित जी अपने पूरे शरीर की ताक़त लगाकर
धक्के मारना शुरू कर दिया. अगले पल पंडित जी सावित्री के कमर को कस लिए और
अपने लंड को बुर के एकदम गहराई मे चाँप कर लंड का अगला हिस्सा बुर की तलहटी
मे पहुँचा दिया और लंड के छेद से एक गर्म वीर्य के धार तेज़ी से निकल कर
ज्योन्हि बुर के गहराई मे गिरा कि सावित्री वीर्य की गर्मी पाते ही चीख सी
पड़ी " एयेए ही रे माइ रे बाप ...रे...बाप...आरी पंडित जी बहुत मज़ा ....आ
रा..हा ही रे मैया..." और सावित्री की बुर से रज निकल कर लंड पर पड़ने लगा.
पंडित जी का लंड काफ़ी देर तक झटके ले ले कर वीर्य को बुर मे उडेल रहा था.
लगभग पूरी तरीके से झाड़ जाने के बाद पंडित जी लंड को थोड़ा सा बाहर खींचे
और अगले पल वापस बुर मे चॅंप कर वीर्य की आख़िरी बूँद भी उडेल दिए.
अब दोनो हाँफ रहे थे और पंडित जी सावित्री
के उपर से हट कर लंड को बुर से बाहर खींचा और चुदाइ के रस से भींग कर सना
हुआ लंड के बाहर आते ही बुर की दोनो काली फाँकें फिर से सटने की कोशिस करने
लगी लेकिन अब बुर का मुँह पहले से कहीं और खूल कर फैल सा गया था. बुर की
सूरत पूरी बदल चुकी थी. पंडित जी बुर पर एक नज़र डाले और अगले पल सावित्री
की दोनो जांघों के बीच से हट कर खड़े हो गये. सावित्री अपनी दोनो जांघों को
आपस मे सताते हुए अपनी नज़र पंडित जी के अभी भी कुछ खड़े लंड पर डाली जो
की चुदाई रस से पूरी तरह से सना था. पंडित जी अगले पल सावित्री की पुरानी
चड्डी को उठाया और अपने लंड के उपर लगे चुदाई रस को पोच्छने लगे. सावित्री
ऐसा देख कर एक दम से घबरा सी गयी. लंड पर काफ़ी ज़्यादे मात्रा मे चुदाई रस
लगे होने से चड्डी लगभग भीग सी गयी. पंडित जी लंड पोच्छने के बाद सावित्री
की ओर चड्डी फेंकते हुए बोला "ले अपनी बुर पोंच्छ कर इसे पहन लेना और कल
सुबह नहाते समय ही इसे धोना...समझी.." चड्डी पर सावित्री की हाथ पड़ते ही
उसकी उंगलियाँ गीले चड्डी से भीग सा गये. लेकिन पंडित जी अब चौकी पर बैठ कर
सावित्री की ओर देख रहे थे और सावित्री कई बार झाड़ जाने के वजह से इतनी
थक गयी थी चटाई पर से उठने की हिम्मत नही हो रही थी. पंडित जी के कहने के
अनुसार सावित्री के चड्डी को हाथ मे लेकर चटाई मे उठ कर बैठ गयी और अपनी
बुर और झांतों मे लगे चुदाई रस को पोछने लगी. लेकिन चड्डी मे पंडित जी के
लंड पर का लगा चुदाई रस सावित्री के पोंछने के जगह पर लगने लगा. फिर
सावित्री उठी और बुर को धोने और मूतने के नियत से ज्योन्ी स्ननगर के तरफ
बढ़ी की पंडित जी ने चौकी पर लेटते हुए कहा "बुर को आज मत धोना....और इस
चड्डी को पहन ले ऐसे ही और कल ही इसे भी धोना...इसकी गंध का भी तो मज़ा
लेलो..." सावित्री के कान मे ऐसी अजीब सी बात पड़ते ही सन्न रह गयी लेकिन
उसे पेशाब तो करना ही था इस वजह से वह सौचालय के तरफ एकदम नंगी ही बढ़ी तो
पंडित जी की नज़र उसके काले काले दोनो चूतदों पर पड़ी और वे भी एकदम से
नंगे चौकी पर लेटे हुए अपनी आँख से मज़ा लूट रहे थे. सावित्री जब एक एक कदम
बढ़ाते हुए शौचालय के ओर जा रही थी तब उसे महसूस हुआ की उसकी बुर मे हल्की
मीठी मीठी दर्द हो रहा था. शौचालय के अंदर जा कर सिटकिनी चढ़ा कर ज्योन्हि
पेशाब करने बैठी तभी उसकी दोनो जांघों और घुटनों मे भी दर्द महसूस हुआ.
उसने सोचा कि शायद काफ़ी देर तब पंडित जी ने चटाई मे चुदाई किया है इसी वजह
से दर्द हो रहा है. लेकिन अगले पल ज्योन्हि वीर्य की बात मन मे आई वह फिर
घबरा गयी और पेशाब करने के लिए ज़ोर लगाई. सावित्री ने देखा की वीर्य की
हल्की सी लार बुर के च्छेद से चू कर रह गयी और अगले पल पेशाब की धार निकलने
लगी. पेशाब करने के बाद सावित्री पिछले दिन की तरह ज़ोर लगाना बेकार समझी
क्योंकि बुर से वीर्य बाहर नही आ पा रहा था. उसके मन मे पंडित जी के वीर्य
से गर्भ ठहरने की बात उठते ही फिर से डर गयी और पेशाब कर के उठी और
ज्योन्हि सिटकिनी खोलकर बाहर आई तो उसकी नज़र पंडित जी पर पड़ी जो की चौकी
के बगल मे नंगे खड़े थे और सावित्री के बाहर आते ही वो भी शौचालय मे घूस
गये और हल्की पेशाब करने के बाद अपने लंड को धो कर बाहर आए. तबतक सावित्री
अपनी गीली चड्डी को पहन ली जो की उसे ठंढी और पंडित जी के वीर्य और बुर के
रस की गंध से भरी हुई थी.
पंडित जी अपने नीगोटा और धोती पहने के बाद
अपने कुर्ते मे से एक दवा के पत्ते को निकाला और अपनी सलवार को पहन रही
सावित्री से बोला "कपड़े पहन कर इस दवा के बारे मे जान लो" सावित्री की
नज़र उस दवा के पत्ते पर पड़ते ही उसकी सारी चिंता ख़त्म हो गयी थी. उसने
अपने ब्रा और समीज़ जो जल्दी से पहन कर दुपट्टे से अपनी दोनो हल्की हल्की
दुख रही चुचिओ को ढक कर पंडित जी के पास आ कर खड़ी हो गयी. पंडित जी ने दवा
को अपने हाथ मे लेकर सावित्री को बताया "तुम्हारी उम्र अब मर्द से मज़ा
लेने की हो गयी है इस लिए इन दवा और कुछ बातों को भी जानना ज़रूरी
है....यदि इन बातों पर ध्यान नही दोगि तो लेने के देने पड़ जाएँगे. सबसे
बहले इन गर्भ निरोधक गोलिओं के बारे मे जान लो....इसे क्यूँ खाना है और
कैसें खाना है.." आगे बोले "वैसे तुम्हारी जैसी ग़रीब लड़कियाँ बहुत दीनो
तक मर्दों से बच नही पाती हैं और शादी से पहले ही कोई ना कोई पटक कर चोद ही
देता है...मुझे तो बहुत अचरज हुआ कि तुम अब तक कैसे बच गयी अपने गाओं के
मर्दों से, और आख़िर तुमको मैने तो चोद ही दिया." फिर पंडित जी दवा के
पत्ते की ओर इशारा करते हुए सावित्री को दावा कैसे कैसे खाना है बताने लगे
और सावित्री पंडित जी की हर बात को ध्यान से सुन कर समझने लगी. आगे पंडित
जी बोले " जैसे जैसे बताया है वैसे ही दवा खाना लेकिन इस दवा के पत्ते पर
तुम्हारी मा की नज़र ना पड़े नही तो तेरे साथ साथ मैं भी पकड़ जाउन्गा, तुम
लड़कियो के साथ मज़ा लूटने मे यही डर ज़्यादे होता है क्योंकि तुम्हारी
उम्र की लड़कियाँ चुदाति तो हैं बहुत शौक से लेकिन पकड़ भी जाती हैं बहुत
जल्दी और बदनामी होते देर नही लगती. इस लिए तुम काफ़ी समझदारी से रहना. इस
दवा को घर मे कहीं ऐसे जगह रखना जहाँ किसी की नज़र ना पड़े" पंडित जी ने
दवा के पत्ते को सावित्री के तरफ बढ़ाया और सावित्री उसे अपने हाथ मे लेकर
ध्यान से देखने लगी. फिर पंडित जी बोले "इस दावा को हमेशा जैसे बताया है
वैसे ही खाना. कभी दवा खाने मे लापरवाही मत करना नही तो लक्ष्मी की तरह
तुम्हे भी बच्चा पैदा हो जाएगे...ठीक" इतना कहते हुए पंडित जी ने चौकी के
बगल मे खड़ी सावित्री के चूतड़ पर एक चटा मारा और एक चूतड़ को हाथ मे लेकर
कस के मसल दिया. सावित्री पूरी तरीके से झनझणा और लज़ा सी गयी. फिर
सावित्री दवा को समीज़ के छोटे जेब मे रख ली दुकान के हिस्से मे आ गयी.
सवीरी के उपर से बहुत बड़ी परेशानी हट गयी थी.अंधेरा होने से पहले सावित्री घर आ गयी. कई बार झाड़ जाने के वजह से बहुत
थक चुकी थी. घर आते ही घर के पिच्छवाड़े जा कर पेशाब करने के लिए जब चड्डी
नीचे की ओर खिसकाने के लिए ज्योन्हि झाड्दी पर हाथ लगाई तो देखा की चड्डी
मे जगह जगह कडपान हो गया था जो की चुदाई रस के पोछने के वजह से गीली हो गयी
थी और अब सुख कर ऐसा हो गयी थी. सावित्री को महसूस हुआ की अब पेशाब की धार
काफ़ी मोटी और तेज़ी से निकल कर ज़मीन पर टकरा रही थी. सावित्री का मन
मस्त हो गया. मूतने के बाद वापस चड्डी जब पहनने लगी तब चड्डी के सूखे
हिस्से को काफ़ी ध्यान से देखने लगी. उसपर सूखा हुआ चुदाई रस एकदम से कड़ा
हो गया था. जब सावित्री चड्डी को पहन कर उसके उपर के चुदाई रस को देख रही
थी तभी कुच्छ ही दूरी पर धन्नो चाची अपने घर के पिछे मूतने के लिए आई तो
देखी कि सावित्री चड्डी मे अपने घर के पिछे खड़ी हो कर मूतने के बाद चड्डी
के उपर कुच्छ ध्यान से देख रही थी और सलवार अभी पैरों मे ही थी. फिर धन्नो
ने भी कुच्छ ही दूरी पर अपने घर के पीछे मूतने के लिए बैठ गयी और सावित्री
की चड्डी पर नज़रें गाड़ा कर देखने लगी और धन्नो को ऐसा लगा कि चड्डी पर
कुछ भूरे रंग के दाग जगह जगह लगे हों. धन्नो के मन मे यह सवाल आते ही कि
आख़िर किस चीज़ की दाग और कैसे सावित्री के चड्डी मे लग गयी है. यही सोच कर
धन्नो अपना मूत की अंतिम धार को बुर से निकाल ही रही थी कि सावित्री की
नज़र चड्डी से हट कर कुछ ही दूरी पर बैठ कर मूत रही धन्नो चाची के उपर पड़ी
तो सकपका गयी और जल्दी से अपने सलवार को पैरों से उठा कर पहनने की कोशिस
करने लगी. धन्नो चाची का मुँह सावित्री के ओर ही था और जिस तरह से बैठ कर
मूत रही थे की धन्नो की झांतों से भरी बुर पर भी सावित्री की नज़र पड़ी.
वैसे धन्नो चाची अकसर अपने घर के पीचवाड़े मूतने के लिए आती और सारी और
पेटिकोट को कमर तक उठाकर मूतने लगती और धन्नो के बड़े बड़े चूतड़ और कभी
काले रंग की बुर सॉफ सॉफ दीख जाती थी. लेकिन सावित्री के लिए यदि कोई नयी
बात थी तो यह की धन्नो की नज़र उसके दाग लगी हुई चड्डी पर पड़ गयी थी. इसी
वजह से सावित्री एकदम से घबरा गयी और हड़बड़ाहट मे जब सलवार को पहनने लगी
तभी समीज़ के जेब मे रखी हुई दवा का पत्ता जेब से निकल कर ज़मीन पर गिर
पड़ा और उस दवा के पत्ते पर भी धन्नो चाची की नज़र पड़ ही गयी. आगे सलवार
का नाडा एक हाथ से पकड़े हुई सावित्री दूसरे हाथ से ज़मीन पर गिरे हुए दवा
के पत्ते को उठाई और वापस समीज़ के जेब मे रख ली और फिर सलवार के नाडे को
जल्दी जल्दी बाँधते हुए अपने घर के पिछवाड़े से आगे की ओर भाग आई. धन्नो
अपने घर के पीछे ही मूतने के बाद यह सब नज़ारा देख रही थी और सावित्री जब
तेज़ी से भाग गयी तब धन्नो के दिमाग़ मे शंका के शावाल उठने लगे. धन्नो यही
सोचते हुए अपने घर के पीचवाड़े से आगे की ओर आ गयी और घर अगाल बगल होने के
नाते जब सावित्री के घर की ओर देखी तो सावित्री अपने घर के अंदर चली गयी
थी. फिर भी धन्नो मूतने के बाद वापस आ कर अपने पैरों को पानी से धोते हुए
यही सोच रही थी की सावित्री जैसी शरीफ लड़की के चड्डी पर अजीब से दाग लगे
थे जिसे वह ऐसे देख रही थी मानो उसे पहले देखने का मौका ही ना मिला हो और
अभी तो बाज़ार के ओर से आई है तो दाग किसने और कहाँ लगा दिया. दूसरी बात की
जो दवा का पत्ता धन्नो ने देखा वह कोई और दवा का पत्ता की तरह नही बल्कि
एक गर्भ निरोधक पत्ते की तरह थी. यानी वह गर्भ रोकने की दवा ही थी. धन्नो
यही सोचते हुए फिर सावित्री के घर के ओर देखी तो सावित्री अंदर ही थी.
धन्नो के मन मे उठे सवाल बस एक ही तरफ इशारा कर रहे थे की सावित्री को गाओं
का हवा लग चुका है और अब सयानी होने का स्वाद ले रही है. आख़िर जितनी
तेज़ी से सावित्री उसकी नज़रों के सामने से भागी उससे पता चल जा रहा था की
सावित्री के मन मे चोर था. आख़िर धन्नो को अब विश्वास होने लगा की सावित्री
अब चुद चुकी है.
लेकिन अगला सवाल जो धन्नो के मन मे उभरा
की आख़िर कौन उसे चोद रहा है और कहाँ. गर्भ निरोधक दवा उसके पास होने का
मतलब सॉफ था कि चोदने वाला काफ़ी चालाक और समझदार है. क्योंकि सावित्री
इतनी शीधी और शर्मीले स्वभाव की थी कि खुद ऐसी दवा को कहीं से खरीद नही
सकती थी. लेकिन तभी जब धन्नो के मन मे यह बात आई की दवा का पत्ता क्यों
अपने पास रखी थी जब मूतने आई, और फिर जबाव ढूँढा तो पाया कि सावित्री तुरंत
ही बगल के कस्बे से आई थी और किसी ने कुच्छ दिन पहले बताया था कि सावित्री
आज कल बगल के कस्बे मे भोला पंडित के सौंदर्या के दुकान पर काम पकड़ ली
है. यानी कहीं भोला पंडित तो सावित्री की भरी जवानी का मज़ा तो नही लूट
रहें हैं? यही सोचते हुए धन्नो अपने घर के काम मे लग गई !इधेर सावित्री अपने घर के अंदर आने के बाद एक दम से घबरा चुकी थी. वैसे घर
के अंदर कोई नही था. मा सीता कहीं काम से गयी थी और छोटा भाई कहीं अगल बगल
गया था. सावित्री के मन मे यही डर समा गया था कि धन्नो चाची को कहीं शक ना
हो जाय नही तो गाँव मे ये बात फैल जाएगी. वैसे धन्नो चाची का घर सावित्री
के बगल मे ही था लेकिन उसकी मा सीता का धन्नो चाची के चालचलन के वजह से आपस
मे बात चीत नही होती थी. कुच्छ दिन पहले कुच्छ ऐसी ही बात को लेकर झगड़ा
भी हुआ था. वैसे धन्नो चाची अधेड़ उम्र की हो चुकी थी और गाओं के चुदैल
औरतों मे उसका नाम आता था. धन्नो का पति कहीं बाहर जा कर कमाता ख़ाता था.
कुच्छ शराबी किस्म का भी था. और जो कुछ पैसा बचाता धन्नो को भेज देता था.
धन्नो भी गाओं मे कई मर्दों से फँस चुकी थी और लगभग हर उम्र के लोग चोद्ते
थे. धन्नो की एक लड़की थी जिसकी उम्र 22 साल के करीब थी. जिसका नाम मुसम्मि
था. मुसम्मि की शादी करीब चार साल पहले हुआ था लेकिन शादी के पहले ही कई
साल तक चुदैल धन्नो की बेटी मुसम्मि को गाओं के आवारों और धन्नो के कुच्छ
चोदु यारों ने इतनी जोरदार चुदाइ कर दी की मुसम्मि भी एक अच्छी ख़ासी चुदैल
निकल गयी और शादी के कुच्छ महीनो के बाद ही ससुराल से भाग आई और फिर से
गाओं के कई लुंडों के बीच मज़ा लेने लगी. इसी कारण से सावित्री की मा सीता
धन्नो और उसके परिवार से काफ़ी दूरी बनाकर रहती थी. वैसे सावित्री कभी कभार
अपनी मा के गैरमौज़ूदगी मे मुसम्मि से कुच्छ इधेर उधेर की बाते कर लेती
थी.
लेकिन आम तौर पर दोनो परिवार आपस मे कोई
बात चीत नही करते थे. इस तरह के दो परिवार के झगड़े और तनाव भरे माहौल मे
सावित्री का डर और ज़्यादा हो गया की कहीं धन्नो चाची पूरे गाओं मे शोर ना
मचा दे नही तो वह बर्बाद हो जाएगी. सावित्री को ऐसा लगने लगा कि उसकी पूरी
इज़्ज़त अब धन्नो चाची के हाथ मे ही है. उसे यह भी डर था कि यह बात यदि
उसकी मा सीता तक पहुँचेगी तब क्या होगा. घबराई हालत मे सावित्री अपने घर के
अंदर इधेर उधेर टहल रही थी और साँसे तेज चल रही थी. अब अंधेरा शुरू होने
लगा थे की उसकी मा और भाई दोनो आते हुए नज़र आए. तभी सावित्री तेज़ी से दवा
के पत्ते को घर के कोने मे कुछ रखे सामानो के बीच च्छूपा दी. लेकिन उसके
दिमाग़ मे धन्नो चाची का ही चेहरा घूम रहा था. उसके मन मे यह भी था की यदि
धन्नो चाची मिले तो वह उसका पैर पकड़ कर रो लेगी की उसकी इज़्ज़त उसके हाथ
मे है और अपनी बेटी समझ कर जो भी देखी या समझी है उसे राज ही रहने दे.
लेकिन दोनो परिवारों के बीच किसी तरह की बात चीत ना होने के वजह से ऐसे भी
कोशिस मुश्किल लग रही थी.
यह सब सोच ही रही थी कि उसकी मा घर के
अंदर गयी और मा बेटी दोनो घर के कामकाज मे लग गयी. लेकिन उसका मन काफ़ी
बेचैन था. सावित्री को ऐसा लगता मानो थोड़ी देर मे उसकी ये सब बातें पूरा
गाओं ही जान जाएगा और ऐसी सोच उसकी पसीना निकाल देती थी. सावित्री के मन मे
बहुत सारी बातें एक साथ दौड़ने लगीं और आखीर एक हाल उसे समझ मे आया जो
काफ़ी डरावना भी था. यह कि सावित्री धन्नो चाची का पैर पकड़ कर गिड़गिडाए
की उसे वह बचा ले. लेकिन इसमे यह दिक्कत थी कि ऐसी बात जल्दी से जल्दी
धन्नो चाची से कहा जाय ताकि धन्नो चाची किसी से कह ना दे. और दूसरी बात यह
की ऐसी बात अकेले मे ही कहना ठीक होगा. तीसरी बात की यह की सावित्री की
विनती धन्नो चाची मान ले. यही सब सोच ही रही थी कि उसके दिमाग़ मे एक आशा
की लहर दौड़ गयी. उसे मन मे एक बढ़िया तज़ुर्बा आया की जब धन्नो चाची रात
मे दुबारा पेशाब करने अपने घर के पीच्छवाड़े जाएगी तब वह उसका पैर पकड़ कर
गिड़गिदा लेगी. उसे विश्वाश था कि धन्नो चाची उसकी विनती सुन लेंगी और
उन्होने जो भी देखा उसे किसी से नही कहेंगी. दूसरी तरफ सावित्री यह भी देख
रही थी की धन्नो चाची कहीं गाओं मे तो नही जा रहीं नही तो बात जल्दी ही खुल
जाएगी. इसी वजह से सावित्री के नज़रें चोरी से धन्नो चाची के घर के तरफ
लगी रहती थी.
लेकिन काफ़ी देर तक धन्नो चाची अपने घर से
बाहर कही नही गयी तब सावित्री को काफ़ी राहत हुई. फिर भी डर तो बना ही था
की धन्नो चाची किसी ना तो किसी से तो कह ही डालेगी और बदनामी शुरू हो
जाएगी. यही सब सोच सोच कर सावित्री का मन बहुत ही भयभीत हो रहा था.
सावित्री की मा और भाई दोनो रात का खाना खा कर सोने की तैयारी मे थे. अब
करीब रात के दस बजने वाले थे. और दिन भर की थके होने के वजह से सभी को तेज
नीद लग रही थी और तीनो बिस्तर बार लेट कर सोने लगे लेकिन सावित्री लेटी हुई
यही सोच रही थी कि कब उसकी मा और भाई सो जाए कि वह घर के पीच्छवाड़े जा कर
धन्नो चाची का इंतज़ार करे और मिलते ही पैर पकड़ कर इज़्ज़त की भीख माँग
ले. थोड़ी देर बाद सीता को गहरी नीद लग गयी और भाई भी सो गया. तब धीरे से
सावित्री बिस्तर से निकल कर बहुत धीरे से सिटाकनी और दरवाज़ा खोल कर बाहर
आई और फिर दरवाज़े के पल्ले को वैसे ही आपस मे सटा दी. पैर दबा दबा कर अपने
घर के पीच्छवाड़े जा कर पेशाब की और फिर धन्नो चाची का इंतज़ार करने लगी.
अब रात के ईगयरह बजने वाले था और पूरा गाओं सो चुका था. चारो तरफ अंधेरा ही
अंधेरा था. सावित्री के घर के ठीक पीच्छवाड़े एक बड़ा बगीचा था जिसमे एकदम
सन्नाटा पसरा हुआ था और अंधेरे मे कुच्छ भी नही दीखाई दे रहा था. फिर भी
सावित्री धन्नो चाची का इंतज़ार करने लगी की वह अपने घर के पीच्छवाड़े
मूतने तो आएगी. लेकिन काफ़ी देर हो गया और धन्नो चाची मुताने नही आई. इससे
सावित्री की परेशानी बढ़ती चली गयी. सावित्री अब बेचैन होने लगी. अंधेरे मे
करीब भी दीखाई नही दे रहा था. बस कुच्छ फीट की दूरी तक ही देखा जा सकता था
वह भी सॉफ सॉफ नही. सावित्री के नज़रें धन्नो चाची के घर के पीछे ही लगी
थी. तभी उसे याद आया कि कहीं उसकी मा जाग ना जाय नही तो उसे बिस्तर मे नही
पाएगी तब उसे रात मे ही खोजने आएगी और यदि घर के पीच्छवाड़े खड़ी देखेगी तो
क्या जबाव देगी. ऐसा सोच कर सावित्री वापस अपने घर के दरवाज़े को हल्का सा
खोलकर अंदर का जयजा लेने लगी और उसकी मा और भाई दोनो ही बहुत गहरी नीद मे
सो रहे थे मानो इतनी जल्दी उठने वाले नही थे.सावित्री दुबारा दवाज़े के पल्ले को आपस मे धीरे से चिपका दी और फिर अपने
घर के पीच्छवाड़े धन्नो चाची का इंतज़ार करने लगी. वह रात मे धन्नो चाची के
घर भी जाने की सोच तो रही थी लेकिन धन्नो चाची के घर उसके अलावा उसकी बेटी
मुसम्मि भी थी और ऐसे मे जाना ठीक नही था. वैसे सावित्री ने सोचा की अब
इतनी रात को धन्नो चाची तो सो गयी होगी क्योंकि वह पेशाब करने तो सोने के
पहले ही आई होगी. अब तो काफ़ी देर हो गयी है. लेकिन बात फैलने का भय इतना
ज़्यादा था की सावित्री धन्नो चाची का इंतज़ार करना ही बेहतर समझी. और अपने
घर के पीच्छवाड़े इतेर उधेर टहलने लगी और धन्नो चाची का इंतज़ार करने लगी.
लेकिन जब घंटों बीत गये लेकिन धन्नो चाची पेशाब करने घर के पीचवाड़े नही
आई और सावित्री भी काफ़ी थॅकी होने के नाते वापस घर मे चली गयी और सो गयी.
सुबह उसकी मा ने सावित्री को जगाया. काफ़ी गहरे नीद मे सोने के बाद जब
सावित्री उठी तब थकान मीट चुकी थी और अब काफ़ी हल्की भी महसूस कर रही थी.
जब उसे पीच्छली दिन वाली घटना याद आई तब फिर से परेशान हो उठी. लेकिन काफ़ी
बेबस थी. इस वजह से सुबह के काम मे व्यस्त हो गयी और दुकान जाने की तैयारी
मे भी लग गयी. इधेर धन्नो ने जब दवा के पत्ते और चड्डी पर लगे दाग को
देखकर यह समझ गयी की सावित्री को भी अब मर्द की कीमत समझ मे आ गयी है. तब
उसके मन मे जलन के बजाय एक रंगीन आशा की लहर दौड़ गयी. धन्नो यह जानती है
की 18 साल के करीब सावित्री की मांसल और गद्राइ जवानी को पाने के लिए हर
उम्र के लंड पीचछा करेंगे. और अब मर्द का स्वाद पा जाने के बाद सावित्री को
भी मर्दो की ऐसी हरकत बहुत बुरा नही लगेगी लेकिन सीधी साधी और लज़धुर
स्वभाव के वजह से शायद उतना मज़ा नही लूट पाएगी. और ऐसे मे यदि धन्नो खूद
उससे दोस्ती कर ले तो सावित्री के पीछे पड़ने वाले मर्दों मे से कई को
धन्नो अपने लिए फँसने का मौका भी मिल जाएगा. और 44 साल के उम्र मे भी धन्नो
को कई नये उम्र के लड़को से चुड़ाने का मौका मिल जाएगा. यही सोच कर धन्नो
का मन खुश और रंगीन हो गया.
शायद इसी वजह से धन्नो सावित्री की चड्डी
के दाग और दवा के पत्ते वाली बात किसी से कहना उचित नही समझी और सावित्री
से एक अच्छा संबंध बनाने के ज़रूरत महसूस की. सावित्री अपने घर के काम मे
व्यस्त थी क्योंकि अब दुकान जाने का भी समय नज़दीक आ रहा था. लेकिन पीच्छली
दिन वाली बात को सोचकर घबरा सी जाती और धन्नो चाची के घर के तरफ देखने लगी
और अचानक धन्नो चाची को देखी जो की सावित्री के तरफ देखते हुए हल्की सी
मुस्कुरा दी. ऐसा देखते ही सावित्री के होश उड़ गये. जबाव मे उसने अपनी
नज़रें झुका ली और धन्नो चाची अपने घर के काम मे लग गयी. सावित्री भी अपने
घर के अंदर आ कर दुकान जाने के लिए कपड़े बदलने लगी. वैसे सुबह ही सावित्री
नहा धो ली थी और वीर्य और चुदाई रस लगे चड्डी को भी सॉफ कर दी थी.
सावित्री तैयार हो कर दुकान के तरफ चल दी. उसके मान मे धन्नो चाची का
मुस्कुराना कुच्छ अजीब सा लग रहा था. वैसे दोनो घरों के बीच आपस मे कोई बात
चीत नही होती थी और सावित्री कभी कभार अपनी मा के अनुपस्थिति मे धन्नो की
बेटी मुसम्मि जिसको सावित्री दीदी कहती , से बात कर लेती वह भी थोडा बहुत.
लेकिन धन्नो चाची से कोई बात नही होती और आज सावित्री के ओर देख कर
मुस्कुराना सावित्री को कुच्छ हैरत मे डाल दिया था. सावित्री कस्बे की ओर
चलते हुए धन्नो चाची के मुस्कुराने के भाव को समझने की कोशिस कर रही थी.
उसे लगा मानो वह एक दोस्ताना मुस्कुराहट थी और शायद धन्नो चाची सावित्री को
चिडना नही बल्कि दोस्ती करना चाहती हों. ऐसा महसूस होते ही सावित्री को
काफ़ी राहत सी महसूस हुई. कुच्छ देर बाद खंडहर आ गया और हर दिन की तरह आज
भी कुछ आवारे खंदार के इर्द गिर्द मद्रा रहे थे. सावित्री को अंदेशा था की
उसको अकेले देख कर ज़रूर कोई अश्लील बात बोलेंगे. मन मे ऐसा सोच कर थोड़ा
डर ज़रूर लगता था लेकिन लुक्ष्मी चाची ने जैसा बताया था की ये आवारे बस
गंदी बात बोलते भर हैं और इससे ज़्यादा कुच्छ करेंगे नही, बस इनका जबाव
देना ठीक नही होता और चुपचाप अपने रश्ते पर चलते रहना ही ठीक होता है. यही
सोच कर सावित्री अपना मन मजबूत करते हुए रश्ते पर चल रही थी. उसे ऐसा लगा
की आवारे ज़रूर कुच्छ ना तो कुच्छ ज़रूर बोलेंगे. तभी सावित्री ने देखा की
एक आवारे ने आगे वाले रश्ते पर अपनी लूँगी से लंड निकाल कर खंडहर की दीवार
पर मूत रहा था और उसका काला लंड लगभग खग खड़ा ही था.
उस आवारे की नज़र कुच्छ दूर पर खड़े एक
दूसरे आवारे पर थी और दोनो एक दूसरे को देख कर मुस्कुरा रहे थे. वी दोनो
देख रहे थे की रश्ते पर चल रही सावित्री को मुतता हुआ लंड दीख ही जाएगा.
सावित्री का मन घबराहट से भर गया. वह जिस रश्ते पर चल रही थी उसी रश्ते के
एक किनारे पर खड़ा होकर लूँगी ले लंड निकाल पर मूत रहा था. लंड अपनी पूरी
लूंबाई तक बाहर निकला हुआ था. सावित्री एक पल के लिए सोची की आख़िर कैसे उस
रश्ते पर आगे जाए. और आख़िर डर के मारे वह रुक गयी और अपनी नज़रें झुकाते
हुए दूसरी ओर मूड कर खड़ी हो गयी और सोची की थोड़ी देर मे जब वह आवारा मूत
कर रश्ते के किनारे से हट जाएगा तब वह जाएगी. कुछ पल इंतजार के बाद फिर
थोड़ी से पलट कर देखी तो दोनो आवारे वहाँ नही थे और खंडहर के अंदर हंसते
हुए चले गये. फिर सावित्री चलना शुरू कर दी. रश्ते के एक किनारे जहाँ वह
आवारा पेशाब किया था, सावित्री की नज़र अनायास ही चली गयी तो देखा की उसके
पेशाब से खंडहर की दीवार के साथ साथ रश्ते का किनारा भी भीग चुका था. अभी
नज़र हटाई ही नही थी की उसके कान मे खंडहर के अंदर से एक आवारे की आवाज़ आई
"बड़ा मज़ा आएगा रानी....बस एक बार गाड़ी लड़ जाने दो....किसी को कुच्छ भी
नही पता चलेगा...हम लोग इज़्ज़त का भी ख़याल रखते है...कोई परेशानी नही
होगी सब मेरे पर छोड़ देना" यह कहते ही दोनो लगभग हंस दिए और खंडहर मे
काफ़ी अंदर की ओर चले गये. सावित्री अब कुच्छ तेज कदमों से दुकान पर
पहुँची. उसे कुच्छ पसीना हो गया था लेकिन उन आवारों की बात से झनझणा उठी
सावित्री की बुर मे भी एक हल्की सी चुनचुनी उठ गयी थी और उसके कान मे गाड़ी
लड़ जाने वाली बात अच्छी तरह समझ आ रही थी. वी आवारे चोदने का इशारा कर
रहे थे. शायद इसी वजह से जवान सावित्री की बुर कुछ पनिया भी गयी थी.दुकान पर पहुचने के बाद सावित्री काफ़ी राहत महसूस की. मन मे उन आवारों को
गलियाँ भी दी. और फिर दुकान मे बैठ कर रोज़ की तरह कुच्छ बेच्वाली भी की.
फिर दोपहर हो गया और दुकान को पंडित जी बंद कर के पीछे वाले कमरे मे आ गये
और सावित्री भी अपनी चटाई ले कर दुकान वाले हिस्से मे चली गयी. दोपहर होते
ही सावित्री के बुर मे खुजली होने लगी. चटाई मे लेटे लेटे अपनी सलवार के
उपर से ही बुर को सहलाया और खुजलाया. मन मस्ती से भर गया. रात मे ज़्यादे
ना सो पाने के वजह से उसे भी नीद लग गयी. पंडित जी करीब एक घंटे आराम करने
के बाद उठे और पेशाब करने के बाद सावित्री को हल्की आवाज़ दी लेकिन
सावित्री को नीद मे होने के वजह से सोई रह गयी. दुबारा पंडित जी ने तेज
आवाज़ लगाई तब सावित्री की नीद खुली और हड़बड़ा कर उठी और अपने दुपट्टे को
अपनी चुचिओ पर ठीक करते हुए दुकान के अंदर वाले हिस्से मे आई तो देखी की
पंडित जी चौकी पर बैठे उसे घूर रहे थे. पंडित जी ने कहा "रात मे सोई नही थी
क्या...जा मूत कर आ " सावित्री कुच्छ पल वैसे ही खड़ी रही फिर पेशाब करने
चली गयी. सवत्री की बुर मे भी खुजली अब तेज हो गयी थी. लंड का स्वाद मिल
जाने की वजह से अब उसे चुड़ाने की इच्छा काफ़ी ज़्यादा हो गयी थी.पेशाब करने के बाद सावित्री चटाई को पिच्छले दिन की तरह चौकी के बगल मे
बिच्छा दी और खड़ी हो कर नज़रें झुका ली. पंडित जी ने उसकी ओर देखते हुए
मुस्कुराया और बोले "आज मैं तुमको चटाई पर नही बल्कि अपनी चौकी पर
चोदुन्गा....अब तेरे साथ मैं कोई उँछ नीच या बड़े छ्होटे का भेदभाव नही
करूँगा...." फिर आगे बोले "अरे मैं क्या बड़े बड़े महात्मा तुम्हारी जवानी
के सामने घुटने टेक देंगे....सच सावित्री तुम बहुत गरम हो" इतना कह कर
सावित्री को अपने चौकी पर लगे बिस्तर पर आने का इशारा किया. सावित्री के
कान मे ऐसी बात पड़ते ही उसे विश्वास नही हो रहा था. उसकी बुर मे खुजली अब
धीरे धीरे तेज हो रही थी लेकिन पंडित जी से इतना सम्मान पा कर उसका मन झूम
उठा. उसे फिर याद आया की उसकी बुर की कितनी कीमत है. पंडित जी सावित्री का
बाँह पकड़ कर चौकी पर खेंच लिए और सावित्री भी चौकी पर चढ़ कर बैठ गयी अगले
पल पंडित जी सावित्री को लेटा कर उसके उपर चढ़ गये और अपने नीचे दबा दिया.
धोती के उपर से ही लंड का दबाव सावित्री के सलवार पर पड़ने लगा और पंडित
जी समीज़ के उपर से ही सावित्री की बड़ी बड़ी चुचिओ से खेलने लगे.थोड़ी देर मे दोनो एकदम नंगे हो गये और पंडित जी रोज़ की तरह सावित्री की
झांतों से भरी बुर को जम कर चटा और सावित्री भी उनके लंड को मन लगाकर चूसी.
सावित्री चुदने के लिए काफ़ी बेताब थी. वह बार बार पंडित जी के लंड को बुर
मे लेने के लिए इशारा कर रही थी. पंडित जी भी सही मौका देख कर लंड को बुर
के मुँह पर लगाकर चॅंप दिया और लंड करीब आधा अंदर घूसा ही था की दुकान के
दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी. पंडित जी के कान मे दोपहर के समय दुकान पर
किसी के दस्तक की आवाज़ सुनते ही चौंक से गये और लंड को सावित्री के बुर मे
डाले वैसे ही पड़े रहे. तभी दुबारा दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ आई. पंडित जी
को बहुत गुस्सा आया और लंड को सावित्री के बुर से खींच कर बाहर निकाले तो
सावित्री को भी अच्छा नही लगा. अचानक दोपहर मे किसी के आ जाने से सावित्री
भी डर सी गयी और चौकी पर से उतर कर अपने कपड़े पहनने के लिए लपकी तो पंडित
जी ने सावित्री से काफ़ी धीरे से कहा "कपड़े मत पहन ऐसे ही रह मैं उसको
दुकान के बाहर से ही वापस कर दूँगा लगता है कोई परिचित ग्राहक है. उसके
जाते ही मज़ा लिया जाएगा" पंडित जी एक तौलिया लपेट कर दुकान वाले हिस्से मे
आ गये और बीच के पर्दे को ठीक कर दिया ताकि दुकान का दरवाज़ा खुलने पर
दुकान के अंदर वाले हिस्से मे दिखाई ना दे जिसमे चौकी पर सावित्री एकदम
नंगी ही बैठ कर पंडित जी को दुकान के दवाज़े के ओर जाते हुए देख कर समझने
की कोशिस कर रही थी कि आख़िर दोपहर मे कौन आ गया है. और इतना करने मे पंडित
जी का खड़ा लंड अब सिकुड़ने लगा था और तौलिया के उपर से अब मालूम नही दे
रहा था.पंडित जी यही सोच कर एक तौलिया लपेटे हुए दुकान के दरवाजे को धीरे से खोलकर
देखना चाहा कि बाहर कौन दस्तक दे रहा है. लेकिन उनकी नज़र उस इंसान पर
पड़ते ही पंडित जी को मानो लकवा मार दिया. वो और कोई नही बल्कि पंडित जी की
धर्मपत्नी थी जो बड़ी बड़ी आँखे निकाल कर पंडित जी को खा जाने की नियत से
घूर रही थी. पंडित जी के गले से एक भी शब्द निकल नही पाया और पंडिताइन ने
पंडित जी को लगभग धकेलते हुए काफ़ी तेज़ी से दुकान के अंदर आई और अगले पल
दुकान के अंदर वाले कमरे जिसमे सावित्री एकदम ही नंगी बैठ कर पर्दे की ओर
ही देख रही थी कि आख़िर कौन आया है. पंडिताइन ने पर्दे को हटाते ही
सावित्री को एकदम नंगे देख उनका गुस्सा आसमान पर चढ़ गया. इधेर एक दम से
अवाक हो चुके पंडित जी ने दुकान का दरवाज़ा बंद कर के तुरंत पंडिताइन के
पीछे पीछे अंदर वाले हिस्से मे आ गये पंडिताइन को देखते ही सावित्री को
साँप सूंघ गया. पंडिताइन करीब 43 साल की एक गोरे रंग की करीब छोटे कद की
औरत थी. और उन्हे मालूम था कि उनका पति भोला पंडित मौका देख कर बाहरी औरतों
से बहुत मज़ा लूटते हैं. और नई लड़की के दुकान पर आने की खबर उन्हे लग
चुकी थी और इसी चक्कर मे वह ठीक दोपहर के समय दुकान पर आ धमकी थी
सावित्री पंडिताइन को देखते ही चौकी पर से कूद कर चटाई पर पड़े अपने कपड़ों
की ओर लपकी लेकिन पंडिताईएन उन कपड़ों पर ही पैर रख कर खड़ी थी और कपड़े
ना मिल पाने के वजह से सावित्री ने एक हाथ से अपनी दोनो चुचियाँ और दूसरे
हाथ से अपनी झांतों से भरी बुर को धक लिया और आँखें झुका कर खड़ी हो गयी.
कमरे मे एकदम सन्नाटा था पंडित जी भी कुच्छ नही बोल रहे थे. पंडिताइन
गुस्से के वजह से आँखें निकाल कर कभी सावित्री के नंगे शरीर को देखती तो
कभी पंडित जी की ओर देखती और हाँफ भी रही थी. अगले पल पंडिताइन चिल्ला पड़ी
"तू कभी नही सुधरेगा.....रे....कुत्ता...मेरी को पूरी जिंदगी बर्बाद कर दू
हरामी कहीं का.......हे भगवान मेरी तकदीर मे यही सब देखने को लिखा
है....इस कुत्ते से कब नीज़ात मिलेगा भगवान..." इतना कह कर पंडिताइन रो
पड़ी और और अपने दोनो हाथों से अपने चेहरे को ढक ली. कमरे मे पंडित जी और
सावित्री दोनो एक दम शांत अपनी अपनी जगह पर खड़े थे. कमरे मे केवल पंडिताइन
के रोने की आवाज़ आ रही थी पंडिताइन ने फिर कुच्छ सोचा और रोना कम करते
हुए सावित्री के नंगे शरीर पर आँखे लाल लाल कर के देखी और सावित्री से
पुच्हीं "अरी रंडी हरजाई बुर्चोदि तेरा क्या नाम है रे जो लंड के लिए यहाँ
डेरा डाल ली है....किस रंडी की बुर से पैदा हुई है तू भोसड़ी कही
की....तेरी बुर मे कीड़ा पड़ जाए जो तू इन बुढ्ढो का लंड लील रही
है....बोल..." अब पंडिताईएन की आवाज़ तेज होने लगी और उनका शरीर भी गुस्से
से काँपने लगा. सावित्री को मानो बिजली मार दी है और शरीर मे जान ही ना रह
गयी हो. पंडिताईएन की आवाज़ और गाली कान मे पड़ते ही सावित्री एक दम से
कांप गयी. पंडित जी भी अपनी पत्नी के ठीक पीछे चुपचाप खड़े थे और उन्हे भी
अब कुच्छ बोलने की हिम्मत नही रह गयी थी. जब पंडिताइन ने गंदी गलिओं की
बौच्हर कर दी तब सावित्री की घबराहट और बढ़ गयी लेकिन दूसरे पल पंडिताईएन
ने सावित्री के मुँह पर एक जोरदार चॅटा जड़ दी. चाँते की आवाज़ पूरे कमरे
मे गूँज उठी. सावित्री चाते का दर्द को कम करने के लिए चुचिओ पर का हाथ गाल
पर ले जा कर सहलाने लगी. लेकिन पंडित जी ने कुच्छ भी नही बोले बल्कि
पंडिताईएन का आक्रामक तेवर देखकर वो भी डर से गये. पंडिताइन ने अपने साड़ी
के पल्लू को अपने कंधे से घुमाकर कमर मे खोस ली मानो कोई काम करने जा रही
हों. सावित्री ऐसा देख कर समझ गयी कि पंडिताइन अब उसे बहुत मार मारेंगी. और
वो भी डर के वजह से रोने लगी. फिर भी पंडितानी का आक्रामक तेवर मे कोई
बदलाव नही आया और सावित्री पर टूट पड़ी. सावित्री के काले और लंबे बॉल को
पकड़ कर काफ़ी ज़ोर से हिलाया की सावित्री दर्द के मारे चिल्ला उठी "आरी
एम्मी म्*मैइ बाअप हो राम रे माई......" और पंडिताइन ने थप्पाड़ों को बरसात
कर दी. सावित्री एक दम नगी होने के वजह से थप्पड़ काफ़ी तेज लग रहे थे. और
पंडिताइन ने गुस्से मे सावित्री के बॉल को इतनी ज़ोर से झकझोरा की नंगी
सावित्री का पैर फिसला और चटाई पर गिर पड़ी. संयोग ठीक था की कहीं चोट नही
आई लेकिन गिरने के बाद सावित्री का काला और बड़ा चूतड़ पंडिताइन के सामने
दिखा और पंडिताइन ने उन दोनो चूतदों पर लातों से हमला बोल दिया. चूतड़
काफ़ी मांसल होने के नाते सावित्री को कोई बहुत चोट नही महसूस हो रही थी.
और काले काले चूतदों पर लातों को मारते हुए पंडिताइन ने गुस्से मे गलियाँ
बकने लेगीं "साली रंडी ...भैंस की तरह चूतड़ ली है और मोटा लंड खोजते इस
दुकान तक आ पहुँची... तेरे को और कहीं लंड नही मिला रे हरजाई जो तू मेरा घर
बर्बाद करने आ गई....तेरे को दुनिया मे लंड ही नही मिला ......भगवान तेरी
बुर मे कितना आग लगा दी है रे जो तू इन बुढ्ढों को भी नहीं बक्ष रही
है....तेरी बुर मे गधे का लंड पेल्वा दूं....बुर्चोदि..."पंडिताइन से पीटते हुए सावित्री ने पाड़ित जी की ओर देखी जो चुपचाप खड़े थे
और अपनी नज़रे दूसरी ओर फेर लिए. सावित्री समझ गयी की पंडित जी अपनी पत्नी
से डर गये हैं और उसकी पिटाई ख़त्म ही नही होगी और सावित्री भी पीटते और
गाली सुनते हुए काफ़ी गुस्से से भर गयी और अब बर्दाश्त करना मुश्किल हो
गया. तभी सावित्री के चूतादो वाला लात अब पीठ और चुचिओ पर पड़ने लगा. जो की
सावित्री के लिए बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया और पंडिताइन जिस लात से
चटाई मे गिर पड़ी सावित्री को मार रहीं थी, उसे सावित्री ने अपने हाथ से कस
कर पकड़ कर अपनी ओर खींच दिया और पंडिताइन लड़खड़ा कर फर्श पर गिर पड़ी और
वापस उठ कर सावित्री पर हमला करना चाहीँ की सावित्री पंडिताइन के उपर चढ़
गयी और उनके बॉल पकड़ ली और जबाव मे पंडिताइन ने भी सावित्री के बॉल पकड़
कर नोचने लगी. अब दोनो एक दूसरे से लगभग लिपट कर बाजने लगे और सावित्री का
एकदम नंगा और मांसल गड्राया शरीर अब पंडिताइन पर भारी पड़ने लगी थी.
सावित्री पंडिताईएन को मारना नही चाहती थी लेकिन जब वह पंडिताइन के उपर से
हटना चाहती की पंडिताइन को मौका मिलता और सावित्री को मारना शुरू कर देती.
सावित्री मार खाते ही फिर पंडिताईएन को फर्श पर पटकते हुए दबोच लेती और
जबाव मे वह भी थप्पड़ चला देती. अब सावित्री खुल कर पंडिताईएन से बाजने लगी
और अपने जीवन मे पहली बार किसी को पीट रही थी. आख़िर जब सावित्री डर को मन
से निकाल कर खुल कर पंडिताईएन से भिड़ गयी तब 43 साल की पंडिताइन 18 साल
की मांसल और मोटी ताजी सावित्री के पिटाई से मैदान छोड़ कर भागने लगी.
लेकिन सावित्री को ज्योन्ी अपनी ताक़त का
अहसास हुआ की वह एक शेरनी की तरह पंडिताइन पर टूट पड़ी. पंडित जी सावित्री
को पंडिताइन पर भारी पड़ते देख अंदर ही अंदर काफ़ी खुश हो गये और खुद दुकान
वाले हिस्से मे आकर पर्दे के आड़ से पंडिताइन को पीटते देखने लगे.
सावित्री ने देखा की पंडित जी अब पर्दे की आड़ से पंडिताइन को पीटता देख
रहे हैं तब समझ गयी की उनको ये देखना पसंद है और पंडिताइन पर पिटाई और तेज
कर दी. कभी बॉल नोचती तो कभी पंडिताइन की कमर और चूतदों पर लात से मारती.
और सावित्री उच्छल उछल कर पंडिताइन को मारती तब उसकी दोनो चुचियाँ और काले
काले चूतड़ खूब हिलते जो पंडित जी पर्दे के आड़ से देख कर मस्त हो जाते.
जवान और मांसल सावित्री से पंडिताइन का पिटना पंडित जी को पसंद था. वह
चाहते थे कि इसकी पिटाई से पंडिताइन का बढ़ा हुआ हिम्मत पस्त हो जाए. वैसे
वह खुद पंडिताइन से सीधे झगड़ा करना नही चाहते थे इसी कारण वह सावित्री को
मना नही कर रहे थे. सावित्री की आँखें लाल हो चुकी थी पंडिताइन को लगा कि
सावित्री अब जान ले लेगी तब गिड़गिडाना सुरू कर दी "आरे तुम मेरी बेटी की
तरह हो ....अरे मत मारो...मैं मार जाउन्गि ...इसमे तो पंडित जी का ही कसूर
है...मुझे जाने दो...मैं अब यहाँ से जा रही हूँ ....मुझे जाने दो.."
सावित्री का भी गुस्सा अब काफ़ी तेज हो गया था और गलिया दे डाली "अब तू
बेटी कह रही हो बुर चोदि ...हरजाई ...मैं अब डरने वाली नही" फिर पंडिताइन
का बॉल पकड़ कर खड़ा कर दी और दुकान के तरफ धकेलते हुए सावित्री बोली "भाग
जा यहाँ से रंडी ..नहीं तो मैं जान ले लूँगी" पंडिताइन ज्योन्हि दुकान वाले
हिस्से मे जाने लगी कि सावित्री ने एक लात पंडिताइन के कमर पे मारी और
पंडिताइन दुकान मे ही पंडित जी के सामने गिर पड़ी लेकिन पंडित जी कुच्छ
सोचते की उसके पहले ही पंडिताइन अपने ही उठ खड़ी हुई और तेज़ी से दुकान का
दरवाज़ा खोली और सीधे अपने घर की ओर भाग खड़ी हुई.
पंडित जी ने देखा की पंडिताइन का हिम्मत
अब जबाव दे गया था और वह आँखों से ओझल हो चुकी थी. उन्होने दुकान का
दरवाज़ा बंद किया और अंदर वाले हिस्से मे आए तो देखा की सावित्री लगभग हाँफ
रही थी और अपने कपड़े पहनने जा रही थी. पंडित जी ने सावित्री का हाथ
पकड़ते हुए कहा "अरे तुम तो बहुत बहादुर निकली...किस चक्की का आटा खाती है
....मैं जिस औरत से पूरी जिंदगी डरता रहा उसे तुमने सेकोंडों मे धूल चटा कर
भगा दिया....साली मधेर्चोद को...बहुत अच्छा किया तुमने...बहुत क़ानून
बोलती है...सारा क़ानून उसकी गांद मे चला गया" सावित्री ने कुच्छ सोचकर
बोली "वो भी तो मुझे कितना मार मारी आप तो बस देख रहे थे उसे मना नही
किया?" सावित्री के इस बात को सुनकर पंडित जी बोले "अरे अपनी पत्नी से बड़े
बड़े लोग डरते हैं...मैं क्या चीज़ हूँ..लेकिन तुमने जो कुच्छ किया मैं
बहुत खुश हूँ...." और पंडित जी आगे बढ़ कर सावित्री के नंगे बदन से लिपट
गये. फिर बोले "पंडिताइन ने तुम्हे थप्पड़ और लात से पिटा तो मैं क्यों
पीच्चे रहूं मैं भी तो तुम्हे पिटूँगा...." इतना सुन कर सावित्री सन्न रह
गयी. लेकिन पंडित जी ने आगे बोला "अरे मैं तुम्हारी पिटाई आज इस मोटे लंड
से करूँगा !!!
पंडित जी ने तौलिया को कमर से अलग कर
सावित्री को गोद मे लेते हुए चौकी पर आ गये. उनका लंड सिकुड चुका था.
उन्होने सावित्री के साँवले और कुच्छ मुन्हान्सो से भरे गाल को चूमना सुरू
कर दिया. हाथों से चुचिओ को भी मीज़ना सुरू कर दिया और थोड़ी देर मे दोनो
गरम हो गये. फिर पंडित जी ने सावित्री को घोड़ी बनाकर खूब मन से चोदा. अंत
मे वीर्य को बुर के अंदर ही धकेल दिया. और पिच्छले दिन की तरह फिर सावित्री
की चड्डी मे लंड को पोंच्छा और सावित्री को उसी चड्डी को पहनना पड़ा.
सावित्री इस बात का विरोध करना चाहती थी लेकिन चुप ही रहना उचित समझी.दोनो
तृप्त हो गये तब पंडित जी और सावित्री कपड़े पहन कर दुकान वाले हिस्से मे आ
गये. पंडित जी ने सावित्री से बोला "दवा को खाती हो की नही" सावित्री ने
कहा "खाती हूँ" फिर पंडित जी बोले "ठीक है...लेकिन आज जो कुच्छ भी पंडिताइन
और तुम्हारे बीच हुआ उसे किसी से कहना मत...यह मेरी इज़्ज़त की बात
है...तुमने उसे पीट कर बहुत अच्छा किया...उसका भी रुआब अब ठीकाने लग गया.."
सावित्री भी चुपचाप सुन रही थी लेकिन कुच्छ बोली नही.सावित्री अंधेरा होने से पहले ही घर चल दी. आज राषते मे खंडहर के पास दो
आवारों की गंदी बातें मन मे याद आ गयी. सावित्री को कुच्छ डर सा लगने लगा.
पंडिताइन से मार पीट होने के वजह से उसके शरीर मे दर्द भी महसूस हो रहा था.
तभी खंडहर से पहले ही उसकी नज़र धन्नो चाची पर पड़ी जो रश्ते पर ही खड़ी
हो कर मानो उसी का इंतज़ार कर रही हो. सावित्री का कलेजा हिल सा गया. लेकिन
सुबह जिस तरह से धन्नो चाची ने सावित्री को देख कर मुस्कुराया था मानो
दोस्ती करना चाहती हों. सावित्री जैसे ही धन्नो चाची के करीब आई वैसे ही
धन्नो ने मुस्कुराते हुए बोली "अरे सावित्री कहाँ से आ रही हो?" सावित्री
भी धन्नो चाची के पास खड़ी हो गयी और जबाव मे बोली "इसी कस्बे से आ रही
हूँ...पंडित जी के दुकान पर काम करती हूँ." धन्नो चाची ने बात आगे बढ़ाते
हुए कहा "बहुत खुशी हुई जो तुमने अपनी मा की ज़िम्मेदारीओं मे हाथ बटाना
शुरू कर दिया..क्या कहूँ तुम्हारी मा तो मुझे देख कर बहुत जलती है इसी लिए
मैं तुमसे भी चाहते हुए बात नही कर पाती.." फिर आगे बोली "मैने देखा की तुम
आ रही हो तो सोची की चलो यहाँ तुमसे हाल चाल ले लूँ. घर तो बगल मे है
लेकिन तुम्हारी मा के गुस्से के डर से तुमसे बात करना ठीक नही लगता."
सावित्री ने कुच्छ नही बोली लेकिन उसके दीमाग मे यह बात घूमने लगी की धन्नो
चाची ने चड्डी के उपर वीर्य के दाग और दवा के पत्ते को तो देख ही चुकी थी
इस लिए कहीं इस बारे मे ना पुच्छे. कुच्छ घबराए मन से सावित्री धन्नो चाची
के सामने ही खड़ी थी लेकिन नज़रें जेमीन पर झुकी हुई थी. फिर धन्नो ने
सावित्री के एक कंधे पर हाथ रखते हुए बोली "तुम भी अपनी मा की तरह हमसे नही
बोलॉगी क्या?'" और इतना कह कर धन्नो हँसने लगी इस पर सावित्री भी मुस्कुरा
दी और जबाव मे बोली "क्यों नही....ज़रूर बोलूँगी ....हा लेकिन मा के सामने
तो बोलना ठीक नही होगा...तुम तो मा को अच्छी तरह जानती हो चाची" इस पर
धन्नो चाची एक दम खुश हो गयी मानो उसका काम बनाने लगा हो. "सावित्री तुम
एकदम मेरी बेटी की तरह हो..सच तुम्हारी यह बात सुनकर मुझे ऐसा लग रहा है
मानो मेरी एक नही बल्कि दो दो बेटी है ..एक मुसम्मि और एक तुम." इतना बोलने
के बाद धन्नो ने सुनसान रश्ते पर सावित्री को प्यार से गले लगा लिया.धन्नो ने सावित्री को पहली बार अपने बाहों मे लेते समझ गयी की चुचियाँ
काफ़ी बड़ी बड़ी और शरीर एकदम भरा पूरा है. धन्नो सावित्री को जल्दी ही
करीब आते देख मन ही मन खुश होने लगी. उसका काम अब काफ़ी तेज़ी से बनने लगा
था. वह जानती थी की सावित्री के गदराई जवानी लूटने के चक्कर मे पड़ने वाले
नये उम्र के आवारों से अपनी भी बुर की आग बुझवाने का मौका मिल सकेगा. धन्नो
नये उम्र के लड़कों से चुदने की काफ़ी शौकीन थी. लेकिन उसकी खुद की उम्र
43 होने के वजह से नये उम्र के लड़कों को फाँसना इतना आसान नही होता. धन्नो
को मालूम था की ऐसे मे किसी भी जवान लड़की को आगे कर देने पर लड़के
मद्राने लगते और थोड़ी बहुत मशक्कत के बाद अपनी भी बुर मे नया लंड नसीब हो
जाता.धन्नो कुच्छ बात आगे बढ़ाते हुए बोली "चलो घर की ओर भी चला जाय नही तो
यही रात हो जाएगी और ये रश्ते मे पड़ने वाला खंडहर तो मानो औरतों के
इज़्ज़त का दुश्मन ही है.." दोनो चलने लगे और अंधेरा अब छाने ही लगा था.
फिर धन्नो बोली "चिंता मत कर गाओं आते ही हम दोनो अलग अलग हो जाएँगे...तेरी
मा को ऐसा कुच्छ भी मालून नही होगा जिससे तुम दाँत खाओ" इस पर सावित्री को
कुच्छ राहत हुई लेकिन फिर भी बोली "कोई बात नही है चाची" फिर रश्ते मे
चलते हुए धन्नो बोली "चलो तुम तो बहुत ही अच्छे विचार वाली हो..वैसे तेरी
मा भी बहुत अच्छी है लेकिन ये गाओं के लोगों ने उससे मेरे और मेरी बेटी के
बारे मे पता नही क्या क्या अफवाह उड़ा दी शायद इसी वजह से वह मुझसे दूर
रहना चाहती और...और एक दूसरे के पड़ोसी होते हुए भी कोई किसी से बात नही
करता" सावित्री चुपचाप रश्ते पर चलती रही और मन मे वही चड्डी और दवा का
पत्ता घूम रहा था. धन्नो ने सावित्री को कुच्छ फुसलाते हुए बोलना जारी रखा
"बेटी..तुम तो जानती हो की गाओं मे कितने गंदे बेशरम किस्म के लोग रहते
हैं...वे किसी के बारे मे कुच्छ भी बोल देते हैं और दूसरों की खिल्ली
उड़ाने मे कोई देरी नही करते...इन्ही कुत्तों के वजह से तुम्हारी मा को
मेरे बारे मे ग़लतफहमी हो गयी और इन सबके कारण ही मेरी बेटी मुसम्मि की
शादी भी टूट गयी..ससुराल भी छ्छूट गया...पता नही ये सब बदमाश क्या चाहते
हैं." सावित्री इन सब बातों को चुपचाप सुन रही थी. लेकिन उसका मान यही सोच
रहा था की आख़िर पीच्छले दिन ही धन्नो चाची ने सावित्री की दाग लगी चड्डी
और दवा के पत्ते को देखी और दूसरे दिन ही मिलकर बातें भी करने लगी.सावित्री का मन आशानकों से भर उठा. उसे डर लग रहा था कि आख़िर धन्नो चाची
क्यों उसके करीब आ रही है. पहले तो कभी भी ऐसा नही हुआ की धन्नो चाची उसमे
कोई रूचि रखी हो. यही सब सोच रही थी की रश्ते पर चलते हुए धन्नो ने बात
जारी रखी "जानती हो ये गाओं के बदमाश किसी को भी इज़्ज़त से रहना नही पसंद
करते और झूठे ही बदनाम करने लगते हैं...सच पुछो तो ये गाओं बहुत गंदा हो
गया है..यहा रहने का मतलब बस बदनामी और कुच्छ नही.." सावित्री इन सब बातों
को काफ़ी ध्यान से सुन रही थी और उसका कलेजा धक धक कर रहा था. धन्नो रश्ते
पर आगे आगे चल रही थी और सावित्री उसके पीछे पीछे. सावित्री के कुच्छ ना
बोलने पर धन्नो रुक गयी और सावित्री की ओर देखते हुए पकुहही "अरी कुच्छ बोल
नही रही ....क्या मेरी बातें सही नही हैं क्या....क्यों कुच्छ बोलो तो
..सही" इस पर सावित्री कुच्छ घबरा गयी लेकिन जबाव दी "ठीक कहती हो चाची
...लेकिन मैं ये सब बातें नही जानती हूँ..." इतना सुनकर धन्नो फिर रश्ते पर
चलने लगी और बोली "अरे तो जानना चाहिए...तुम एक लड़की हो और तुम्हारा धर्म
है की तुम इन आवारों से अपनी इज़्ज़त को बचा के रखना और यदि इनके मंसूबों
को नही जानोगी तब तुम्हारे साथ धोखा हो जाएगे और बाद मे खोई इज़्ज़त वापस
नही आती..समझी बेटी" धन्नो बात बढ़ाते बोली "लड़कियो की इज़्ज़त ऐसे जाती
है जैसे कोई मोटा साँप किसी बिल मे घूस्ता है...जैसे मोटा साँप चाहे जितना
भी मोटा क्यों ना हो और बिल चाहे जितना ही छ्होटा या संकरा क्यों ना हो,
मौका मिलते ही मोटा साँप संकरे या छ्होटे बिल मे घूस्ते देर नही लगती..वैसे
ही इन बदमाशों को नही जानोगी तो किसी दिन मौका देख कर अपनी मनमानी कर
देंगे और फिर टूटे हुए इज़्ज़त के दरवाजे के अलावा कुच्छ नही बचेगे...बुरा
मत मानना तुम्हे अपनी बेटी समझ कर बता रही हूँ" इस तरह के उदाहरण को सुन कर
सावित्री कुच्छ सनसना गयी लेकिन कुच्छ बोली नही. धन्नो ने अपनी बात लंबी
करती हुई बोली "मैने मुसम्मि को भी सुरू से ही काफ़ी दाँत फटकार कर और समझा
बुझा कर रखा और समय पर शादी भी कर दी लेकिन ये गाओं वाले शायद हम लोंगो की
इज़्ज़त से काफ़ी जलन होने लगी और ये कुत्ते पता नही कौन सी अफवाहों की
चाल चली की तलाक़ करवा ही दिया... सच कहती हूँ बेटी इस गाओं से मुझे बहुत
घृणा है.."सावित्री धन्नो की इन बातों से मन ही मन राज़ी नही थी क्योंकि उसे भी मालूम
था की धन्नो और उसकी बेटी मुसम्मि दोनो ही शुरू से ही चुदैल किस्म की थी
और मुसम्मि तो शादी के कई साल पहले से ही गाओं के पता नही कितने मर्दों से
चुद चुकी थी. लेकिन धन्नो चाची की इन बातों के हा मे हाँ मिलाना ही ठीक था.
और जबाव मे सावित्री ने कहा "सच कहती हो चाची मेरी मा भी यही कहती है की
गाओं मे गंदे लोग ज़्यादा रहते हैं" इस पर धन्नो रश्ते पर चलते हुए बातें
और मन से करने लगी. आगे बोली "तेरी मा ठीक कहती है बेटी क्योंकि वो बेचारी
तो इस गाओं के करतूतों को खूब अच्छी तरह से देखा है..जब तुम्हारा बाप मार
गया उस समय तुम्हारी परिवार के मुसीबत के घड़ी मे गाओं के चौधरी काफ़ी साथ
दिया और इसी वजह से तुमाहरी मा उनके यहाँ बर्तन और झाड़ू का काम पकड़
लिया.." इतना कह कर धन्नो चाची चुपचाप रश्ते पर चल रही थीं और कुच्छ पल
कुच्छ भी ना बोलने पर सावित्री आगे की बात जानने की ललक से पुचछा "फिर क्या
हुआ चाची?" तब धन्नो बोली "लेकिन बेटी ये राज की बात है इस लिए किसी से
चर्चा मत करना...समझी !" इतना सुन कर सावित्री सहम गयी और काफ़ी धीरे से
बोली "हुम्म" फिर धन्नो ने काफ़ी धीरे धीरे चलते हुए सावित्री को बताने लगी
"उस समय तुम्हारी मा सीता एकदम जवान और गदराई हुई थी और ...कुच्छ दिन ही
बीते थे कि ...चौधरी ने एक दिन मौका पा कर तुम्हारी मा को ग़लत रश्ते पर
खींच लिया..तुम्हारी मा की भी कोई ग़लती नही थी क्योंकि वह बेचारी का भी तो
खून गरम ही था शायद इस लिए वह भी बेचारी मौका पाते ही चौधरी को अपनी
गड्राई जवानी से खूब मनमानी करने देती. आख़िर बेटी तेरी मा विधवा ज़रूर थी
लेकिन जवानी एक तूफान की तरह होती है जब अपने जोश पर आती है तो सब कुच्छ
उड़ा ले जाती है. तुम्हारी मा कई साल तक चौधरी के शरीर की ताक़त निचोड़ती
रही लेकिन पता नही कैसे गाओं के कुच्छ कुत्तों को इसकी भनक लग गयी और इस
कारण बेचारी सीता की हिम्मत नही हुई की चौधरी के घर बर्तन झाड़ू का काम
करने जाए. उसकी जगह दूसरी कोई औरत होती तो गाओं के इन अवारों और बदमाशों से
बिल्कुल ही नही डरती और आज भी रोज़ चौधरी के नीचे दबी होती" इतना सुनते ही
सावित्री को मानो मौत मिल गयी हो
उसे अपनी मा के बारे मे ऐसा सुनना बिल्कुल
ही पसंद नही था. लेकिन ऐसी बात सुनकर गुस्से के साथ साथ उसके मन मे एक
अज़ीब तरह की मस्ती भी छाने लगी. तभी धन्नो ने खंडहर के एक दीवाल के पास
खड़ी हो कर सावित्री से बोली "रुक बेटी थोड़ा पेशाब कर लूँ" इतना कह कर
धन्नो चाची ने रश्ते के किनारे खंडहर के दीवाल के पास ही अपने साड़ी और
पेटिकोट को कमर तक उठा कर बैठ गयी और उसके हल्के गोरे रंग के बड़े बड़े
चूतड़ सावित्री के तरफ था. सावित्री घबराहट मे खंडहर के पास खड़ी खड़ी चारो
ओर देखने लगी की कहीं कोई आ तो नही रहा है. तभी उसकी नज़र एक 48-50 साल के
आदमी पर पड़ी जो धोती कुर्ता पहने साइकल से आ रहा था. सावित्री ने घबराहट
मे बोली "चाची एक आदमी आ रहा है..जल्दी करो.." धन्नो चाची का मुँह ठीक
खंडहर के दीवार के ओर था इस लिए वह रश्ते पर आ रहे आदमी को देख नही पा रही
थी. उनका चूतड़ एकदम रश्ते की ओर था और सावित्री उनके चूतड़ के तरफ ही खड़ी
थी और कभी साइकल से तेज़ी से आ रहे उस अधेड़ उम्र के आदमी को देख रही तो
कभी पेशाब कर रही धन्नो चाची के दोनो नागे चूतदों को देख रही थी. धन्नो ने
सोचा की जब वो पेशाब करने बैठी थी तब तो कोई इर्द गिर्द दिखा नही था और
जैसा की सावित्री ने बताया की कोई आदमी आ रहा है तो किसी के करीब भी आने मे
कुच्छ समय लगेगा और तब तक वह पेशाब कर लेगी और यही सोच कर वह उठाने के
बजाय पेशाब करती रही. लेकिन साइकल पर आदमी होने से काफ़ी तेज़ी से करीब आ
गया और सावित्री धीरे से चिल्ला उठी "चाची जल्दी करो...आ गया..." और अभी
पेशाब ख़त्म ही हुई थी की साइकल की चर्चराहट धन्नो के कान मे पड़ी लेकिन तब
तक देर हो चुकी थी और साइकल पर बैठा आदमी धन्नो के दोनो नंगे चूतदों के
ठीक पीछे से गुजरने लगा और उसकी आँखे दोनो मांसल चूतदों पर पड़ ही गया और
अगले पल धन्नो हड़बड़ाहट मे उठी और अपनी साड़ी और पेटिकोट को नीचे गिराते
हुए दोनो नंगे चूतादो और जांघों को ढकने लगी जो की उस आदमी ने अपने दोनो
आँखों से भरपूर तरीके से देखा और फिर बाद मे सावित्री को भी देखा और
सावित्री उस आदमी के नज़रों को ही देख रही थी जो धन्नो चाची के नंगे चूतदों
पर चिपक गये थे. सावित्री की नज़रें जैसे ही उस आदमी से मिली सावित्री ने
तुरंत अपनी नज़रें हटा ली लेकिन तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी और उस आदमी ने
सावित्री को देखते हुए मुस्कुरा दिया और उसी रफ़्तार से साइकल चलाते हुए
शाम के हो रहे अंधेरे मे आँखों से ओझल हो गया. धन्नो चाची ने उस आदमी को तो देख नही पाई क्योंकि जब उठ कर खड़ी हुई और
मूडी तब तक केवल उस आदमी का पीठ ही दिखाई दे रहा था और ना ही उस आदमी ने
धन्नो चाची के चेहरे को देख पाया. फिर भी धन्नो चाची यह समझ गयीं की उस
आदमी ने उनका दोनो मांसल बड़े बड़े चूतदों को देख लिया है. और शायद यही सोच
कर धन्नो चाची ने सावित्री को एक हल्का सा थप्पड़ गाल पर मारते हुए हंस
पड़ी और बोली "अरी हरजाई तू तो मेरी पिच्छड़ी उस बुड्ढे को दिखवा ही
दी...तुम्हे बताना चाहिए था ना की वो हरामी साइकल से आ रहा है तो मैं पहले
ही उठ जाती..मैं सोची पैदल होगा तबतक तो पेशाब कर लूँगी....धोखा हो गया..."
और सावित्री भी मुस्कुरा दी. आगे बोली "पेशाब करना है तो कर ले ...."
सावित्री को हल्की पेशाब लगी थी लेकिन वह पेशाब वहाँ और धन्नो के सामने नही
करना चाहती थी और बोली "नही" और फिर दोनो रश्ते पर चलने लगे.
धीरे धीरे धन्डहर पार होने लगा. धन्नो
चाची अपनी बात आगे बढ़ती हुई बोली "देख तू मेरी बात का बुरा मत मानना
...मैं जो भी कहती हूँ खूल कर कहती हूँ. तेरी मा सच मे बहुत ही अच्छी औरत
है लेकिन ये गाओं वाले बस अफवाह फैला कर दूसरों को बेइज़्ज़त करना ज़्यादे
पसंद करतें हैं." फिर आगे बोली "तेरी मा और चौधरी के बीच जो कुच्छ भी हुआ
वह तेरी मा के शरीर की ज़रूरत भी थी...इस लिए इसमे कोई बहुत बुरी बात नही
है. और वैसे भी बीते दीनो को याद करने से कोई फ़ायदा नही होता" यह सुनकर
सावित्री ने कुछ भी नही बोली लेकिन धन्नो अपनी बात जारी रखते हुए कही "इस
गाओं मे औरतों की जिंदगी बहुत ही बेकार है ..बस किसी तरह एक एक दिन काट जाए
यही बहुत बड़ी बात है." फिर बोली "दूसरों को क्या कहूँ मैं तो खूद इस गाँव
के गंदे लोगों से बहुत परेशान हो चुकी हूँ..देख ना तेरे सामने ही मेरी
जवान बेटी की शादी तोड़ कर गाँव के कुच्छ बदमाश मेरी खिल्ली उड़ाते हैं
लेकिन मेरी बेटी भी दूध के धोइ है बिल्कुल मेरी तरह. मुसम्मि बेचारी किसी
के तरफ भी नज़र उठा कर नही देखती लेकिन उसके भी नाम को लोग इज़्ज़त से नही
देखना चाहते और उसके बारे मे भी काफ़ी उल्टी सीधी बातें करतें हैं." धन्नो
की इस बात से सावित्री बिल्कुल ही राज़ी नही थी और जानती थी की मा बेटी
दोनो कितनी चुदैल हैं. चलते चलते गाओं काफ़ी नज़दीक आने लगा तभी सावित्री
ने देखा कि साइकल वाला आदमी वापस आ रहा था. देखते ही सावित्री चौंक गयी.
धन्नो से बोली "वो..आदमी आ रहा है...चाची " चाची ने पलट कर पीछे देखा तो एक
अधेड़ उम्र का आदमी साइकल तेज़ी से चलाता हुआ आ रहा था. धन्नो उसके चेहरे
को देखते ही उसे पहचान गयी और वो आदमी भी धन्नो को देखते ही साइकल रोक कर
खड़ा हो गया. धन्नो ने तुरंत उस आदमी का पैर छ्छू ली और फिर बोली "अरे सगुण
चाचा आप इधेर कैसे?" उस अधेड़ उम्र के आदमी ने मुस्कुराता हुआ बोला "बस
ऐसे ही थोड़ा कस्बे की ओर कुच्छ काम था इस वजह से इधेर आना हुआ, चलो इसी
बहाने तुमसे मुलाकात हो गयी" सावित्री एकदम से सन्न हो कर सबकुच्छ देख और
सुन रही थी. धन्नो चाची ने जब उस आदमी का पैर छ्छू कर बात करने लगी तब
सावित्री समझ गयी की ये आदमी कोई परिचित है. फिर उस आदमी ने धन्नो से पुचछा
"अरे अपनी बेटी की दुबारा शादी के बारे मे कुच्छ सोची की नही " इस पर
धन्नो ने जबाव दी "अरे सगुण चाचा , मोसाम्मि की शादी को आप को ही करानी है.
मैं क्या करूँ इस गाओं मे तो मानो जीना दूभर हो गया है. उसकी शादी कितनी
मेहनत से की थी लेकिन गाओं के कुच्छ कमीनो ने उसकी शादी को तुड़वा कर ही दम
लिया. " इस पर उस आदमी ने कुच्छ चुपचाप रहा फिर बोला "अरे तो हाथ पे हाथ
रख के बैठी रहेगी तब कैसे होगा शादी....कुच्छ दौड़ना और लड़का खोजना पड़ेगा
तब तो जा कर कहीं शादी हो पाएगी..." धन्नो ने कहा "हां ठीक कहते हैं, फिर
भी कोई लड़का बताइए जो आपकी जानकारी मे हो." इस पर उस आदमी ने कहा "अरे
लड़के तो बहुत है लेकिन सब के सब तो कुँवारी ही खोजते हैं और किसी को जैसे
ही पता चलता है की लड़की की एक बार शादी हो चुकी है साले भाग खड़े होते है.
वैसे चलो मैं कोशिस करूँगा तुम्हारे लिए धन्नो." धन्नो काफ़ी खुश हो गयी.
लेकिन सावित्री के दिमाग़ मे यही बात थी की यही वो आदमी था जो की कुच्छ देर
पहले धन्नो चाची को पेशाब करते हुए दोनो चूतदों को खूब देखा और उसे देख कर
मुस्कुराया भी था. तभी उस आदमी ने धन्नो के बगल मे खड़ी हो कर बातें सुन
रही सावित्री की ओर इशारा कर के पुचछा "धन्नो ये कौन लड़की है?" धन्नो ने
जबाव दी "मेरे पड़ोस मे रहने वाली सीता जो विधवा हो गयी थी उसी की लड़की
है" तब उस आदमी ने फिर कहा "ये भी तो शादी लायक हो गयी है" धन्नो ने कहा
"हा क्यो नही . आज कल तो लड़कियाँ जहाँ जवान हुई वहीं शादी के लायक उनका
शरीर होते देर नही लगती और आप तो जानते ही हैं की मेरे इस गाओं मे जवान
लड़की को घर मे रखना कितना मुश्किल काम होता है" इस बात को सुनकर उस आदमी
ने फिर कहा "हा धन्नो तुम सच कहती हो अब तो जमाना ही बहुत खराब हो गया है.
वैसे इसकी शादी मे कोई परेशानी आए तो मुझे बताना मैं इसकी शादी एक अच्छे
लड़के से करवा दूँगा.." इतना कह कर उस आदमी ने सावित्री को नीचे से उपर तक
आँखों से तौलने लगे फिर धन्नो ने कहा "अरे सगुण चाचा इसकी मालकिन तो इसकी
मा सीता है मैं इसमे कुच्छ नही बोल सकती ...वैसे भी सीता हमसे नाराज़ ही
रहती है...संयोग था की आज रश्ते मे सावित्री मुझसे मिल गयी सो हम दोनो
बातें करते घर को ओर जा ही रहे थे की आप भी मिल गये" इतना सुनकर सगुण चाचा
ने हंसते हुए बोले "तुम औरतों को तो मौका मिला नही की झगड़ा होते देर नही
लगती..चलो ठीक है ये भी तो आख़िर तेरी बेटी की तरह ही है...चलो मैं एक दिन आ
कर इसकी मा से मिल लूँगा ...वो मुझे जानती है." सावित्री ये सुन कर कुच्छ
खुश तो हुई लेकिन उसे समझ नही आ रहा था की आख़िर उसकी मा इस आदमी को कैसे
जानती है. फिर सावित्री उस आदमी की ओर कुच्छ चकित अवस्था मे हो कर देख रही थी की उस
आदमी ने सावित्री के गाल को प्यार से मीज़ता हुआ कहा "अरे बेटी तुम मुझे
नही जानती ...मेरा नाम सगुण है और मुझे लोग प्यार से सगुण चाचा कहते हैं और
मैं एक सामाजिक आदमी हूँ और शादी विवाह कराता हूँ इस लिए मुझे बहुत लोग
जानते हैं.. तुम अपनी मा से मेरे बारे मे पुच्छना..." सावित्री के गाल के
मीज़ने के अंदाज उसे ठीक नही लगा और उसका पूरा शरीर झनझणा उठा. उसके बाद
सगुण ने धन्नो से कहा "वैसे परसों तुम चाहो तो मैं एक लड़के वाले लेकर
आउन्गा और तुम उन्हे लड़की दीखा देना बोलो कैसा रहेगा " इस पर धन्नो ने
कुच्छ सोचते कहा "मैं तो तैयार हूँ सगुण चाचा लेकिन लड़की दिखाने का काम
गाओं मे अपने घर पर नही होगा नही तो इन अवारों को जैसे पता चला की ये फिर
काम बिगाड़ने पर लग जाएँगें..और नतीजा फिर वही होगा" इस पर सगुण चाचा ने
पुचछा "तो तुम्ही बताओ कहाँ पर लड़की को देखना चाहती हो वहीं पर मैं लड़के
के बाप को लेकर आउन्गा" धन्नो ने कहा "मैं तो सोचती हूँ की आप के ही घर पर
लड़की को दीखा दिया जाय" इस पर सगुण मे कहा "ठीक रहेगा तो चलो परसों दोपहर
के 12 बजे मैं लड़के के बाप को लेकर आउन्गा. लड़का बाहर मे नौकरी करता है
और उसकी उम्र करीब 27 के आस पास होगी और वैसे भी तो दूसरी शादी मे मन चाहा
लड़का मुस्किल होता है मिलना बोलो यदि पसंद है तब तुम परसों दोफर के 12 बजे
तक मेरे घर पर आ जाना" "ठीक है सगुण चाचा" धन्नो ने जबाव दिया और आगे पुछि
"आप के घर पे कौन कौन है " इसपर सगुण ने कहा " इस समय तो वो मयके गयी है
और मेरे एक बेटा अपने बहू और बच्चो को लेकर बाहर ही रहता है ...मेरा घर एक
दम खाली है ..तुम्हे कोई परेशानी नही होगी सही समय तक बेटी मुसम्मि को ले
कर आ जाना " इतना कह कर सगुण ने अपनी साइकल पर बैठा और अपने घर के ओर चल
दिया. फिर सावित्री और धन्नो अपने गाओं के ओर चलने लगी और अब एक दम से
अंधेरा होना सुरू हो गया था. फिर भी सावित्री इस आदमी के बारे मे जानना
चाहती थी इस वजह से पुछि "कौन था चाची " इस पर धन्नो ने कहा "अरे बहुत
सामाजिक आदमी हैं..सगुण चाचा .इन्होने ने बहुत सारी शादियाँ कराई हैं और
मुसम्मि की भी यही शादी कराए थे. तेरी मा भी इन्हे जानती है. चलो परसों मैं
भी मुसम्मि को लड़कों वालों को दिखवा कर शादी पक्की करवा लेना चाहती हूँ.
....अच्छा ए बता की जब मैं पेशाब कर रही थी तब ये ही साइकल से गुज़रे थे
क्या?" इस पर सावित्री एक दम चुप रही और हल्की सी मुकुरा दी . धन्नो ने
सावित्री की ओर देखकर हंसते हुए गलियाँ देती बोली "अरे कुत्ति कहीं की तू
तो आज मेरी गांद को सगुण चाचा को दीखवा ही दी ...है राम क्या सोचेंगे मेरे
बारे मे की कैसी औरत है सड़क पर गांद खोलकर मुतती है...." इस पर सावित्री
ने कुच्छ नही बोली. लेकिन उसके मन मे यही था की उस समय जिस अंदाज मे
सावित्री को देख कर मुस्कुराए उससे लगता था की सगुण एक रंगीन किस्म के आदमी
भी थे. और दूसरी बार जब गाल को मीसा तब भी उनकी नियत बहुत अच्छी नही लगी.
धन्नो ने सावित्री से कहा "देखो कल मैं तुम्हारे दुकान पर आउन्गि कुच्छ
समान तो लेना ही पड़ेगा जब लड़की को दिखवाना है." सावित्री ने धन्नो से कहा
" ठीक है चाची आना"उसके बाद दोनो गाओं मे घुसने से पहले ही एक दूसरे से
अलग अलग हो गयीं ताकि सावित्री की मा को ऐसा कुच्छ भी ना मालूम हो जिससे वो
सावित्री पर गुस्सा करे.सावित्री घर पहुँचने के बाद तुरंत पेशाब करने घर के पीच्छवाड़े गयी और
पेशाब की और फिर वापस घर के काम मे लग गयी. रश्ते मे धन्नो चाची ने जो भी
बात उसकी मा सीता के बारे मे बताई थी वह सावित्री के दिमाग़ मे घूम रहा था.
लेकिन जब मुसम्मि के शादी की बात याद आते ही उसका भी मन लालच से भर गया की
उसकी भी शादी जल्दी हो जाती तो बहुत अच्छी होती. लेकिन सावित्री अपनी
ग़रीबी को भी भली भाँति जानती थी. लेकिन पता नही क्यूँ सगुण चाचा के नाम से
कुच्छ आशा की किरण दिखाई दे रही थी. अंदर ही अंदर शादी की इच्छा प्रबल
होती जा रही थी. सावित्री यही सोच रही थी की आख़िर वो कैसे अपनी मा या किसी
से खूद के शादी के बारे मे कहे. वैसे आज जो कुच्छ भी दुकान मे पंडिताइन के
साथ हुआ वह सावित्री के मन मे एक दर्द की तरह याद आ रहा था. लेकिन
सावित्री को जब जब ये बात याद आती की कैसे उसने पंडिताइन को खूब पीटा तब
उसका मनोबल काफ़ी उँचा हो जाता. शायद उसे अपनी ताक़त का असली अहसास होने
लगा था.दूसरे दिन जब सावित्री दुकान पर चलने की तैयारी की तभी खंडहर के पास
आवारों की याद आते ही मन घबरा गया. लेकिन पता नही क्यूँ उनकी गंदी बाते
सावित्री को फिर से सुनने की इच्च्छा हो रही थी. उन अवारों की गंदी हरकत अब
अच्च्छा लग रहा था. रश्ते पर चलते चलते खंडहर आ गया और सावित्री की नज़रें
इधेर उधेर शायद उन आवारों को ही तलाशने लगी थी. तभी पीछले दिन वाले दोनो
आवारा खंडहर के एक दीवाल के पास बैठे नज़र आ गये. सावित्री को काफ़ी डर
लगने लगा था. उसे ऐसा लग रहा था की आज भी वी दोनो ज़रूर कुछ अश्लील बात
बोलेंगे. आख़िर जैसे ही सावित्री उस खंडहर के पास रश्ते पर बैठे हुए दोनो
अवारों के पास से गुज़री ही थी की दोनो उसे ही घूर रहे थे और मुस्कुरा रहे
थे. अचानक एक ने बोला "हम पर भी तो कुच्छ दया करो मेरी जान....हम लोग एक
अच्छे इंसान हैं ..तुम जैसे चाहो वैसे हम दोनो पेश आएँगे...बस एक बार हमे
भी अपना रस पीला दो..." सावित्री बिना कुच्छ बोले रश्ते पर चलती रही तभी
उसे लगा की दोनो बदमाश उसके पीछे पीछे चल रहे हों. सावित्री के अंदर हिम्मत
नही थी की वो पीछे पलट कर देखे. लेकिन जब दूसरे बदमाश की आवाज़ उसके कान
मे टकराई तो उसे लगा की दोनो ठीक उसके पीछे ही चल रहे हों. दूसरे ने कहा
"रानी ...हम दोनो रात मे 12 बजे के करीब तुम्हारे घर के पीछे वाले बगीचे मे
आ कर हल्की सी सिटी मारेंगे और तुम धीरे से आ जाना....ज़रूर आना ...कोई
ख़तरा नही है..हम दोनो पक्के खिलाड़ी है..एक बार हम दोनो से खेल लॉगी तो
जिंदगी भर याद रखोगी...भूलना मत रानी." फिर दूसरे ने कहा "किसी को कहीं से
भनक तक नही लगेगी ....तुम्हारी इज़्ज़त की चिंता भी है ..याद रखना आज रात
12 बजे तुम्हारे घर के पीच्छवाड़े वाले बगीचे मे." इतना कह कर दोनो आवारे
खंडहर के अंदर को ओर चले गये. सावित्री इन बातों को सुन कर एक दम डर गयी और
कुच्छ तेज़ी से दुकान की ओर चलने लगी. उसके मन मे जब यह बात याद आती की
रात को दोनो उसे बगीचे मे क्यों बुला रहे थे तो मन घबराने के साथ साथ कुच्छ
मस्त हो कर सनसना जाता था. सावित्री को उन अवारों की बातों पर काफ़ी
गुस्सा तो आता ही था लेकिन पता नही क्यूँ उनकी बातें सुनकर मस्ती भी छाने
लगती थी.पिच्छले दिन की पंडिताइन के साथ मार पीट की घटना के वजह से पंडित जी अपनी
दुकान मे बैठे बैठे यही सोच रहे थे की कहीं सावित्री दुकान पर आएगी या नही.
लेकिन थोड़ी देर बाद सावित्री आती हुई नज़र आई तो पंडित जी की आँखे चमक
उठीं. पंडित जी को अब विश्वाश हो गया की सावित्री को लंड का स्वाद पसंद आ
गया है और अब चुड़ाने के लिए हमेशा तैयार रहेगी.सावित्री दुकान मे बैठी
बैठी यही सोच रही थी की धन्नो चाची पता नही कब आएगी. उसे इस बात का भी डर
था की जब दोपहर को दोनो दुकान बंद कर के मज़ा लेंगे तभी यदि आ धमकी तब बहुत
गड़बड़ हो जाएगा. दुकान बंद करने से थोड़ी देर पहले ही धन्नो चाची दुकान
पर आई. उनको देखते ही सावित्री स्टूल पर से उठकर खड़ी हो गयी और धन्नो को
दुकान के अंदर बुलाई.पंडित जी को समझ मे आ गया की ये औरत सावित्री की कोई
परिचित है. धन्नो ने सावित्री से कहा "क्या बताउ बेटी ..बहुत देर हो
गयी..मैं एक बार सोची की तेरे साथ ही आ गयी होती लेकिन घर क़ा काम इतना
ज़्यादा होता है की दोपहर हो जाती है" धन्नो ने पंडित जी को तिरछि नज़र से
देखी और फिर सावित्री से बोली "बेटी तुमने बहुत बढ़िया काम किया जो इस
दुकान पर नौकरी पकड़ ली. अब हम लोग भी किसी समान के लिए बेहिचक यहाँ आ
जाएँगे" इतना सुनकर पंडित जी ने कहा "अरे क्यों नही हम लोग तो ग्राहकों के
सेवा के लिए ही यहाँ बैठे हैं....सावित्री तुम इन्हे बैठाओ तो सही बेचारी
दोपहर को उतना दूर पैदल आई हैं" इस पर सावित्री ने स्टूल हटा कर दुकान के
अंदर ही चटाई बिच्छा कर धन्नो चाची के साथ खूद भी बैठ कर बातें करने लगी.
पंडित जी दुकान मे अपने कुर्सी पर बैठे धन्नो को देखने लगे और उन दोनो के
बातों को सुनने लगे. 44 साल की धन्नो ने जो साड़ी पहनी थी वह कुच्छ पतली थी
जिस वजह से पंडित जी को साड़ी के अंदर का पेटीकोत बहुत सॉफ दीख जा रहा था.
वैसे धन्नो ने अपने सर के उपर भी सारी का पल्लू रखी थी और लाज़ दिखाने के
लिए उसने पंडित जी की ओर अपनी पीठ कर रखी थी जो साड़ी से पूरी तरह से ढाकी
थी. पंडित जी की नज़रें धन्नो के पतली और झलकने वाले सारी के अंदर दीख रहा
पेटिकोट पर ही थी. पंडित जी इस बात को महसूस करने लगे की ये औरत कुच्छ
रंगीन मिज़ाज की है क्योंकि जितनी पतली सारी पहनी थी उससे यही पता चल रहा
था की वह अपनी शरीर को दूसरों को दीखाने की शौकीन है. तभी पंडित जी ने
सावित्री से कहा "तुम दोनो आपस मे ही बात करोगे की मुझसे भी परिचय कराओगि"
इस पर सावित्री ने धन्नो की ओर देखते हुए मुस्कुराते बोली "ये मेरे बगल मे
रहने वाली धन्नो चाची हैं" और आगे फिर धन्नो ने अपना मुँह पंडित जी की ओर
करते हुए बोली "पंडित जी मैं आज कल बहुत परेशान हूँ..मेरी एक बेटी है जिसकी
शादी करनी है और उसी सिलसिले मे मैं आपके दुकान से कुच्छ शृंगार का समान
लेने आई हूँ. कल उसे लड़के वाले देखने वाले हैं इस वजह से तैयारी कर रही
हूँ" इतना सुन कर पंडित जी ने धन्नो के तरफ देखते हुए बोला "तुम सही कहती
हो लड़कियो की शादी तो आज कल बड़ा ही कठिन काम हो गया है...हर जगह पैसा और
दहेज...और कही कोई कमी रह गयी तो समझो लड़की को ससुराल वाले जला कर मारने
मे थोड़ी भी देर नही लगाते" धन्नो पंडित जी की बात सुनकर कुच्छ हामी मे सर
हिलाते आगे बोली "क्या बताउ पंडित जी मेरी बेटी के ये दूसरी शादी होगी...इस
वजह से तो परेशानी बहुत है और मुझे चिंता ही खाए जा रही है की आख़िर कैसे
बेटी की दूसरी शादी ठीक करूँ...भगवान की मर्ज़ी से कल ही लड़के वाले लड़की
देखेंगे...तो सोचती हूँ की कहीं कोई कमी ना रह जाए लड़की दिखाने मे"
पंडित जी ने धन्नो की बात सुनने के बाद
बोले "क्यों पहली शादी मे क्या बात हो गयी थी...?" इस सवाल को सुन कर धन्नो
ने एक गहरी साँस लेते हुए अब पंडित जी की ओर मुँह करके आराम से बैठ गयी और
बोली "क्या अपना दुख सुनाउ पंडित जी आप तो दुनिया देख ही रहे हैं...लोगो
को दूसरों की खुशी और चैन पसंद नही है और मेरे गाओं के लोग तो और ही जलने
और ईर्ष्या करने वाले हो गये हैं. ...मेरी बेटी की बहुत बढ़िया शादी कुच्छ
साल पहले हुई थी की गाओं के कुच्छ बदमाशों ने पता नही कौन सी चाल चली की
मेरी बेटी की पूरी जिंदगी ही चौपट हो गयी..और आज आप देख ही रहे हैं की उसकी
दूसरी शादी की समस्या मेरे सामने खड़ा है." इतना सुन कर पंडित जी ने अपने
माथे पर कुच्छ सिकुड़न लाते हुए पुच्छे "तुमने अपनी बेटी की शादी जब किया
तो इसमे गाओं वाले भला क्या कर सकते हैं जिससे तुम्हारी बेटी का रिश्ता
खराब हो जाय...? शादी के बाद लड़की ससुराल गयी फिर गाओं वाले क्या कर सकते
हैं...?" पंडित जी के इस बात को सुनकर धन्नो लगभग गाओं वालों पर गुस्साते
हुए बोली "पंडित जी आप यही तो नही जानते हैं ..साँप का एक मुँह होता है
लेकिन मेरे गाओं मे जो साँप हर गली मे घूम रहे हैं उनके कई मुँह हैं...और
जिसे डॅन्स लिए वह बर्बाद ही हो जाता है...यदि आप मेरे गाओं मे रहते तब
आपको कुच्छ बताने की ज़रूरत नही पड़ती और या तो आप गाओं मे रहते या तो गाओं
छ्चोड़कर भाग जाते....." फिर बात को आगे बढ़ाते हुए धन्नो ने पंडित जी से
अब काफ़ी खुल कर बात करने लगी "मेरे गाओं मे हर तरफ अवेर ही आवारे ही
हैं...किसी को कोई काम तो है नही और एक शराब की दुकान भी खुल गयी है ..उनका
स्वर्ग ...और जिसके पास कुच्छ पैसे हैं वो नशे मे धुत इधेर उधर मदराते
रहते हैं...ऐसे मे इन आवारों से क्या उम्मीद कोई कर सकता है....ये कमीने
हमेशा मौके की तलाश मे ही रहते हैं की क्या बुढही क्या जवान क्या कुँवारी
क्या शादी शुदा..कोई यदि अकेले दीख जाए तो उल्टी सीधी बाते बोलना शुरू कर
देते हैं और इन आवारों से सभी शरीफ औरतें बच कर ही रहती हैं ...आख़िर
इज़्ज़त तो सबको प्यारी है...मैं भी इसी घबराहट मे अपने मुसामी की शादी
जल्दी ही करवा दी लेकिन जिस दिन मेरी बेटी की बारात आई उसी दिन गाओं के
किसी आवारे ने किसी बाराती से मेरी सीधी सादी बेटी के बारे मे कुच्छ अफवाह
फैला दी और जब कुच्छ दिन बाद जैसे ही यह बात उसके दूल्हे को पता चला तबसे
मेरी बेटी से सब झगड़ा करने लगे...क्या बताउ पंडित जी मेरी बेटी की सास
बहुत ही हरामी थी जो रोज मेरी बेटी को गंदी गंदी गाली देती थी...आख़िर
कुच्छ ही दिन बीते थे की मेरी बेटी से भी बर्दाश्त नही हुआ और उसने भी अपने
सास को जबाव मे खूब गालिया देने लगी और बात जब मार पीट तक पहुँच गयी ...और
मेरी भी बेटी ने उनके इस अत्याचार का जबाव देते हुए अपनी सास का बॉल पकड़
कर खूब पीटा और दूसरे ही दिन सुबह ही सौच के बहाने निकली और यहाँ से दस कोस
दूर अपने ससुराल से पैदल ही भाग आई...और मेरी बेटी ने मुझे सब कुच्छ बताया
तो मैने यही कहा की जो कुच्छ किया बढ़िया किया..."पंडित जी धन्नो की बात को ध्यान से सुन रहे थे और धन्नो ने अपनी बात आगे
कही "और क्या करूँ पंडित जी जब उन्होने ने मेरी जवान बेटी के चरित्रा को
खराब बताते हुए गाली दी और मारपीट करने लगे तो मेरी बेटी आख़िर कब तक
बर्दाश्त करती....और इसकी सास तो बहुत हरजाई थी पंडित जी...मुझे तो बाद मे
पता चला की इसकी सास उस गाओं की एक नंबर की .....अब मैं क्या बताउ मुझे
बताने मे भी लाज लगती है...मुझे पता ही नही था की वो सब इतने खराब हैं नही
तो मैं उनके यहाँ अपनी बेटी की शादी ही नही करती " धन्नो इतना बोलते हुए
अपनी नज़ारे पंडित जी की ओर से हटाते हुए नीचे झुका ली. पंडित जी भी समझ
गये की धन्नो अपनी समधन को क्या कहना चाहती थी. धन्नो की बातें सावित्री भी
काफ़ी ध्यान से सुन रही थी. पंडित जी भी धन्नो की ओर देखते हुए आगे बोले
"तो उस बाराती से तुम्हारे गाओं वाले ने कौन सी बात कह दी कि रिश्ता ही टूट
गया?" पंडित जी के इस सवाल को सुनकर धन्नो समझ गयी की पंडित जी कुच्छ और
जानना चाहते हैं. और कुच्छ सोचते हुए अपनी नज़रें पंडित जी की ओर नही की और
फिर बोलना सुरू कर दी "अब जो कुच्छ भी उस कमीने ने कहा पंडित जी नतीजा तो
सामने आ ही गया...रिश्ता टूट ही गया...शादी के पहले जब मेरी बेटी मुसम्मि
जवान हुई तभी से गाओं के कुत्ते उसके पीच्चे पड़ने लगे. मेरी बेटी बेचारी
बहुत ही सीधी है पंडित जी मानो एक दम गई की तरह...वो बेचारी क्या करती इन
कामीनो का..किसी भी तरह अपनी इज़्ज़त को शादी तक बचा कर रखी उन हाआमजादों
से.. सच कहती हूँ पंडित जी कोई भी आवारा मेरी बेटी को च्छू भी नही सका...और
वहीं पर गाँव की दूसरी लड़कियाँ तो उन कामीनो से.........क्या कहूँ लाज
लगती है कहते हुए भी....बस इन अवारों को इसी बात का बदला लेना था की बड़े
ही इज़्ज़त और शान से मेरी बेटी शादी करके अपने ससुराल जा रही है और उन्हे
यह बर्दाश्त नही हुया तो क्या करते ..उस बाराती से मेरी बेटी के बारे मे
झूठी बात बोल दी की जिस मुसम्मि को सब कुँवारी और आनच्छुई लोग समझ रहे हो
उस मुसम्मि का रस गाओं के बड़े बुढहे सब ...........अरे क्या कहूँ मुँह से
कहने लायक नही है जो उस कमीने ने उस बाराती से कहा....मेरा जी करता है की
यदि पता चल जाय की किसने ऐसा कहा तो मैं आज उसका खून पी जाउ." धन्नो ने
लगभग दाँत पीसते हुए कहा और फिर सावित्री की ओर देखते हुए आगे बोली "धात
हाई राम मैं क्या बोले जा रही हूँ बेचारी ये बेटी भी क्या सोचेगी की मैं
कितनी बेशर्म हो गयी हूँ जो इसके सामने ही पंडित जी से ऐसी बात कर रही
हूँ...लेकिन क्या करूँ गुस्सा आ जाता है तो रोक नही पाती...." धन्नो के
बातों की हक़ीकत बगल मे बैठी सावित्री भलीभाती जानती थी. सावित्री मन मे
सोच रही थी की धन्नो तो खुद ही एक चुदैल है और उसकी बेटी के बारे मे भी
गाओं मे खूब चर्चा चलती थी. शादी के कई साल पहले से ही उसे लगभग हर उम्र के
लोग चोद चुके थे. पूरा गाओं धन्नो और मुसम्मि के बारे मे खूब अच्च्ची
तरीके से जानते थे की दोनो किसी से कम नही. सावित्री के दिमाग़ मे यही बात
चल रही थी की दोनो कितना मज़ा लेती हैं और जब दूसरों से बात करती हैं तो
कितनी शरीफ बनती हैं.
पंडित जी ने धन्नो की बात सुनकर बोले
"जाने दो जिसने तुम्हारी बेटी के उपर कीचड़ उच्छलने का काम किया उसकी मा
बहन खूद ही रोज़ कीचड़ मे नहाएँगी और सारा जमाना देखेगा."इतना सुनकर धन्नो
बोली "हाँ पंडित जी मैं तो भगवान पर भरोसा करती हूँ..जिसने भी मेरी बेटी के
जिंदगी से खिलवाड़ किया उसके जीवन को भगवान खूद ही बिगाड़ देगा.....मैं
इसी बात से संतोष करती हूँ....आख़िर इन आवारों का कोई क्या कर सकता है जो
लड़ाई मार पीट के लिए हमेशा ही तैयार रहते हैं...इनसे झगड़ा करना ठीक नही
होता ...इसीलिए तो गाओं की शरीफ से शरीफ औरतें भी इन कमीनो की गंदी बातों
का जबाव नही देती बल्कि सुनकर चुप रहती हैं.." पंडित जी बात आगे बढ़ाते हुए
बोले "क्या करोगी जमाना बहुत खराब हो गया है...वैसे समझदारी इसी मे है की
इन अवारों से बच कर अपनी बेटी की दूसरी शादी जल्दी से कर दो नही तो गाओं के
माहौल मे ऐसी जवान लड़की का रहना ठीक नही है...शादी के बाद ससुराल चली
जाएगी तो तुम्हारी सारी चिंता दूर हो जाएगी. अब शादी मे देर मत करो..." इस
धन्नो ने जबाव दिया "हाँ पंडित जी घर मे जवान लड़की का रहना मानो सिने पर
पत्थर रखा हो....लेकिन संतोष इसी बात से होती है की मेरी बेटी बिल्कुल मेरी
तरह ही सीधी साधी और शरीफ है ...बेचारी घर से बाहर मुझसे पूछे बिना नही
जाती है और केवल अपने सहेलिओं के ही यहा घूमने जाती है...और जब भी मैं कहती
की कहाँ जा रही हो तो मेरी बेटी कहती है की मा घर मे बैठे बैठे मन नही
लगता तो सोचती हूँ की गाओं मे सहेलिओं के यहाँ तो घूम लूँ...और मैं समझाती
हूँ की ज़्यादे इधेर उधेर घूमना ठीक नही है तो बेचारी बोलती है की मा मेरी
चिंता मत करो मैं अपनी इज़्ज़त का पूरा ख्याल करती हूँ और इस गाओं के माहौल
को मैं खूब जानती हूँ मेरी चिंता आप मत किया करो...क्या बताउ पंडित जी जब
मेरी बेटी कहती है की वह गाओं के माहौल को अच्छी तरह से जानती है तो मुझे
भी लाज़ लग जाती है की बेचारी क्या जानती होगी गाओं के बारे मे. क्या बताउ
पंडित जी मेरी बेटी का क्या दोष की वह घर मे ही हमेशा क़ैद रहे और यही सोच
कर मैं उसे घूमने से ज़्यादा मना नही कर पाती...लेकिन बेटी जवान है तो मन
मे डर तो बना ही रहता है. जैसे कभी कभी अपने सहेलिओं के घर देर रात तक रुक
जाती है तो मेरा मन घबरा जाता है और खोजते जाती हूँ तो मेरे उपर ही हँसती
है और कहती है की मैं कोई छोटा बच्चा हूँ क्या जो खो जाउन्गि..." पंडित जी
भी धन्नो की इस बात पर मुस्कुरा दिए लेकिन आगे बोले "धन्नो तुम उसे रात मे
कहीं घूमने मत दिया करो क्योंकि रात मे कहीं भी आना जाना औरतों और लड़कियो
के लिए ठीक नही होता." धन्नो पंडित जी की इस बात से सहमत होते हुए बोली
"हाँ पंडित जी आप सही कहते हैं...इसी चिंता मे तो मैं रात दिन सो नही
पाती...वैसे मेरी लड़की की कोई ग़लती नही है क्योंकि वह बेचारी कभी भी
अकेली कहीं नही जाती बल्कि उसकी कुच्छ सहेलियाँ हैं जो कहीं भी रात मे
घूमने जाना होता है तो चुपचाप मेरी बेटी को फुसूलाकर ले कर चली जाती हैं और
मेरी बेटी समझिए एक दम भोलीभाली है और उनसबके साथ मुझसे बिना बताए ही चली
जाती है...उन सहेलिओं की आदत कुच्छ खराब है जैसे यदि गाओं मे या कहीं अगल
बगल कोई रात मे किसी शादी विवाह या किसी मेला के मौके पर कोई नाच गाना का
कार्यक्रम होता है तो वे मेरी बेटी को धीरे से फुसला कर ले कर चली जाती हैं
और पूरी रात कार्यक्रम देखने के बाद ही आती हैं मैं कितना रोकू अपनी बेटी को वह मानती ही नही है और मेरे बिगड़ने पर की रात
मे जाते समय क्यों नही मेरे से पुछ्ति है तो कहती है की कार्यक्रम देखने
ही तो गयी थी और इसमे क्या बुराई है. मैं क्या करूँ पंडित जी उसकी सहेलिया
उसे काफ़ी समझा देती हैं की मा से पुच्छना बेकार है और पुच्छने पर मा जाने
ही नही देगी तो बिना पुच्छे ही चली जाती है. इसी वजह से तो मैं सोचती हूँ
की जल्दी ही शादी कर दूं ताकि उसकी सहेलिओं क़ा भी साथ छूट जाए. आप यह समझ
लीजिए की यदि कहीं भी कोई रात का नाच गाने का या कोई कार्यक्रम होता है तो
वो सब तो रात भर मेरी बेटी के साथ कार्यक्रम देखती हैं और मुझे पूरी रात
नींद नही आती है जब तक की भोर होते होते मेरी बेटी घर नही आ जाती. भगवान
जल्दी इसकी शादी करा दे की मेरी मुसीबत ख़त्म हो जाए." इतनी बात सुनकर
पंडित जी बोले "वैसे नाच गाने का प्रोग्राम देखना कोई बुरी बात नही है ..यह
तो देखने के लिए ही होता है लेकिन रात के अंधेरे मे कहीं अकेले मे आना
जाना ठीक नही होते है लड़कियो औरतों के लिए..और यदि सहेलिओं के साथ देखने
जाती है तो जाने दिया करो उसकी उम्र है नाच गाना देखने का.." फिर धन्नो ने
जबाव दिया "हाँ पंडित जी मैं भी यही सोचती हूँ की शादी के टूट जाने से वैसे
ही उसका मन दुखी रहता है तो क्यो ना बेचारी इधेर उधेर घूम कर ही अपना मन
बहला ले...आख़िर घर मे अकेले कब तक बैठी रहेगी...यही सोच कर मैं भी ज़्यादे
कुच्छ नही बोलती उसे..और जवान लड़की को बार बार डांटना भी तो ठीक नही
होता. ..और मेरी मुसम्मि भी कुच्छ गुसैल किस्म की है सो कहीं मुझसे झगने
लगे इस बात का भी डर लगता है...आख़िर कौन जवान लड़की से झगड़ा करे..यही सब
सोच कर चाहती हूँ की जल्दी उसकी शादी हो जाए तो रात या दिन के घूमने का
चक्कर तो ख़त्म हो जाएगा और मेरी चिंता भी दूर हो जाएगी." पंडित जी बोले
"हाँ तो जल्दी से शादी कर डालो अपनी बेटी की नही तो तुम्हारे गाओं का माहौल
बहुत ही खराब हो गया है....शादी मे देरी करना यानी बेटी कभी भी कोई ग़लत
कदम उठा सकती है और फिर बदनामी से बचना मुस्किल हो जाएगा." इतना कहते हुए
पंडित जी अपने सामने बैठी हुई धन्नो के पूरे शरीर पर एक नज़र डाली तो देखा
की धन्नो भले ही सारी का पल्लू अपने सर पर रखी थी लेकिन सारी पतले होने के
नाते उसका मांसल शरीर की बनावट सॉफ नज़र आ रही थी. धन्नो ने अपनी साड़ी से अपनी दोनो छातिओ को ढँक तो रखी थी लेकिन सारी के
पतले होने के कारण उसकी ब्लॉज़ मे दोनो बड़ी बड़ी चुचियाँ का आकार सॉफ समझ
मे आ रहा था. पंडित जी की नज़रों को पढ़ते हुए धन्नो ने एक शरीफ औरत की तरह
वैसे ही बैठी रही और अपनी नज़रे दूसरी ओर फेर ली जिससे पंडित जी अब अपनी
आँखो से उसके शरीर को ठीक तरीके से तौलने लगे. फिर पंडित जी की बात का जबाव
देते हुए धन्नो ने पंडित जी से बिना नज़रें मिलाए ही बोली "मुस्किल तो
बहुत हो जाएगा बेटी की शादी करना पंडित जी ..क्योंकि सारा गाओं ही मेरे
पीछे पड़ा है .....मुझे और मेरी बेटी को बदनाम करने के लिए...क्योंकि सीधे
साधे को तो सभी परेशान करतें हैं ....सबको मालूम है की मा बेटी किसी का
क्या बिगाड़ लेंगी.......... सो जो मन मे आया झूठ या सच बोलने मे देरी नही
करते हैं....अब आप ही बताइए की गाओं की ही करतूत पर मेरी बेटी की शादी टूटी
और अब गाओं वाले कहते हैं की मेरी बेटी ही ठीक नही है और इधेर उधेर घूम
घूम कर ......हरामी सब और क्या कह सकतें है मेरी बेटी के बारे मे जब वो
कुत्ते मेरे उपर भी कलंक लगाते देर नही करते और यहाँ तक बोलते हैं कि मुझे
नये उम्र के लड़के पसंद............भगवान इंसबको एक दिन ज़रूर सज़ा देगा जो
मुझे भी बदनाम करने मे लगे रहते हैं.......मन तो करता है की गाओं को ही
छोड़ कर कहीं और चली जाउ..." इतना सुनकर पंडित जी ने अपने धोती के उपर से ही लंगोट मे उठते हुए तनाव को
एक हाथ से हल्के से मसल दिए जो धन्नो ने अपनी तिर्छि नज़र से देख ली और फिर
धोती पर से हाथ हटाते हुए बोले "अरे धन्नो तुम इतनी सी बात को लेकर गाओं
छोड़ने की सोच रही हो...ये सब तो होता रहता है........ और जिन लोंगो की खूद
की इज़्ज़त नही होती वो ही दूसरे शरीफ लोंगो को बदनाम करते हैं...और जो भी
तुमको और तुम्हारी बेटी को बदनाम करते हैं उन सालों का खूद का तो इज़्ज़त
होगा ही नही और उन सबकी मा बहनो की आग सारा गाओं मिलकर बुझाता होगा..."
पंडित जी के मुँह से लगभग गालियाँ देते हुए ऐसी बात सुनकर धन्नो एकदम लज़ा
सी गयी अगले पल अपने हाथ से सारी का पल्लू पकड़ कर मुँह को ढँकते हुए धीरे
से हंसते हुए लाज़ भरी मुँह से सावित्री के आँखों मे देखते हुए बोली "हाई
राम कैसी बात बोलते हैं बड़ी लाज़ लगती है सुनकर........लेकिन ये सब हरामी
ऐसी ही गाली लायक हैं ही जो दूसरों की इज़्ज़त को मिट्टी मे मिलाते रहते
हैं...." और इतना कह कर धन्नो सावित्री की ओर देख कर अपनी हँसी रोकने की
कोशिस करने लगी. पंडित जी धन्नो का जबाव सुनते ही उन्हे विश्वास हो गया की
धन्नो खूब खेली खाई औरत है. और मस्ती की एक लहर पंडित जी के बदन मे उठने
लगी और फिर हल्की मुस्कुराहट से बोले "मैं सच कहता हूँ धन्नो ...ये झूठे
बदनाम करने वाले कमीने अपनी मा बहनो को नही देखते की दिन और रात हमेशा
कुतिया की तरह पूरा गाओं घूमती रहती हैं और पूरा माहौल ही गंदा करने पर लगी
रहती हैं..." धन्नो किसी तरह अपनी मुँह को पल्लू मे ढाकी हुई हँसी को
रोकते हुए आगे बोली "क्या बताउ पंडित जी मेरे गाओं मे तो कुच्छ औरतें और
लड़कियाँ इतनी बेशर्म हो गयी हैं कि उनकी करतूत सुनकर शरीर लाज़ से पानी
पानी हो जाता है...आप समझिए की इनका करतूत अपने मुँह से किसी से बताने लायक
नही है...." धन्नो इतना कह कर पंडित जी के बालिश्ट शरीर पर तिरछि नज़र से
देखते हुए आगे बोली "मानो अब लाज़ और डर तो ख़त्म ही हो गया है इन गाओं की
कुत्तिओ के अंदर से..बस रात दिन मज़ा लेने के चक्केर मे अपने साथ साथ अपनी
बेटिओं को भी लेकर पूरे गाओं का चक्केर लगाती हैं की कोई तो उनके जाल मे
....मुझे तो इन सबकी ऐसी हरकत देखकर बड़ी ही लाज़ लगती है की आप से क्या
कहूँ...ऐसे माहौल मे तो रहना ही बेकार है और मैं चाहती हूँ की अपनी बेटी की
शादी कर के जल्दी ससुराल भेंज दूं नही तो इस गाओं का गंदा हवा कही उसे भी
लग गया तो मैं तो उजड़ ही जाउन्गि.....
क्योंकि मेरे पास बस एक इज़्ज़त ही है जिसे मैं बचा के रखी हूँ.." पंडित जी
इस बात का जबाव देते हुए बोले "धन्नो तुम शादी की चिंता मत करो भगवान
चाहेगा तो तेरी बेटी की शादी बहुत जल्द ही हो जाएगी...बस उपर वाले पर भरोसा
करते हुए अपना प्रयास जारी रखो. ..अब मेरे खाना खाने और आराम करने का समय
हो गया है और मैं चलता हूँ अंदर वाले कमरे मे और तुम दोनो बातें करो.."
इतना कह कर पंडित जी अपनी जगह से उठे और दुकान का बाहरी दरवाज़ा बंद करके
दुकान के अंदर वाले कमरे मे चले गये. दुकान वाले हिस्से मे अब धन्नो और
सावित्री चटाई पर बैठी ही थी की पंडित जी के अंदर वाले हिस्से मे जाते ही
धन्नो चटाई पर लेट गयी और सावित्री से बोली "तुम भी आराम कर लो..आओ मेरे
बगल मे लेट जाओ.." सावित्री चटाई पर बैठी हुई यही सोच रही थी कि धन्नो आज
की दोपहर को दुकान पर ही रहेगी तो पंडित जी के साथ कैसे मज़ा लेगी. शायद इस
बात को सोच कर सावित्री को धन्नो के उपर गुस्सा भी लग रहा था. वह यही बार
बार सोच रही थी की आख़िर धन्नो पंडित जी से इतनी ज़्यादे बातें क्यों कर
रही है और दुकान पर क्यों रुक गयी. लेकिन धन्नो चटाई पर लेटी हुई सावित्री
के मन की बात समझ रही थी की उसके रुकने की वजह से आज पंडित जी के लंड का
मज़ा सावित्री नही ले पाएगी शायद इसी वजह से कुच्छ अंदर ही अंदर गुस्सा कर
रही होगी. धन्नो के दुकान मे रुकने के वजह से सावित्री से भी बातें करने का मौका मिल
गया था और वह सावित्री को अपने करीब लाना चाहती थी जो की बात चीत से ही हो
सकती थी. यही सोच कर धन्नो ने फिर सावित्री से कहा "पंडित जी तो अंदर चले
गये तुम अब आओ और आराम कर लो............की आराम नही करना चाहती हो..शायद
तुम जवान लड़कियो को तो थकान होती ही नही चाहे जितना भी मेहनत कर लो..क्यों
?" इतना सुनकर सावित्री चटाई के एक किनारे बैठी हुई बस मुस्कुरा दी और
धन्नो की बात का जबाव देते हुए बोली "नही चाची ठीक है...आप आराम करो..मैं
बैठी ही ठीक हूँ" फिर धन्नो ने सावित्री की ओर देखते हुए पंडित जी के बारे
मे धीरे से पुछि "खाना खाने के बाद कितनी देर तक पंडित जी आराम करते
हैं..और तुम कहाँ आराम करती हो?" सावित्री भी काफ़ी धीरे से बोली "यही कोई
एक या दो घंटे और फिर दुकान खुल जाती है" लेकिन सावित्री ने दूसरे सवाल का
जबाव देना पसंद नही की और इस वजह से चुप रही लेकिन धन्नो ने फिर पुचछा "जब
वे आराम करते हैं तो तुम क्या करती हो?" इस सवाल को सुनकर सावित्री एक दम
घबरा सी गयी और कुच्छ पल बाद जबाव मे बोली "मैं भी इसी चटाई पर यहीं लेट
जाती हूँ" इतना कह कर सावित्री धन्नो के सवालों से पीचछा छुड़ाई ही थी की
धन्नो ने दूसरा सवाल फिर रखते बोली "लेकिन पंडित जी के जागने से पहले ही
जाग जाती हो या वो आ कर तुम्हे जगाते हैं.? " सावित्री इस सवाल के पुच्छने
के पीछे धन्नो चाची की सोच पर गौर करती हुई कुच्छ परेशान सी हुई और बोली
"अरे नही चाची वी क्या मुझे जगाएँगे...मैं सोती ही कहा हूँ दिन मे बस ऐसे
ही चटाई पर लेट कर दोफर गुज़ार लेती हूँ.." इतना सुन कर धन्नो कुच्छ सलाह
देती हुई बोली "हाँ बेटी बाहरी मर्दों से बहुत ही दूरी बना कर रहना
चाहिए..इसी मे इज़्ज़त है..बस अपने काम से काम ..आज का जमाना बहुत खराब हो
गया है.............. और वैसे ही मर्दों की नियत तो औरतों के उपर हमेशा
गंदी ही रहती है बस मौका मिला नही की ..अपने मतलब के चक्केर मे पड़ जातें
हैं ...अब रोज़ दोपहर मे तुम यहाँ अकेली ही रहती हो..लेकिन पंडित जी तो
बड़े ही भले आदमी हैं इस लिए कोई चिंता की बात नही है ..और इनकी जगह कोई
दूसरा आदमी होता तो ज़रूर दोपहर मे तुम्हे अकेले पा कर परेशान करता.."
सावित्री चटाई के एक किनारे बैठ कर अपनी नज़रें झुकाए धन्नो की बातें चुप
चाप सुन रही थी.
धन्नो ने सावित्री के . और बेचैनी को कम करने के नियत से कही "अरे तुम तो इतना घबरा जा रही हो मानो कोई पहाड़ टूट कर गिर पड़ा हो...बेटी तुम ये मत भूलो की एक औरत का जन्म मिला है तुम्हे ......और ...औरत को पूरी जिंदगी बहुत कुच्छ बर्दाश्त करना पड़ता है..इतना घबराने से कुच्छ नही होगा...गाओं मे हर औरत और लड़की के बारे मे कुच्छ ना तो कुच्छ अफवाह उड़ती रहती है...झूठे ही सही..हम औरतों का काम है एक कान से सुनो तो दूसरे कान से निकाल देना..." धन्नो की इन बातों को सावित्री काफ़ी ध्यान से सुन रही थी और तभी अंदर वाले कमरे से पंडित जी के नाक बजने की . आने लगी और अब पंडित जी काफ़ी नीद मे सो रहे थे.
धन्नो भी आज मौका . देख कर सावित्री से
गरम गरम बातें करना चाहती थी. धन्नो खूब अच्छि तरह जानती थी की इस उम्र की
जवान लड़कियाँ कैसे गंदी बातें ध्यान से सुनती हैं और मर्दों से मज़ा . के
सपने देखती हैं. यही सब सोचते हुए धन्नो ने आज सावित्री को दुकान वाले
हिस्से मे अकेले पा कर धीरे धीरे बाते सुरू करना चाहती थी. धन्नो को इस बात
का विश्वास था की बस थोड़ी सी मेहनत के बाद सावित्री उससे खूल जाएगी और
फिर जब सावित्री को लंड की प्यास लगना सुरू हो जाएगा तब खूब मर्दों के
फिराक मे रहेगी और ऐसे मे नये उम्र के लड़के भी जब सावित्री के चक्कर मे
पड़ेंगे तो मौका देख कर धन्नो भी उन मे से किसी को फाँस कर मज़ा ले पाएगी.
धन्नो की उम्र सावित्री से ज़्यादे होने के नाते धन्नो काफ़ी सावधानी से
सावित्री से धीरे धीरे मौज़ मस्ती की बातें सुरू करना चाहती थी. और आज मौका
काफ़ी बढ़िया देख कर धन्नो ने बात आगे बढ़ाती हुई बोली "तुमने अच्छा किया
जो काम पकड़ लिया ..इससे तुम्हे दो पैसे की आमदनी भी हो जाएगी और तुम्हारा
मन भी बहाल जाएगा..नही तो गाओं मे तो कहीं आने जाने लायक नही है औरतों के
लिए... हर जगह आवारे कमीने घूमते रहते हैं जिन्हे बस शराब और औरतों के
अलावा कुच्छ दिखाई ही नही देता. "धन्नो चटाई पर लेटी हुई सावित्री के चेहरे
के भाव को ध्यान से देखती हुई अब बात चीत मे कुच्छ गर्मी डालने के नियत से
आगे बोली "लेकिन ये गाओं वाले कुत्ते तुम्हारे कस्बे मे काम पर आने जाने
को भी अपनी नज़र से देखते हैं बेटी..मैने किसी से सुना की वी सब तुम्हारे
साथ पंडित जी का नाम जोड़ कर हँसी उड़ाते हैं..मैने तो बेटी वहीं पर कह
दिया की जो भी इस तरह की बात करे भगवान उसे मौत दे दे...सावित्री को तो
सारा गाओं जानता है की बेचारी कितनी सीधी और शरीफ है...भला कोई दूसरी लड़की
रहती तो कोई कुच्छ शक़ भी करे लेकिन सावित्री तो एक दम दूध की धोइ है..."
धन्नो इस बात को बोलने के साथ अपनी नज़रों से सावित्री के चेहरे के भाव को
तौलने का काम भी जारी रखा. इस तरह का चरित्रा. पर हमले की आशंका को भाँपते
हुए सावित्री के चेहरे पर परेशानी और घबराहट सॉफ दिखने लगा. साथ ही
सावित्री ने धन्नो के तरफ अपनी नज़रें करते हुए काफ़ी धीरे से और डरी हुई
हाल मे पुछि "कौन ऐसी बात कह रहा था..आ" धन्नो हमले को अब थोड़ा धीरे धीरे
करने की नियत से बोली "अरे तुम इसकी चिंता मत करो ..गाओं है तो ऐसी वैसी
बातें तो औरतों के बारे मे होती ही रहती है...मर्दों का काम ही होता है
औरतों को कुच्छ ना तो कुच्छ बोलते रहना ..इसका यह मतलब थोड़ी है की जो मर्द
कह देंगे वह सही है...लेकिन मेरे गाओं की कुच्छ कुतिआ है जो बदनाम करने के
नियत से झूठे ही दोष लगाती रहती हैं बेटी...बस इन्ही हरजाओं से सजग रहना
है..ये सब अपने तो कई मर्दों के नीचे............. और शरीफ औरों को झूठे ही
बदनाम करने के फिराक मे रहती हैं." फिर भी सावित्री की बेचैनी कम नही हुई
और आगे बोली "लेकिन चाची मेरे बारे मे आख़िर कोई क्यों ऐसी बात बोलेगा?"
धन्नो ने सावित्री के . और बेचैनी को कम करने के नियत से कही "अरे तुम तो इतना घबरा जा रही हो मानो कोई पहाड़ टूट कर गिर पड़ा हो...बेटी तुम ये मत भूलो की एक औरत का जन्म मिला है तुम्हे ......और ...औरत को पूरी जिंदगी बहुत कुच्छ बर्दाश्त करना पड़ता है..इतना घबराने से कुच्छ नही होगा...गाओं मे हर औरत और लड़की के बारे मे कुच्छ ना तो कुच्छ अफवाह उड़ती रहती है...झूठे ही सही..हम औरतों का काम है एक कान से सुनो तो दूसरे कान से निकाल देना..." धन्नो की इन बातों को सावित्री काफ़ी ध्यान से सुन रही थी और तभी अंदर वाले कमरे से पंडित जी के नाक बजने की . आने लगी और अब पंडित जी काफ़ी नीद मे सो रहे थे.
फिर धन्नो ने बात आगे बढ़ाते हुए काफ़ी
धीमी आवाज़ मे लगभग फुसूस्सते हुए बोली "देख .मेरा गाओं ऐसा है की चाहे तुम
शरीफ रहो या बदमाश ..बदनाम तो हर हाल मे होना है क्योंकि ये आवारों और
कमीनो का गाओं है....किसी हाल मे यहाँ बदनामी से बचना मुस्किल है...चाहे
कोई मज़ा ले चाहे शरीफ रहे ..ये कुत्ते सबको एक ही नज़र से देखते हैं ...तो
समझो की तुम चाहे लाख शरीफ क्यों ना रहो तुम्हे छिनाल बनाते देर नही
लगाते..."फिर धन्नो बात लंबी करते बोली "ऐसी बात भी नही है कि वो सब हमेसा
झूठ ही बोलते है सावित्री ...मेरे गाओं मे बहुत सारी छिनार किस्म की भी
औरतें हैं जो गाओं मे बहुत मज़ा लेती हैं....तुम तो अभी बच्ची हो क्या
जानोगी इन सब की कहानियाँ की क्या क्या गुल खिलाती हैं ये सब
कुट्तिया...कभी कभी तो इनके करतूतों को सुनकर मैं यही सोचती हूँ कि ये सब
औरत के नाम को ही बदनाम कर रही हैं...बेटी अब तुम्हे मैं कैसे अपने मुँह से
बताउ ...तुमको बताने मे मुझे खूद ही लाज़ लगती है..की कैसे कैसे गाओं की
बहुत सी औरतें और तुम्हारी उम्र की लड़कियाँ उपर से तो काफ़ी इज़्ज़त से
रहती हैं लेकिन चोरी च्छूपे कितने मर्दों का ...छी बेटी क्या कहूँ मेरे को
भी अच्च्छा नही लगता तुमसे इस तरह की बात करना .....लेकिन सच तो सच ही होता
है...और यही सोच कर तुमसे बताना चाहती हूँ की अब तुम भी जवान हो गयी हो
इसलिए ज़रूरी भी है की दुनिया की सच्चाई को जानो और समझो ताकि कहीं
तुम्हारे भोलेपन के वजह से तुम्हे कोई धोखा ना हो जाय."
धन्नो के इस तरह की बातों से सावित्री के
अंदर बेचैनी के साथ साथ कुच्छ उत्सुकता भी पैदा होने लगी की आगे धन्नो चाची
क्या बताती है जो की वह अभी तक नही जानती थी. शायद ऐसी सोच आने के बाद
सावित्री भी अब चुप हो कर मानो अपने कान को धन्नो चाची के बातों को सुनने
के लिए खोल रखी हो. धन्नो चाची सावित्री के जवान मन को समझ गयी थी की अब
सावित्री के अंदर समाज की गंदी सच्चईओं को जानने की लालच पैदा होने लगी है
और अगले पल चटाई पर धीरे से उठकर बैठ गयी ताकि सावित्री के और करीब आ करके
बातें आगे बढ़ाए और वहीं सावित्री लाज़ और डर से अपनी सिर को झुकाए हुए
अपनी नज़रे दुकान के फर्श पर गढ़ा चुकी हो मानो उपर से वह धन्नो चाची की
बात नही सुनना चाहती हो.फिर धन्नो ने पंडित जी को नीद मे सो जाने और
सावित्री को अकेली पाते ही गर्म बातों का लहर और तेज करते हुए धीमी आवाज़
मे आगे बोली "तुम्हे क्या बताउ बेटी ...मुझे डर लगता है की तुम मेरी बात को
कहीं ग़लत मत समझ लेना...तुम्हारे उम्र की लड़कियाँ तो इस गाओं मे तूफान
मचा दी हैं...और तुम हो एकदम अनाड़ी ...और गाँव के कुच्छ औरतें तो यहाँ तक
कहती है की तुम्हारी मुनिया तो पान भी नही खाई होगी..." सावित्री को यह बात
समझ नही आई तो तुरंत पुछि "कौन मुनिया और कैसा पान ?" धन्नो चाची इतना
सुनकर सावित्री के कान मे काफ़ी धीरे से हंसते हुए बोली "अरे हरजाई तुम
इतना भी नही जानती ..मुनिया का मतलब तुम्हारी बुर से है और पान खाने का
मतलब बर जब पहली बार चुदति है तो सील टूटने के कारण खून पूरे बुर पर लग
जाता है जिसे दूसरी भाषा मे मुनिया का पान खाना कहते हैं...तू तो कुच्छ नही
जानती है...या किसी का बाँस खा चुकी है और मुझे उल्लू बना रही है" धन्नो
की ऐसी बात सुनते ही सावित्री को मानो चक्कर आ गया. वह कभी नही सोची थी कि
धन्नो चाची उससे इस तरह से बात करेगी. उसका मन और शरीर दोनो सनसनाहट से भर
गया. सावित्री के अंदर अब इतनी हिम्मत नही थी की धन्नो के नज़र से अपनी
नज़र मिला सके. उसकी नज़रें अब केवल फर्श को देख रही थी. उसके मुँह से अब
आवाज़ निकालने की ताक़त लगभग ख़त्म हो चुकी थी. धन्नो अब समझ गयी की उसका
हथोदा अब सावित्री के मन पर असर कर दिया है. और इसी वजह से सावित्री के
मुँह से किसी भी तरह की बात का निकलना बंद हो गया था. धन्नो अपनी बात को
आगे बढ़ाते हुए सावित्री के कान के पास काफ़ी धीरे से फुसफुससाई "तुम्हे आज
मैं बता दूं की जबसे तुम कस्बे मे इस दुकान पर काम करने आना सुरू कर दी हो
तबसे ही गाओं के कई नौजवान तो नौजवान यहाँ तक की बुड्ढे भी तेरी छाति और
गांद देखकर तुम्हे पेलने के चक्कर मे पड़े हैं..और मैं तो तुम्हे खुल कर
बता दूं कि काफ़ी संभाल कर रश्ते मे आया जाया कर नही तो कहीं सुनसान मे पा
कर तुम्हे पटक कर इतनी चुदाइ कर देंगे की ...तुम्हारी मुनिया की शक्ल ही
खराब हो जाएगी."धन्नो फिर आगे बोली "तुम्हारे जैसे जवान लड़की को तो गाओं के मर्दों के
नियत और हरकत के बारे मे पूरी जानकारी होनी चाहिए..और तू है की दुनिया की
सच्चाई से बेख़बर....मेरी बात का बुरा मत मानना ..मैं जो सच है वही बता रही
हूँ....तेरी उम्र अब बच्चों की नही है अब तुम एक मर्द के लिए पूरी तरह
जवान है...." सावित्री धन्नो के इन बातों को सुनकर एक दम चुप चाप वैसी ही
बैठी थी. सावित्री धन्नो की इन बातों को सुनकर डर गयी की गाओं के मर्द उसके
चक्कर मे पड़े हैं और धन्नो के मुँह से ख़ूले और अश्लील शब्दों के प्रयोग
से बहुत ही लाज़ लग रही थी.धन्नो फिर लगभग फुसफुससाई "तुम्हे भले ही कुच्छ
पता ना हो लेकिन गाओं के मर्द तेरी जवानी की कीमत खूब अच्छि तरीके से जानते
हैं...तभी तो तेरे बारे मे चर्चा करते हैं..और तुम्हे खाने के सपने बुनते
हैं..." आगे फिर फुसफुससते बोली "तेरी जगह तो कोई दूसरी लड़की रहती तो अब
तक गाओं मे लाठी और भला चलवा दी होती...अरे तेरी तकदीर बहुत अच्छि है जो
भगवान ने इतना बढ़िया बदन दे रखा है..तभी तो गाओं के सभी मर्द आजकल तेरे
लिए सपने देख रहे हैं..ये सब तो उपर वाले की मेहेरबानी है." धन्नो के इस
तरह के तारीफ से सावित्री को कुच्छ समझ नही आ रहा था की आख़िर धन्नो इस तरह
की बाते क्यों कर रही है. लेकिन सावित्री जब यह सुनी की गाओं के मर्द उसके
बारे मे बातें करते हैं तो उसे अंदर ही अंदर एक संतोष और उत्सुकता भी जाग
उठी. धन्नो अब सावित्री के मन मे मस्ती का बीज बोना सुरू कर दी थी.
सावित्री ना चाहते हुए भी इस तरह की बातें सुनना चाहती थी. फिर धन्नो ने
रंगीन बातों का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए बोली "तुम थोड़ा गाओं के बारे मे भी
जानने की कोशिस किया कर..तेरी उम्र की लौंडिया तो अब तक पता नही कितने
मर्दों को खा कर मस्त हो गयी हैं और रोज़ किसी ना किसी के डंडे से मार खाए
बगैर सोती नही हैं..और तू है की लाज़ से ही मरी जा रही है" फिर कुच्छ धीमी
हँसी के साथ आगे बोली "अरे हरजाई मैने थोड़ी सी हँसी मज़ाक क्या कर दी की
तेरी गले की आवाज़ ही सुख गयी..तू कुच्छ बोलेगी की ऐसे ही गूँग की तरह बैठी
रहेगी..और मैं अकेले ही पागल की तरह बकती रहूंगी.." और इतना कहने के साथ
धन्नो एक हाथ से सावित्री की पीठ पर हाथ घुमाई तो सावित्री अपनी नज़रें
फर्श पर धँसाते हुए ही हल्की सी मुस्कुराइ. जिसे देख कर धन्नो खुश हो गयी.
फिर भी धन्नो के गंदे शब्दों के इस्तेमाल के वजह से बुरी तरह शर्मा चुकी
सावित्री कुच्छ बोलना नही चाहती थी. फिर धन्नो ने धीरे से कान के पास कही
"कुच्छ बोलॉगी नही तो मैं चली जाउन्गि.."
धन्नो के इस नाराज़ होने वाली बात को
सुनते ही सावित्री ना चाहते हुए भी जबाव दी "क्या बोलूं..आप जो कह रहीं हैं
मैं सुन रही हूँ.." और इसके आगे सावित्री के पास कुच्छ भी बोलने की हिम्मत
ख़त्म हो गयी थी. फिर धन्नो ने सावित्री से पुछि "पंडित जी रात को अपने घर
नही जाते क्या?" इस सवाल का जबाव देते हुए सावित्री धीरे से बोली "कभी कभी
जाते होंगे..मैं बहुत कुच्छ नही जानती ..और शाम को ही मैं अपने घर चली
जाती हूँ तो मैं भला क्या बताउ ." सावित्री धन्नो से इतना बोलकर सोचने लगी
की धन्नो अब उससे नाराज़ नही होगी. लेकिन धन्नो ने धीरे से फिर बोली "हो
सकता है कही इधेर उधेर किसी की मुनिया से काम चला लेता होगा.." फिर अपने
मुँह को हाथ से ढँक कर हंसते हुए काफ़ी धीमी आवाज़ मे सावित्री के कान मे
बोली "कहीं तेरी मुनिया........हाई राम मुझे तो बहुत ही हँसी आ रही है..ऐसी
बात सोचते हुए...." सावित्री धन्नो की बात सुनते ही एकदम से सन्न हो गयी.
उसे लगा की कोई बिजली का तेज झटका लग गया हो. उसे समझ मे नही आ रहा था की
अब क्या करे. सावित्री का मन एकदम से घबरा उठा था. उसे ऐसा लग रहा था की
धन्नो चाची जो भी कह रही थी सच कह रही थी. उसे जो डर लग रहा था वह बात सच
होने के वजह से था. एक दिन पहले ही पंडिताइन के साथ हुई घटना भी सावित्री
के देमाग मे छा उठी. सावित्री को ऐसा लग रहा था की उसे चक्केर आ रहा था. वह
अब संभाल कर कुच्छ बोलना चाह रही थी लेकिन अब उसके पास इतना ताक़त नही रह
गयी थी. सावित्री को ऐसा महसूस हो रहा था मानो ये बात केवल धन्नो चाची नही
बल्कि पूरा गाओं ही एक साथ कह रहा हो. धन्नो अपनी धीमी धीमी हँसी पर काबू
पाते हुए आगे बोली "इसमे घबराने की कोई बात नही है...बाहर काम करने निकली
हो तो इतना मज़ाक तो तुम्हे सुनना पड़ेगा..चाहे तुम्हारी मुनिया की पिटाई
होती हो या नही..." और फिर हँसने लगी. सावित्री एक दम शांत हो गयी थी और
धन्नो की इतनी गंदी बात बोल कर हँसना उसे बहुत ही खराब लग रहा था. धन्नो ने
जब देखा की सावित्री फिर से चिंता मे पड़ गयी है तब बोली "अरे तुम किसी
बात की चिंता मत कर ..तू तो मेरी बेटी की तरह है और एक सहेली की तरह भी
है...मैं ऐसी बात किसी से कहूँगी थोड़े..औरतों की कोई भी ऐसी वैसी बातें
हमेशा च्छूपा. कर रखी जाती है..जानती हो औरतों का इज़्ज़त परदा होता
है..जबतक पर्दे से धकि है औरत का इज़्ज़त होती है और जैसे ही परदा हटता है
औरत बे-इज़्ज़त हो जाती है..पर्दे के आड़ मे चाहे जो कुछ खा पी लो कोई
चिंता की बात नही होती..बस बात च्छूपना ही चाहिए..हर कीमत पर...और यदि तेरी
मुनिया किसी का स्वाद ले ली तो मैं भला क्यूँ किसी से कहूँगी...अरे मैं तो
ऐसी औरत हूँ की यदि ज़रूरत पड़ी तो तेरी मुनिया के लिए ऐसा इंतज़ाम करवा
दूँगी की तेरी मुनिया भी खुश हो जाएगी और दुनिया भी जान नही पाएगी ...यानी
मुझे मुनिया और दुनिया दोनो का ख्याल रहता है...कोई चिंता मत करना..बस तुम
मुझे एक सहेली भी समझ लेना बेटी..ठीक" धन्नो ने इतना कह कर अस्वासन दे डाली
जिससे सावित्री का डर तो कुच्छ कम हुआ लेकिन उसकी मुनिया या बुर के लिए
किसी लंड का इनज़ाम की बात सावित्री को एकदम से चौंका दी और उसके मन मे एक
रंगीन लहर भी दौड़ पड़ी.
धन्नो के इस नाराज़ होने वाली बात को
सुनते ही सावित्री ना चाहते हुए भी जबाव दी "क्या बोलूं..आप जो कह रहीं हैं
मैं सुन रही हूँ.." और इसके आगे सावित्री के पास कुच्छ भी बोलने की हिम्मत
ख़त्म हो गयी थी. फिर धन्नो ने सावित्री से पुछि "पंडित जी रात को अपने घर
नही जाते क्या?" इस सवाल का जबाव देते हुए सावित्री धीरे से बोली "कभी कभी
जाते होंगे..मैं बहुत कुच्छ नही जानती ..और शाम को ही मैं अपने घर चली
जाती हूँ तो मैं भला क्या बताउ ." सावित्री धन्नो से इतना बोलकर सोचने लगी
की धन्नो अब उससे नाराज़ नही होगी. लेकिन धन्नो ने धीरे से फिर बोली "हो
सकता है कही इधेर उधेर किसी की मुनिया से काम चला लेता होगा.." फिर अपने
मुँह को हाथ से ढँक कर हंसते हुए काफ़ी धीमी आवाज़ मे सावित्री के कान मे
बोली "कहीं तेरी मुनिया........हाई राम मुझे तो बहुत ही हँसी आ रही है..ऐसी
बात सोचते हुए...." सावित्री धन्नो की बात सुनते ही एकदम से सन्न हो गयी.
उसे लगा की कोई बिजली का तेज झटका लग गया हो. उसे समझ मे नही आ रहा था की
अब क्या करे. सावित्री का मन एकदम से घबरा उठा था. उसे ऐसा लग रहा था की
धन्नो चाची जो भी कह रही थी सच कह रही थी. उसे जो डर लग रहा था वह बात सच
होने के वजह से था. एक दिन पहले ही पंडिताइन के साथ हुई घटना भी सावित्री
के देमाग मे छा उठी. सावित्री को ऐसा लग रहा था की उसे चक्केर आ रहा था. वह
अब संभाल कर कुच्छ बोलना चाह रही थी लेकिन अब उसके पास इतना ताक़त नही रह
गयी थी. सावित्री को ऐसा महसूस हो रहा था मानो ये बात केवल धन्नो चाची नही
बल्कि पूरा गाओं ही एक साथ कह रहा हो. धन्नो अपनी धीमी धीमी हँसी पर काबू
पाते हुए आगे बोली "इसमे घबराने की कोई बात नही है...बाहर काम करने निकली
हो तो इतना मज़ाक तो तुम्हे सुनना पड़ेगा..चाहे तुम्हारी मुनिया की पिटाई
होती हो या नही..." और फिर हँसने लगी. सावित्री एक दम शांत हो गयी थी और
धन्नो की इतनी गंदी बात बोल कर हँसना उसे बहुत ही खराब लग रहा था. धन्नो ने
जब देखा की सावित्री फिर से चिंता मे पड़ गयी है तब बोली "अरे तुम किसी
बात की चिंता मत कर ..तू तो मेरी बेटी की तरह है और एक सहेली की तरह भी
है...मैं ऐसी बात किसी से कहूँगी थोड़े..औरतों की कोई भी ऐसी वैसी बातें
हमेशा च्छूपा. कर रखी जाती है..जानती हो औरतों का इज़्ज़त परदा होता
है..जबतक पर्दे से धकि है औरत का इज़्ज़त होती है और जैसे ही परदा हटता है
औरत बे-इज़्ज़त हो जाती है..पर्दे के आड़ मे चाहे जो कुछ खा पी लो कोई
चिंता की बात नही होती..बस बात च्छूपना ही चाहिए..हर कीमत पर...और यदि तेरी
मुनिया किसी का स्वाद ले ली तो मैं भला क्यूँ किसी से कहूँगी...अरे मैं तो
ऐसी औरत हूँ की यदि ज़रूरत पड़ी तो तेरी मुनिया के लिए ऐसा इंतज़ाम करवा
दूँगी की तेरी मुनिया भी खुश हो जाएगी और दुनिया भी जान नही पाएगी ...यानी
मुझे मुनिया और दुनिया दोनो का ख्याल रहता है...कोई चिंता मत करना..बस तुम
मुझे एक सहेली भी समझ लेना बेटी..ठीक" धन्नो ने इतना कह कर अस्वासन दे डाली
जिससे सावित्री का डर तो कुच्छ कम हुआ लेकिन उसकी मुनिया या बुर के लिए
किसी लंड का इनज़ाम की बात सावित्री को एकदम से चौंका दी और उसके मन मे एक
रंगीन लहर भी दौड़ पड़ी.सावित्री पता नही क्यूँ ना चाहते हुए भी अंदर अंदर खुश हो गयी. लंड के
इंतज़ाम के नाम से उसके पूरे बदन मे एक आग सी लगने लगी थी. इसी वजह से उसकी
साँसे अब कुच्छ तेज होने लगी थी और उसके बुर मे भी मानो चिंतियाँ रेंगने
लगी थी. सावित्री बैठे ही बैठे अपनी दोनो जांघों को आपस मे सताने लगी.
धन्नो समझ गयी की लंड के नाम पर सावित्री की बुर मस्ताने लगी होगी. और अब
लोहा गरम देख कर धन्नो हथोदा चलते हुए बोली "मेरे गाओं की लक्ष्मी भी बहुत
पहले इसी दुकान पर काम करती थी.और उसने अपनी एक सहेली से ये बताया था की
पंडित जी का औज़ार बहुत दमदार है...क्योंकि लक्ष्मी की मुनिया को पंडित जी
ने कई साल पीटा था..लेकिन जबसे लक्ष्मी को गाओं के कुच्छ नये उम्र के
लड़कों का साथ मिला तबसे लक्ष्मी ने पंडित जी के दुकान को छ्होर ही दी.
लक्ष्मी भी उपर से बहुत शरीफ दीखती है लेकिन उसकी सच्चाई तो मुझे मालूम है
..उसकी मुनिया भी नये उम्र के लुंडों के लिए मुँह खोले रहती है."धन्नो के इस तगड़े प्रहार का असर सावित्री की मन और दिमाग़ दोनो पर एक साथ
पड़ा. वह सोचने लगी की पंडित जी ने पहले ही उसे बता दिया था की लक्ष्मी का
दूसरा लड़का उनके शरीर से पैदा है. फिर भी लक्ष्मी को सावित्री की मा सीता
और खूद सावित्री भी काफ़ी शरीफ मानती थी लेकिन अब सावित्री को महसूस होने
लगा की जैसा वह सोचती थी वैसी दुनिया नही है और लक्ष्मी भी दूध की धोइ नही
है. धन्नो की बातें उसे सही और वास्तविक लगने लगी. सावित्री मानो और अधिक
सुनने की इच्च्छा से चुप चाप बैठी रही. धन्नो अंदर ही अंदर खुश हो गयी थी.
उसे पता था की जवान लड़की के लिए इतनी गर्म और रंगीन बात उसे बेशरामी के
रश्ते पर ले जाने के लिएठीक थी. सावित्री भी अब धन्नो की बात को सुनने के
लिए बेताव होती जा रही थी लेकिन अभी भी उसे बहुत ही लाज़ लग रही थी इस वजह
से अपनी नज़रें झुकाए चुपचाप बैठी थी. फिर धन्नो ने धीरे से आगे बोली "नये
उम्र का लंड तो औरतों को काफ़ी जवान और ताज़ा रखता है और इसी लिए तो
लक्ष्मी आज कल गाओं मे कुच्छ नये उम्र के लड़कों के पानी से अपनी मुनिया को
रोज़ नहलाती है..वो भी धीरे धीरे बहुत मज़ा ले रही है..लेकिन ये बात गाओं
के अंदर केवल मैं और कुच्छ उसकी सहेलियाँ ही जानती हैं...और दूसरों को
जानने की क्या ज़रूरत भी है..बदनामी किसी को पसंद थोड़ी है..वो भी तो
बेचारी एक औरत ही है..बस काम हो जाए और शोर भी ना मचे यही तो हर औरत चाहती
ही" धन्नो ने इतना कह कर सावित्री के तेज सांस पर गौर करते हुए बात आगे
बढ़ाई "वैसे लक्ष्मी काम ही ऐसा करती है की .साँप भी मर जाए और लाठी भी ना
टूटेबहुत ही चलाँकि से और होशियारीसे अपनी मुनिया को लड़कों का पानीपिलाती
है...मुझे तो उसके दिमाग़ पर काफ़ी अस्चर्य भी होता है...बहुत ही चालाक और
समझदारी से रहती है..अब ये ही समझ की तेरी मा सीता उसकी बहुत करीबी सहेली
है और उसे खूद ही नही पता की लक्ष्मी वास्तव मे कितनी चुदैल है..और तेरी मा
उसे एक शरीफ औरत समझती है. लेकिन सच पुछो तो मेरे विचार मे वह एक शरीफ है
भी...बहुत सावधानी से चुदति है...क्योंकि उसकी इस करतूत मे उसकी कुच्छ
सहेलियाँ मदद करती हैं और इसी कारण उसके उपर कोई शक नही करता...और होता भी
यही है यदि कोई एक औरत किसी दूसरे औरत का मदद लेते हुए मज़ा लेती है तो
बदनामी का ख़तरा बहुत ही कम होता है...और आज कल तो इसी मे समझदारी भी
है..." सावित्री इस बात को सुनकर फिर एक अलग सोच मे पड़ गयी की धन्नो उससे
ऐसी बात कह कर क्या समझना चाह रही थी. सावित्री के दिमाग़ मे धन्नो द्वारा
लंड का इंतज़ाम और फिर एक औरत की मदद से मज़ा लूटने का प्लान बताने के पीछे
का मतलब समझ आने लगा. अब वह बहुत ही मस्त हो गयी थी. मानो धन्नो उसे
स्वर्ग के रश्ते के बारे मे बता रही हो. सावित्री ने महसूस किया की उसकी
बुर कुच्छ चिपचिपा सी गयी थी.फिर आगे धन्नो ने सावित्री के कान के पास धीरे से कुच्छ गंभीरता के साथ
फुसफुससाई "मेरी इन बातों को किसी से कहना मत...समझी की नही ..." धन्नो ने
सावित्री के कंधे पर एक हाथ रख कर मानो उससे हामी भरवाना चाहती थी लेकिन
सावित्री अपनी आँखे एकदम फर्श पर टिकाए बैठी रह गयी. वह हाँ कहना चाहती थी
लेकिन उसके पास अब अंदर से ताक़त नही लग रही थी क्योंकि वह इतनी गंदी और
खुली हुई बात किसी से नही की थी. और चुप बैठी देख धन्नो ने उसके कंधे को
उसी हाथ से लगभग हिलाते हुए फिर बोली "अरे पगली मेरी इन बातों को किसी से
कहेगी तो लोग क्या सोचेंगे की मैं इस उम्र मे एक जवान लड़की को बिगाड़ रही
हूँ...ये सब किसी से कहना मत ...क्यों कुच्छ बोलती क्यों नही..." दुबारा
धन्नो की कोशिस से सावित्री का हिम्मत कुच्छ बढ़ा और काफ़ी धीरे से अपनी
नज़रें झुकाए हुए ही फुसफुसा "नही कहूँगी" इतना सुनकर धन्नो ने सावित्री के
कंधे पर से हाथ हटा ली और फिर बोली "हां बेटी तुम अब समझदार हो गयी हो और
तुझे मालूम ही है की कौन सी बात किससे करनी चाहिए किससे नहीं....और आज से
तुम मेरी एक बहुत ही अच्छी सहेली भी है और वो इसलिए की सहेली के रूप मे तुम
हमसे खूल कर बात कर सकोगी और मैं ही एक सहेली के रूप मे जब तेरा मन करेगा
तब उस चीज़ का इंतज़ाम भी धीरे से करवा दूँगी...तेरी मुनिया की भी ज़रूरत
पूरी हो जाएगी और दुनिया को पता भी नही चलेगा..." इतना कह कर धन्नो हँसने
लगी और सावित्री के पीठ पर धीरे एक थप्पड़ भी जड़ दी और सावित्री ऐसी बात
दुबारा सुनने के बाद मुस्कुराना चाह रही थी लेकिन आ रही मुस्कुराहट को
रोकते हुए बोली "धात्त्त...छ्चीए आप ये सब मुझसे मत कहा करें..मुझे कुच्छ
नही चाहिए..." धन्नो ने जब सावित्री के मुँह से ऐसी बात सुनी तो उसे बहुत
खुशी हुई और उसे लगा की आज की मेहनत रंग ला दी थी. फिर हँसते हुए बोली "हाँ
तुम्हे नया या पुराना कोई औज़ार नही चाहिए ..मैं जानती हूँ क्यों नही
चाहिए ...आज कल पंडित जी तो खूद ही तुम्हारी मुनिया का ख्याल रख रहे हैं और
इस बुड्ढे के शरीर की ताक़त अपनी चड्डी मे भी पोत कर घूम रही हो...और उपर
से यह बूढ़ा तुम्हे दवा भी खिला रहा है.....अरे बेटी यह मत भूलो की मैं भी
एक समय तेरी तरह जवान थी और ...अब तुमसे क्या छुपाना मेरी भी मुनिया को रस
पिलाने वाले बहुत थे...और झूठ क्या बोलूं...मेरी मुनिया भी खूब रस पिया
करती थी..." अब तक का यह सबसे जबर्दाश्त हमला होते ही सावित्री एकदम से
कांप सी गयी और दूसरे पल उसकी बुर के रेशे रेशे मे एक अजीब सी मस्ती की
सनसनाहट दौड़ गयी.सावित्री को मानो साँप सूंघ गया था. अब उसे विश्वास हो गया था की उस दिन घर
के पीच्छवाड़े पेशाब करते समय चड्डी पर लगे चुदाई के रस और सलवार पहनते
समय समीज़ की जेब से गिरे दवा के पत्ते को देखकर धन्नो चाची सब माजरा समझ
चुकी थी. और शायद इसी वजह धन्नो के व्यवहार मे बदलाव आ गया था. लेकिन धन्नो
के इस अस्वासन से काफ़ी राहत मिली की वह किसी से कुच्छ नही कहेगी और वह
अपनी जवानी के समय की मुनिया के रस वाली बात खूद ही बता कर यह भी स्पष्ट कर
दी थी कि धन्नो का सावित्री के उपर भी बहुत विश्वास है. अब धन्नो ने पूरे
हथियार सावित्री के उपर चला दी थी और सावित्री वैसे ही एक मूर्ति की तरह जस
की तस बैठी थी. चेहरे पर एक लाज़ डर और पसीने उभर आए थे. साथ साथ उसके बदन
मे एक मस्ती की लहर भी तेज हो गयी थी. धन्नो चाची उसे अपना असली रूप दिखा
चुकी थी.धन्नो का काम लगभग पूरा हो चुका था. वह सावित्री के साथ जिस तरह का
संबंध बनाना चाह रही थी अब बनती दीख रही थी. सावित्री की चुप्पी इस बात को
प्रमाणित कर रहा था की अब धन्नो के किसी बात का विरोध नही करना चाह रही
थी. फिर धन्नो ने पीठ पर हाथ रखते धीरे से फुसफुससाई "कल मेरी बेटी को
देखने के लिए लड़के वाले आ रहे हैं ..शगुन चाचा के घर ..और मैं सोचती हूँ
की तुम भी दुकान के बहाने मेरे साथ शगुन चाचा के यहाँ चलती तो बहुत अच्च्छा
होता..." इतना कह कर धन्नो चाची सावित्री के चहरे पर देखते हुए उसके जबाव
का इंतज़ार करने लगी. सावित्री के समझ मे नही आ रहा था की आख़िर कैसे दुकान
का काम छोड़ कर अपनी मा को बिना बताए वह ऐसा कर सकती है. इसी लिए चुप रही.
फिर धन्नो ने थोड़ा ज़ोर लगा कर सावित्री से कुच्छ अनुरोध के अंदाज मे
बोली "तुझे किसी तरह की कोई परेशानी नही होगी..मैं पंडित जी से बात कर
लूँगी की कल मेरी बेटी मुसम्मि को देखने आ रहे हैं और इस कारण वह दुकान पर
नही आएगी और मेरे साथ शगुन चाचा के घर जाएगी..बोल बेटी..." इतना सुनकर
सावित्री की परेशानिया बढ़ गयीं और धीरे से बोली "लेकिन मेरी मा मुझे आपके
साथ कहीं नही जाने देगी.." धन्नो तुरंत बोली "जब तुम दुकान के लिए आओगी तब
मैं खूद तुम्हे गाओं के बाहर मिल लूँगी और फिर मेरे साथ शगुन चाचा के घर
चलना..और शाम को जिस समय दुकान से घर जाती हो ठीक उसी समय मैं तुम्हे गाँव
के बाहर तक छ्चोड़ दूँगी...तो मा को कैसे मालूम होगा?..." धन्नो के समझाने
से सावित्री चुप रही और फिर कुच्छ नही बोली. अब दुकान के अंदर वाले हिस्से
मे चौकी पर सो रहे पंडित जी का नाक का बजना बंद हो गया था.सावित्री और धन्नो दोनो को यह शक हो गया था की पंडित जी अब जाग गये हैं.
धन्नो सावित्री से पुछि "पेशाब कहाँ करती हो...चलो पेशाब तो कर लिया जाय
नही तो पंडित जी जाग जाएँगे ..." सावित्री ने अंदर एक शौचालय के होने का
इशारा किए तो धन्नो ने तपाक से बोली "जल्दी चलो ...मुझे ज़ोर से लगी है और
तुम भी कर लो." इतना कहते हुए धन्नो चटाई पर से उठ कर एक शरीफ औरत की तरह
अपने सारी का पल्लू अपने सर पर रखी और फिर सावित्री भी उठी और अपने दुपट्टे
को ठीक कर ली. धन्नो पर्दे को हटा कर अंदर झाँकी तो पंडित जी चौकी पर सोए
हुए थे और उनके पैर के तरफ शौचालय का दरवाज़ा था जो की खुला हुआ था. धन्नो
को पर्दे के बगल से केवल पंडित जी का सर ही दिखाई दे रहा था. लेकिन नाक ना
बजने के वजह से धन्नो और सावित्री दोनो ही यह सोच रही थी की पंडित जी जागे
हो सकते हैं. और ऐसे मे जब दोनो शौचालय के तरफ जाएँगी तब पंडित जी जागे
होने की स्थिति मे बिना सर को इधेर उधर किए सोए सोए आराम से देख सकते हैं.
सावित्री इस बात को सोच कर डर रही थी. लेकिन तभी धन्नो ने पर्दे को एक तरफ
करते हुए अपने कदम अंदर वाले कमरे मे रखते हुए फुसफुसा "अभी पंडित जी नीद
मे हैं चल जल्दी पेशाब कर लूँ नही तो जाग जाएँगे तो मुझे बहुत लाज़ लगेगी
उनके सामने शौचालय मे जाना...और सुन शौचालय के दरवाज़े को बंद करना ठीक नही
होगा नही तो दरवाज़े के पल्ले की चर्चराहट या सिटकिनी के खटकने की आवाज़
से पंडित जी जाग जाएँगे...बस चल धीरे से बैठ कर मूत लिया जाय..."धन्नो के ठीक पीछे खड़ी सावित्री का कलेजा धक धक कर रहा था. वह सोच रही थी
की कहीं पंडित जी जागे होंगे तो पेशाब करते हुए दोनो को देख लेंगे. धन्नो
क्कुहह दबे कदमो से अंदर वाले कमरे मे चौकी के बगल से शौचालय के दरवाज़े के
पास पहुँच गयी. लेकिन जैसे ही पीछे देखी तो सावित्री अभी भी पर्दे के पास
खड़ी थी. क्योंकि सावित्री को अंदाज़ा था की पंडित जी का नाक बाज़ना बंद हो
गया है और अब वे जागे होंगे ऐसे मे शौचालय का दरवाज़ा बिना बंद किए पेशाब
करने का मतलब पंडित जी देख सकते हैं. धन्नो ने पर्दे के पास खड़ी सावित्री
को शौचालय के दरवाज़े के पास बुलाने के लिए धीमी आवाज़ मे बोली "अरी जल्दी आ
और यही धीरे से पेशाब कर लिया जाय....नही तो पंडित जी कभी भी जाग सकते
हैं..जल्दी आ......" धन्नो ने इतना बोलते हुए अपनी तिरछि नज़रों से पंडित
जी के आँख के. बंद पलकों को देखते हुए यह भाँप चुकी पंडित जी पूरी तरह से
जाग चुके हैं लेकिन पेशाब करने की बात उनके कान मे पड़ गयी है इस वजह से
जान बुझ कर अपनी पॅल्को को ऐसे बंद कर लिए हैं की देखने पर मानो सो रहे हों
और पलकों को बहुत थोड़ा सा खोल कर दोनो के पेशाब करते हुए देख सकते हैं.
पंडित जी के कान मे जब ये बात सुनाई दी की धन्नो शौचालय के दरवाज़े को बंद
नही करना चाहती है क्योंकि उसे इस बात का डर है की दरवाज़ा बंद करने पर
दरवाज़े के चर्चराहट और सिटकिनी के खटकने के वजह से उनकी नीद खुल सकती है
तो पंडित जी अंदर ही अंदर मस्त हो उठे और सोने का नाटक कर अपने आँख के
पलकों को इतनी बारीकी से सुई की नोक के बराबर फैला कर देखने लगे. धन्नो के
दबाव के चलते सावित्री भी धीरे धीरे दबे पाँव शौचालय के पास खड़ी धन्नो के
पास आकर खड़ी हो गयी. उसे यह विश्वास था की पंडित जी जागे होंगे लेकिन उसकी
हिम्मत नही थी की वह सोए हुए पंडित जी के चेहरे पर अपनी नज़र दौड़ा सके इस
वजह से अपनी नज़रे फर्श पर झुका कर खड़ी हो गयी. तभी धन्नो ने अपना मुँह
शौचालय के अंदर की ओर करते हुए ठीक शौचालय के दरवाज़े पर ही खड़ी हो गयी और
वह ना तो शौचालय के अंदर घुसी ना ही शौचालय के बाहर ही रही बल्कि ठीक
दरवाज़े के बीचोबीच ही खड़ी हो कर जैसे ही अपने सारी और पेटिकोट कमर तक
उठाई उसका सुडौल चौड़ा और बड़ा बड़ा दोनो चूतड़ जो आपस मे सटे हुए थे और एक
गहरी दरार बना रहे थे एक दम नंगा हो गया और नतीज़ा की पंडित जी अपनी आँखो
के पलकों को काफ़ी हल्के खुले होने के कारण सब कुच्छ देख रहे थे. धन्नो का
चूतदों की बनावट बहुत ही आकर्षक थी. दोनो चूतर कुछ साँवले रंग के साथ साथ
मांसल और 43 साल की उम्र मे काफ़ी भरा पूरा था. दोनो चूतदों की गोलाइयाँ
इतनी मांसल और कसी हुई थी और जब धन्नो एक पल के लिए खड़ी थी तो ऐसे लग रहा
था मानो चूतड़ के दोनो हिस्से आपस मे ऐसे सटे हों की उन्हेजगह नही मिल रही
हो और दोनो बड़े बड़े हिस्से एक दूसरे को धकेल रहे हों. धन्नो के चूतड़ के
दोनो हिस्सों के बीच का बना हुआ दरार काफ़ी गहरा और खड़ी होने की स्थिति मे
काफ़ी सांकरा भी लग रहा था.
धन्नो ने सारी और पेटिकोट को कमर तक उठा
कर लगभग पीठ पर ही रख लेने के वजह से कमर के पास का कटाव भी दीख जा रहा था.
पंडित जी इतना देख कर मस्त हो गये. धन्नो के एक पल के ही इस नज़ारे ने
पंडित जी को मानो धन्नो का दीवाना बना दिया हो. तभी दूसरे पल धन्नो एक झटके
से पेशाब करने के लिए बैठ गयी. पंडित जी का मुँह शौचालय के दरवाज़े की ओर
होने की वजह से वह बैठी हुई धन्नो को अपनी भरपूर नज़र से देख रहे थे.
सावित्री एक पल के लिए सोची की वह धन्नो के पीछे ही जा कर खड़ी हो जाए
जिससे पंडित जी उसे देख ना सकें. लेकिन उसकी हिम्मत नही हुई. सावित्री को
जैसे ही महसूस हुया की धन्नो चाची के नंगे चूतदों को पंडित जी देख रहें हैं
वह पूरी तरह सनसना गयी. उसे ऐसा लगा मानो उसकी बुर मे कुच्छ चुलबुलाहट सी
होने लगी है. जैसे ही धन्नो बैठी की उसके दोनो गोल गोल चूतड़ हल्के से फैल
से गये मानो वो आपस मे एक दूसरे से हल्की दूरी बना लिए हों और इस वजह से
दोनो चूतदों के बीच का काफ़ी गहरा और सांकरा दरार फैल गया और कमर के पास से
उठने वाली दोनो चूतदों के बीच वाली लकीर अब एक दम सॉफ सॉफ दीखने लगी.
धन्नो ने जब अपनी सारी और पेटिकोट को दोनो हाथों से कमर के उपर करते हुए
जैसे ही झटके से पेशाब करने बैठी की उसके सर पर रखा सारी का पल्लू सरक कर
पीठ पर आ गया और नंगे चूतदों के साथ साथ उसके पीठ के तरफ जा रही सिर के बॉल
की चोटी भी पंडित जी को दीखने लगी. धन्नो के पीठ का ज़्यादा हिस्सा
पेटिकोट से ही ढक सा गया था क्योंकि धन्नो ने बैठते समय सारी और पेटिकोट को
कमर के उपर उठाते हुए अपनी पीठ पर ही लहराते हुए रख सी ली थी. धन्नो यह
जान रही थी की पंडित जी के उपर इस हमले का बहुत ही गरम असर पड़ गया होगा जो
उस पहलवान और मजबूत शरीर के मर्द को फँसाने के लिए काफ़ी था. दूसरी तरफ
बगल मे खड़ी सावित्री के भी बेशर्म और अश्लीलता का मज़ा देने के लिए काफ़ी
था. धन्नो जानती थी की सावित्री काफ़ी सीधी और शरीफ है और उसे बेशर्म और
रंगीन बनाने के लिए इस तरह की हरकत बहुत ही मज़ेदार और ज़रूरी है. धन्नो
जैसी चुदैल किस्म की औरतें दूसरी नयी उम्र की लड़कियो को अपनी जैसे छिनाल
बनाने की आदत सी होती है और इसमे उन्हे बहुत मज़ा भी आता है जो किसी चुदाइ
से कम नही होता है. इस तरह धन्नो सावित्री को यह दीखाना चाह रही थी की कोई
भी ऐसी अश्लील हरकत के लिए हिम्मत की भी ज़रूरत होती है साथ साथ रिस्क लेने
की आदत भी होनी चाहिए. अब तक सावित्री को यही पता था की किसी दूसरे मर्द
को अपने शरीर के अंद्रूणी हिस्से को दिखाना बेहद शर्मनाक और बे-इज़्ज़त
वाली बात होती है लेकिन धन्नो की कोशिस थी की सावित्री को महसूस हो सके की
इस तरह के हरकत करने मे कितना मज़ा आता है जो अब तक वह नही जानती थी. इधेर
धन्नो के मन मे जब यह बात आई की पंडित जी उसके चूतड़ ज़रूर देख रहे होंगे
और इतना सोचते ही वह भी एक मस्ती की लहर से सराबोर हो गयी.
धन्नो बैठे ही बैठे जैसे ही अपनी नज़र बगल
मे खड़ी सावित्री पर डाली तो देखी की वह अपनी नज़रें एक दम फर्श पर गढ़ा
ली है और उसके चेहरे पर पसीना उभर आया था. जो शायद लाज़ के वजह से थी. तभी
पेशाब करने बैठी हुई धन्नो ने सावित्री की ओर देखते हुए काफ़ी धीरे से
फुसफुसा "देख कहीं जाग ना जाएँ..." धन्नो के इस बात पर सावित्री की नज़रें
अचानक सामने चौकी पर लेटे हुए और शौचालय की ओर मुँह किए पंडित जी के चेहरे
पर चली गयी और जैसे ही देखी की उनकी आँख की पलकें बंद होने के बावजूद कुच्छ
हरकत कर रही थीं और इतना देखते ही एक डर लाज़ से पूरी तरह हिल उठी
सावित्री वापस अपनी नज़रे फर्श पर गढ़ा ली. धन्नो ने सावित्री के नज़रों के
गौर से देखी की पंडित जी के चेहरे पर से इतनी झटके से हट कर वापस झुक गयी
तो मतलब सॉफ था की पंडित जी जागे और देख रहे हैं जो अब सावित्री को भी
मालूम चल गया था. धन्नो ने आगे बिना कुछ बोले अपने नज़रों को सावित्री के
चहरे पर से हटा ली और काफ़ी इतमीनान के साथ मुतना सुरू कर दी. दोपहर के समय
दुकान के अंदर वाले हिस्से मे एक दम सन्नाटा था और धन्नो के पेशाब के मोटी
धार का फर्श पर टकराने की एक तेज आवाज़ शांत कमरे मे गूंजने लगी. पंडित जी
अब धन्नो के चूतड़ को देखने के साथ साथ धन्नो के मुतने की तेज आवाज़ कान
मे पड़ते ही एकदम मस्त हो गये और उनकी धोती के अंदर लंगोट मे कुच्छ कसाव
होने लगा. एक पल के लिए उन्होने सावित्री के लाज़ से पानी पानी हुए चहरे को
देखा जो एकदम से लाल हो गया था और माथे और चेहरे पर पसीना उभर आया था.
धन्नो के बुर से निकला मूत शौचालय के फर्श
पर फैल कर अंदर की ओर बहने लगा. पेशाब ख़त्म होने के बाद धन्नो जैसे ही
खड़ी हुई की उसकी दोनो चूतड़ फिर आपस मे सॅट गये और दरार फिर काफ़ी गहरी हो
गयी और दोनो गोलाईयो के बीच वाली लकीर अब दीखाई नही दे पा रही थी. पंडित
जी ने जब धन्नो के मोटे मोटे दोनो जांघों को देखा तो उसकी बनावट और भराव के
वजह से धन्नो को चोदने की तीव्र इच्च्छा जाग उठी. तभी धन्नो ने अपनी सारी
और पेटिकोट को कमर और पीठ से नीचे गिरा दी और सब कुच्छ धक गया. धन्नो अपनी
जगह से हट कर बगल मे खड़ी सावित्री को बोली "चल जल्दी से यहीं बैठ कर मूत
ले..." सावित्री जो की धन्नो की गंदी और अश्लील बातों और पंडित जी को चोरी
और चलाँकि से गांद दीखाने की घटना से एकदम गर्म और उत्तेजित भी हो चुकी थी.
उसकी बुर बहुत गर्म हो गयी थी. पता नही क्यों धन्नो चाची का पंडित जी को
गांद दिखाना उसे बहुत अच्च्छा लगा था. जैसे ही उसने धन्नो चाची ने उससे कहा
की वहीं मुताना है वह समझ गयी की उसकी भी गांद पंडित जी देख लेंगे और वह
भी धन्नो चाची के सामने. इतनी बात मन मे आते ही वह एकदम से सनसना कर मस्त
सी हो गयी. पता नही क्यों उसे ऐसा करने मे जहाँ डर और लाज़ लग रही थी वहीं
अंदर ही अंदर कुच्छ आनंद भी मिल रही थी. धन्नो चाची ने उसे फिर मूतने के
लिए बोली "अरे जल्दी मूत नही तो जाग जाएँगे तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी..."
सावित्री समझ रही थी कि पंडित जी जागे हुए हैं. इसी वजह से उसके पैर अपनी
जगह से हिल नही पा रहे थे. उसकी नज़रें झुकी हुई थी. धन्नो समझ गयी की
सावित्री अब जान चुकी है की पंडित जी जागे हैं और इसी लिए मूत नही रही है.
लेकिन वह सावित्री को मुताने पर बाध्या. करना चाह रही थी की उसके अंदर भी
निर्लज्जता का समावेश हो जाय. यही सोचते हुए धन्नो ने तुरंत सावित्री के
बाँह को पकड़ कर शौचालय के दरवाजे पर खींच लाई और बोली "जल्दी मूत ले..देर
मत कर..चल मैं तेरे पीछे खड़ी हूँ ..यदि जाग जाएँगे तो भी नही देख पाएँगे.
." सावित्री ठीक शौचालय के दरवाजे के बीच जहाँ धन्नो ने पेशाब की थी वही
खड़ी हो गयी. उसके काँपते हुए हाथ सलवार के नाडे को खोलने की कोशिस कर रहे
थे. जैसे ही नाडे की गाँठ खुली की उसने अपने कमर के हिस्से मे सलवार को
ढीली की और फिर चड्डी को नीचे सरकाने की कोशिस करने लगी. चड्डी काफ़ी कसी
होने के वजह से सावित्री के बड़े बड़े चूतदों पर से नीचे नही सरक पा रही
थी.धन्नो जो ठीक सावित्री के पीछे ही खड़ी थी जब देखी की चड्डी काफ़ी कसी होने
के वजह से सावित्री के बड़े बड़े चूतदों पर से नीचे नही सरक पा रही है तब
धीरे से फुसफुसा " हाई राम इतना बड़ा चूतड़ है तुम्हारा ..और कपड़े के उपर
से तो मालूम ही नही चलता की अंदर दो बड़े बड़े तरबूज़ रखी हो..तेरी चड्डी
फट ना जाए..ला मैं पीछे का सरका देती हूँ..." इतना कह कर धन्नो सावित्री के
पीछे से थोड़ी बगल हो गयी और अब पंडित जी को सावित्री का पूरा पीच्छवाड़ा
दीखने लगा. धन्नो ने काफ़ी चलाँकि से पंडित जी से बिना नज़र मिलाए तेज़ी से
अपनी पल्लू को सर के उपर रखते हुए पल्लू के एक हिस्से को खींच कर अपने
मुँह मे दाँतों दबा ली और अब उसका शरीर लगभग पूरी तरह से ढक गया था मानो वह
बहुत ही शरीफ और लज़ाधुर औरत हो. दूसरे ही पल बिना देर किए झट से सावित्री
के समीज़ वाले हिस्से को एक हाथ से उसके कमर के उपर उठाई तो पंडित जी को
सावित्री के दोनो बड़े बड़े चूतड़ उसकी कसी हुई चड्डी मे दीखने लगे. धन्नो
के एक हाथ जहाँ समीज़ को उसके कमर के उपर उठा रखी थी वहीं दूसरे हाथ की
उंगलियाँ तेज़ी से सावित्री की कसी हुई चड्डी को दोनो चूतदों पर से नीचे
खिसकाने लगी. सलवार का नाडा ढीला होने के बाद सलवार सावित्री की भारिपुरी
जांघों मे जा कर रुक गया था क्योंकि सावित्री ने एक हाथ से सलवार के नाडे
को पकड़ी थी और दूसरी हाथ से अपनी चड्डी को नीचे सरकाने की कोशिस कर रही
थी. धन्नो के एक निहायत शरीफ औरत की तरह सारी मे खूद को ढक लेने और अपने सर
पर पल्लू रखते हुए मुँह पर भी पल्लू के हिस्से डाल कर मानो एक नई नवेली और
लज़ाधुर दुल्हन की तरह पल्लू के कोने को अपने दाँतों से दबा लेने के बाद
सावित्री की चूतड़ पर से समीज़ को उपर उठा कर चड्डी को जल्दी जल्दी सरकाना
पंडित जी को बहुत अजीब लगने के साथ साथ कुच्छ ऐसा लग रहा था की धन्नो खूद
तो शरीफ बन कर एक जवान लड़की के शरीर को किसी दूसरे मर्द के सामने नंगा कर
रही थी और धन्नो की इस आडया ने पंडित जी को घायल कर दिया.पंडित जी धन्नो की हाथ की हरकत को काफ़ी गौर से अपनी पलकों के बीच से देख
रहे थे जो चड्डी को सरकाने के लिए कोशिस कर रही थी. आख़िर किसी तरह
सावित्री की कसी हुई चड्डी दोनो चूतदों से नीचे एक झटके के साथ सरक गयी और
दोनो चूतड़ एक दम आज़ाद हो कर अपनी पूरी गोलायओं मे बाहर निकल कर मानो
लटकते हुए हिलने लगे. तभी धन्नो ने धीरे से फुसफुसा "तेरी भी चूतड़ तेरी मा
की तरह ही काफ़ी बड़े बड़े हैं ...इसी वजह से चड्डी फँस जा रही है...जब
इतनी परेशानी होती है तो सलवार के नीचे चड्डी मत पहना कर..इतना बड़ा गांद
किसी चड्डी मे भला कैसे आएगी..." इतना कह कर धन्नो धीरे से हंस पड़ी और
चड्डी वाले हाथ खाली होते ही अपने पल्लू को फिर से ऐसे ठीक करने लगी की
पंडित जी उसके शरीर के किसी हिस्से ना देख संकें मानो वह कोई दुल्हन हो.
लेकिन सावित्री की हालत एकदम बुरी थी. जिस पल चड्डी दोनो गोलायओं से नीचे
एक झटके से सर्की उसी पल उसे ऐसा लगा मानो मूत देगी. वह जान रही थी की
पंडित जी काफ़ी चलाँकि से सब कुच्छ देख रहें हैं. अब उसे धन्नो के उपर भी
शक हो गया की धन्नो को भी अब यह मालूम हो गया है की पंडित जी उन दोनो की इस
करतूतों को देख रहें हैं. लेकिन उसे यह सब कुच्छ बहुत ही नशा और मस्त करने
वाला लग रहा था. उसका कलेजा धक धक कर रहा था और बुर मे एक सनसनाहट हो रही
थी. लेकिन उसे एक अजीब आनंद मिल रहा था और शायद इसी लिए काफ़ी लाज़ और डर
के बावजूद सावित्री को ऐसा करना अब ठीक लग रहा था.दूसरे पल सावित्री पेशाब करने बैठ गयी और बैठते ही समीज़ के पीछे वाला
हिस्सा पीठ पर से सरक कर दोनो गोल गोल चूतदों को ढक लिया. इतना देखते ही
धन्नो ने तुरंत समीज़ के उस पीछे वाले हिस्से को अपने हाथ से उठा कर वापस
पीठ पर रख दी जिससे सावित्री का चूतड़ फिर एकदम नंगा हो गया और पंडित जी
उसे अपने भरपूर नज़रों से देखने लगे. सावित्री की बुर से पेशाब की धार निकल
कर फर्श पर गिरने लगी और एक धीमी आवाज़ उठने लगी. सावित्री जान बूझ कर
काफ़ी धीमी धार निकाल रही थी ताकि कमरे मे पेशाब करने की आवाज़ ना गूँजे.
धन्नो सावित्री के पीछे के बजाय बगल मे खड़ी हो गयी थी और उसकी नज़रें
सावित्री के नंगे गांद पर ही थी. तभी धन्नो ने पंडित जी के चेहरे के तरफ
अपनी नज़र दौड़ाई और एक हाथ से अपनी सारी के उपर से ही बुर वाले हिस्से को
खुजुला दी मानो वह पंडित जी को इशारा कर रही हो. लेकिन पंडित जी अपने आँखों
को बहुत ही चलाँकि से बहुत थोड़ा सा खोल रखे थे. फिर भी पंडित जी धन्नो को
समझ गये की काफ़ी खेली खाई औरत है. और धन्नो के अपने सारी के उपर से ही
बुर खुजुलाने की हरकत का जबाव देते हुए काफ़ी धीरे से अपने एक हाथ को अपनी
धोती मे डाल कर लंगोट के बगल से कुच्छ कसाव ले रहे लंड को बाहर निकाल दिए
और लंड धोती के बगल से एकदम बाहर आ गया और धीरे धीरे खड़ा होने लगा.लेकिन
पंडित जी अपने लंड को बाहर निकालने के बावजूद अपनी आखों को काफ़ी थोड़ा सा
ही खोल रखा था मानो सो रहे हों. अभी भी सावित्री मूत ही रही थी की धन्नो की
नज़रें दुबारा जैसे ही पंडित जी के तरफ पड़ी तो उसके होश ही उड़ गये. वह
समझ गयी की पंडित जी उसकी करतूत का जबाव दे दिया है. अब पंडित जी का गोरा
और मोटा लंड एक दम खड़ा था और मानो सुपाड़ा कमरे की छत की ओर देख रहा था.
धन्नो के शरीर मे बिजली दौड़ गयी. उसने दुबारा अपनी नज़र को लंड पर दौड़ाई
तो गोरे और मोटे लंड को देखते ही उसकी मुँह से पानी निकल आया. तभी इस घटना
से बेख़बर सावित्री पेशाब कर के उठी और चड्डी उपर सरकाने लगी.
धन्नो ने अपने काँपते हाथों से सावित्री
की चड्डी को उपर सरकाते हुए धीरे से बोली "अरे जल्दी कर हर्जाइ...बड़ा
गड़बड़ हो गया...हाई राम...भाग यहाँ से .." इतना सुनते ही सावित्री ने सोचा
की कहीं पंडित जी जागने के बाद उठ कर बैठ ना गये हों और जैसे ही उसकी
घबराई आँखें चौकी के तरफ पड़ी तो देखी की पंडित जी अभी भी आँखें मूंद कर
लेटे हुए हैं. लेकिन दूसरे पल जैसे ही उसकी नज़र धोती के बाहर निकल कर खड़े
हुए लंड पर पड़ी वह सर से पाँव तक काँप उठी और अपने सलवार के नाडे को
जल्दी जल्दी बाँधने लगी. धन्नो मानो लाज़ के कारण अपने मुँह को भी लगभग ढक
रखा था और सावित्री के बाँह को पकड़ कर एक झटका देते हुए बोली "जल्दी भाग
उधेर..मैं मूत को पानी से बहा कर आती हूँ.." सावित्री तुरंत वहाँ से बिना
देर किए दुकान वाले हिस्से मे आकर चटाई पर खड़ी हो गयी और हाँफने लगी. उसे
समझ मे नही आ रहा था कि ये सब क्या हो रहा है. धन्नो ने तुरंत बगल मे एक
बाल्टी मे रखे पानी को लोटे मे ले कर शौचालय के फर्श पर पड़े मूत को बहाने
लगी. धन्नो कमर से काफ़ी नीचे झुक कर पानी से मूत बहा रही थी. इस वजह से
धन्नो का बड़ा चूतड़ सारी मे एक दम बाहर निकल आया था. पंडित जी चौकी पर उठ
कर बैठ गये. और जैसे ही पानी से मूत बहाकर धन्नो पीछे मूडी तो देखी की
पंडित जी चौकी पर बैठे हैं और उनका लंड एक दम खड़ा है. इतना देखते ही लाज़
के मारे अपने दोनो हाथों से अपने मुँह को ढँक ली और धीरे धीरे दुकान वाले
हिस्से की ओर जाने लगी जहाँ सावित्री पहले ही पहुँच गयी थी. धन्नो जैसे ही
कुच्छ कदम बढ़ायी ही थी की पंडित जी ने चौकी पर से लगभग कूद पड़े और धन्नो
के बाँह को पकड़ना चाहा. धन्नो पहले से ही सजग थी और वह भी तेज़ी से अपने
बाँह को छुड़ाते हुए भागते हुए दुकान के हिस्से के पहले लगे हुए दरवाजे के
पर्दे के पास ही पहुँची थी की पंडित जी धन्नो की कमर मे हाथ डालते हुए कस
के जाकड़ लिया. धन्नो अब छूटने की कोशिस करती लेकिन कोई बस नही चल पा रहा
था. पंडित जी धन्नो के कमर को जब जकड़ा तो उन्हे महसूस हुआ की धन्नो का
चूतड़ काफ़ी भारी है और चुचियाँ भी बड़ी बड़ी हैं जिस वजह से धन्नो का
पंडित जी के पकड़ से च्छुटना इतना आसान नही था. पंडित जी धन्नो को खींच कर
चौकी पर लाने लगे तभी धन्नो ने छूटने की कोशिस के साथ कुच्छ काँपति आवाज़
मे गिड़गिदाई "अरे...पंडित जीइ...ये क्या कर रहे हैं...कुच्छ तो लाज़
कीजिए...मेरा धर्म मत लूटीए...मैं वैसी औरत नही हूँ जैसी आप समझ रहे
हैं...मुझे जाने दीजिए.." धन्नो की काँपति आवाज़ सावित्री को सुनाई पड़ा तो
वह एक दम सिहर उठी लेकिन उसकी हिम्मत नही पड़ी कि वह पर्दे के पीछे देखे
की क्या हो रहा. है. वह चटाई पर एकदम शांत खड़ी हो कर अंदर हो रहे हलचल को
भाँपने की कोशिस कर रही थी. धन्नो का कोई बस नही चल रहा था. धन्नो के
गिड़गिदाने का कोई असर नही पड़ रहा था. पंडित जी बिना कुच्छ जबाब दिए धन्नो
को घसीट कर चौकी पर ले आए और चौकी पर लिटाने लगे " धन्नो जैसे ही चौकी पर
लगभग लेटी ही थी की पंडित जी उसके उपर चाड. गये. दूसरे ही पल धन्नो ने हाथ
जोड़ कर बोली "मेरी भी इज़्ज़त है ...मेरे साथ ये सब मत करिए..सावित्री
क्या सोचेगी ...मुझे बर्बाद मत करिए...पंडित जी मैं आपके हाथ जोड़ती
हूँ..." और इतना कह कर जैसे ही अपनी चेहरे को दोनो हाथों से च्छुपाने की
कोशिस की वैसे ही पंडित जी ने अपने धोती को खोलकर चौकी से नीचे गिरा दिए.
ढीली लंगोट भी दूसरे पल शरीर से दूर हो गया. अब पूरी तरह नंगे पंडित जी का
लंड लहरा रहा था. धन्नो के शरीर पर पंडित जी अपने पूरे शरीर का वजन रखते
हुए सारी को ब्लाउज के उपर से हटा कर चुचियो को मीसना सुरू कर दिए. चुचिओ
का आकार सावित्री की चुचिओ से कुच्छ बड़ा ही था. वैसे ही धन्नो 43 साल की
हो गयी थी. धन्नो ने अब कोई ज़्यादा विरोध नही किया और अपने मुँह को दोनो
हाथों से च्छुपाए रखा. इतना देख कर पंडित जी धन्नो के शरीर पर से उतर कर एक
तरफ हो गये और धन्नो के कमर से सारी की गाँठ को छुड़ाने लगे. तभी धन्नो की
एक हाथ फिर पंडित जी के हाथ को पकड़ ली और धन्नो फिर बोली "पंडित जी मैं
अपने इज़्ज़त की भीख माँग रही हूँ...इज़्ज़त से बढ़कर कुच्छ नही है.मेरे
लिए..ऊहह" लेकिन पंडित जी ताक़त लगाते हुए सारी के गाँठ को कमर से बाहर
निकाल दिए. कमर से सारी जैसे ही ढीली हुई पंडित जी के हाथ तेज़ी से सारी को
खोलते हुए चौकी के नीचे गिराने लगे. आख़िर धन्नो के शरीर को इधेर उधेर
करते हुए पंडित जी ने पूरे सारी को उसके शरीर से अलग कर ही लिए और चौकी के
नीचे गिरा दिए. अब धन्नो केवल पेटिकोट और ब्लाउज मे थी. दूसरे पल पंडित जी
ब्लाउज को खोलने लगे तो फिर धन्नो गिड़गिदाई "अभी भी कुच्छ नही बिगड़ा है
मेरा पंडित जी...रहम कीजिए ...है ..रामम.." लेकिन ब्लाउज के ख़ूलते ही
धन्नो की दोनो बड़ी बड़ी चुचियाँ एक काले रंग की पुरानी ब्रा मे कसी हुई
मिली. पंडित जी बिना समय गवाए ब्लाउज को शरीर से अलग कर ही लिए और लेटी हुई
धन्नो के पीठ मे हाथ घुसा कर जैसे ही ब्रा की हुक खोला की काफ़ी कसी हुई
ब्रा एक झटके से अलग हो कर दोनो चुचिओ के उपर से हट गयी. पंडित जी ने तुरंत
जैसे ही अपने हाथ दोनो चुचिओ पर रखने की कोशिस की वैसे ही धन्नो ने उनके
दोनो हाथ को पकड़ने लगी और फिर गिड़गिदाई "अरे मैं किसे मुँह दिखाउन्गि
...जब मेरा सब लूट जाएगा...मुझे मत लुटीए..." लेकिन पंडित जी के शक्तिशाली
हाथ को काबू मे रखना धन्नो के बस की बात नही थी और दोनो हाथ दोनो चुचिओ को
मसल्ने लगे.
पंडित जी दोनो चुचिओ को मीसते हुए धन्नो
के मांसल और भरे हुए शरीर का जायज़ा लेने लगे. धन्नो जब पंडित जी दोनो
हाथों को अपनी चुचों पर से हटा नही पाई तो लाज़ दीखाते हुए अपनी दोनो हाथों
से चेहरे को ढक ली. लेकिन पंडित जी अगले पल अपने एक हाथ से उसके हाथ को
चेहरे पर से हटाते हुए अपने मुँह धन्नो के मुँह पर टीकाने लगे. इतना देख कर
धन्नो अपने सर को इधेर उधेर घुमाने लगी और पंडित जी के लिए धन्नो के मुँह
पर अपने मुँह को भिड़ना मुश्किल होने लगा. इतना देख कर पंडित जी उसके चुचिओ
पर से हाथ हटा कर तुरंत अपने एक हाथ से धन्नो के सर को कस कर पकड़ लिए और
दूसरे हाथ से उसके गाल और जबड़े को कस कर दबाया तो धन्नो का मुँह खूल सा
गया और पंडित जी तुरंत अपने मुँह को उसके मुँह पर सटा दिया और धन्नो के
खुले हुए मुँह मे ढेर सारा थूक धकेलते हुए अपने जीभ को धन्नो के मुँह मे
घुसेड कर मानो आगे पीछे कर के उसके मुँह को जीभ से ही पेलने लगे. धन्नो का
पूरा बदन झनझणा उठा. दूसरे पल धन्नो के ओठों को भी चूसने लगे. और अब हाथ
फिर से चुचिओ पर अपना काम करने लगे. धन्नो की सिसकारियाँ दुकान वाले हिस्से
मे खड़ी सावित्री को सॉफ सुनाई दे रहा था. सावित्री का कलेजा धक धक कर रहा
था. थोड़ी देर तक ऐसे ही धन्नो के होंठो को कस कस कर चुसते हुए पंडित जी
ने दोनो चुचिओ को खूब मीसा और नतीज़ा यह हुआ की पेटिकोट के अंदर गुदाज बुर
की फांकों मे लार का रिसाव सुरू हो गया. सिसकिओं को सुन सुन कर सावित्री की
भी बुर मे मस्ती छाने लगी. लेकिन वह जैसे की तैसे दुकान वाले हिस्से मे
खड़ी थी और अंदर क्या हो रहा होगा यही सोच कर सिहर जा रही थी.तभी पंडित जी
ने धन्नो के पेटिकोट के उपर से ही उसके जांघों को पकड़ कर मसल्ने लगे.
धन्नो समझ गयी की पंडित जी अब उसके शरीर के अंतिम चीर को भी हरने जा रहे
हैं. और अगले पल जैसे ही उनके हाथ धन्नो के पेटिकोट के नाडे को खोलने के
लिए बढ़े ही थे की वह उठ कर बैठ गयी और मानो सावित्री को सुनाते हुए फिर से
गिड़गिदाने का नाटक सुरू कर दी "मान जाइए ...आप जो कहिए मैं करूँगी लेकिन
मेरी पेटिकोट को मत खोलिए.. उपर की इज़्ज़त पर तो हाथ फेर ही दिए हैं लेकिन
पेटिकोट वाली मेरी अस्मत को मत लूटीए...मैं मोसाम्मि के पापा के सामने
कैसे जाउन्गि...क्या मुँह दिखाउन्गि...ये तो उन्ही की अमानत है......अरी
मान जाइए मेरा धर्म इस पेटिकोट मे है...ऊ राम..." लेकिन पंडित जी के हाथ
तबतक अपना काम कर चुका था और धन्नो की बात ख़त्म होते ही पेटीकोत कमर मे
ढीला हो चुका था. धन्नो इतना देखते ही एक हाथ से ढीले हुए पेटिकोट को पकड़
कर चौकी से नीचे कूद गयी. पंडित जी भी तुरंत चौकी से उतरकर धन्नो के पकड़ना
चाहा लेकिन तबतक धन्नो भाग कर दुकान वाले हिस्से मे खड़ी सावित्री के पीछे
खड़ी हो कर अपने पेटिकोट के खुले हुए नाडे को बाँधने की कोशिस कर ही रही
थी कि तब तक पंडित जी भी आ गये और जैसे ही धन्नो को पकड़ना चाहा की धन्नो
सावित्री के पीछे जा कर सावित्री को कस कर पकड़ ली और सावित्री से
गिड़गिदाई "अरे बेटी ...मेरी इज़्ज़त बचा लो ....अपने पंडित जी को रोको
...ये मेरे साथ क्या कर रहे हैं...."
सावित्री ऐसा नज़ारा देखते ही मानो बेहोश
होने की नौबत आ गयी. और लंड खड़ा किए हुए पंडित जी भी अगले पल धन्नो के
पीछे आ गये और पेटिकोट के नाडे को दुबारा खींच दिया और दूसरे पल ही धन्नो
का पेटिकोट दुकान के फर्श पर गिर गया. सावित्री पंडित जी के साथ साथ धन्नो
चाची को भी एकदम नंगी देख कर एक झटके से धन्नो से अलग हुई दुकान के भीतर
वाले कमरे मे भाग गयी. फिर एकदम नंगी हो चुकी धन्नो भी उसके पीछे पीछी
भागती हुई फिर सावित्री के पीछे जा उसे कस कर पकड़ ली मानो अब उसे छ्होरना
नही चाहती हो. दूसरे पल लपलपाते हुए लंड के साथ पंडित जी भी आ गये.
सावित्री की नज़र जैसे ही पंडित जी खड़े और तननाए लंड पर पड़ी तो वा एक दम
सनसना गयी और अपनी नज़रे कमरे के फर्श पर टीका ली. अगले पल पंडित जी धन्नो
के पीछे आने की जैसे ही कोशिस किए धन्नो फिर सावित्री को उनके आगे धकेलते
हुए बोली "अरे सावित्री मना कर अपने पंडित जी .को ...तू कुच्छ बोलती क्यूँ
नही..कुच्छ करती क्यों नही...मेरी इज़्ज़त लूटने वाली है...अरे हरजाई कुच्छ
तो कर....बचा ले मेरी इज़्ज़त....." सावित्री को जैसे धन्नो ने पंडित जी
के सामने धकेलते हुए खूद को बचाने लगी तो सावित्री के ठीक सामने पंडित जी
का तननाया हुया लंड आ गया जिसके मुँह से हल्की लार निकलने जैसा लग रहा था
और सुपादे के उपर वाली चमड़ी पीछे हो जाने से सूपड़ा भी एक दम लाल टमाटर की
तरह चमक रहा था. सावित्री को लगा की पंडित जी कहीं उसे ही ना पेल दें.
सावित्री भले अपने समीज़ और सलवार और दुपट्टे मे थी लेकिन इतना सब होने के
वजह से उसकी भी बुर चड्डी मे कुच्छ गीली हो गयी थी. धन्नो सावित्री का आड़
लेने के लिए उसे पकड़ कर इधेर उधेर होती रही लेकिन पंडित जी भी आख़िर धन्नो
के कमर को उसके पीछे जा कर कस कर पकड़ ही लिया और अब धन्नो अपने चूतड़ को
कही हिला नही पा रही थी. सावित्री ने जैसे ही देखा एकदम नगी हो चुकी धन्नो
चाची को पंडित जी अपने बस मे कर लिए हैं वह समझ गयी अब पंडित जी धन्नो चाची
चोदना सुरू करेंगे.
सावित्री को ऐसा लगा मानो उसकी बुर काफ़ी
गीली हो गयी है और उसकी चड्डी भी भीग सी गयी हो. और सावित्री अब धन्नो से
जैसे ही अलग होने की कोशिस की वैसे धन्नो ने सावित्री के पीछे से उसके गले
मे अपनी दोनो बाँहे डाल कर अपने सर को सावित्री के कंधे पर रखते हुए काफ़ी
ज़ोर से पकड़ ली और अब सावित्री चाह कर भी धन्नो से अलग नही हो पा रही थी
और विवश हो कर अपनी दोनो हाथों से अपने मुँह को च्छूपा ली. इधेर पंडित जी
भी धन्नो के कमर को कस कर पकड़ लिए थे और धन्नो के सावित्री के कंधे पर
कुच्छ झुकी होने के वजह से धन्नो का चूतड़ कुच्छ बाहर निकल गया था और पंडित
जी का तन्नाया हुआ लंड अब धन्नो की दोनो चूतदों के दरार के तरफ जा रहा था
जिसे धन्नो महसूस कर रही थी. पंडित जी के एक हाथ तो कमर को कस कर पकड़े थे
लेकिन दूसरा हाथ जैसे ही लंड को धन्नो के पीछे से उसकी गीली हो चुकी बुर पर
सताते हुए एक ज़ोर दार धक्का मारा तो धक्का जोरदार होने की वजह से ऐसा लगा
की धन्नो आगे की ओर गिर पड़ेगी और सावित्री के आगे होने की वजह से वह
धन्नो के साथ साथ सावित्री भी बुरी तरह हिल गयी और एक कदम आगे की ओर खिसक
गयी और लंड के बुर मे धँसते ही धन्नो ने काफ़ी अश्लीलता भरे आवाज़ मे
सावित्री के कान के पास चीख उठी "..आआआआआआआआआआ ररीए माआई रे बाआअप्प रे बाप
फट गया.... फट गया ................फ..अट गाइ रे बुरिया फट फाया ...फट गया
रे ऊवू रे बाप फाड़ दिया रे फाड़ दिया ......अरे मुसाममी के पापा को कैसा
मुँह देखाउन्गा मुझे तो छोड़ दिया रे......श्श्सश्..........अरे. ..बाप
हो.....मार ....डाला ...बुर मे घूवस गया रे ..हरजाइइ...तेरे पंडित ने
...चोद दिया मेरी ...बुर....उउउहहारे अरे हरजाई रंडी....तेरे पंडित ने मुझे
चोद दिया..रे ...आरे बाप रे बाप मैं किसे मुँह दिखाउन्गि....आजज्ज तो लूट
लिया रे.....मैं नही जानती थी ....आज मेरी बुर ....फट जाएगी.....ऊवू रे मा
रे बाप ...मेरी बुर मे घूस ही गया..रे..मैं तो बर्बाद हो गयी...रे.अयाया "
पंडित जी का लंड का आधा हिस्सा बुर मे घुस चुका था.
सावित्री किसी ढंग से खड़ी हो पा रही थी
क्योंकि धन्नो चाची उसके पीछे की ओर से झुकी हुई थी और पंडित जी धन्नो की
बुर पीछे से चोद रहे थे. पंडित जी दुबारा धक्के धन्नो की बुर मे मारना सुरू
कर दिए और धन्नो फिर सिसकारना सुरू कर दी. धन्नो की बुर गीली हो जाने की
वजह से पंडित जी लंड काफ़ी आसानी से बुर मे घुसने लगा. धन्नो की अश्लील
सिसकारीओं का असर सावित्री के उपर पड़ने लगा. सावित्री अपने जीवन मे कभी
नही सोची थी की इस उम्र की अधेड़ औरत इतनी गंदी तरह से बोलती हुई चुदेगि.
और पंडित जी समझ गये थे की धन्नो काफ़ी चुदी पीटी औरत है और वह सावित्री को
अपने अश्लीलता को दिखा कर मज़ा लेना चाह रही है. पंडित जी ने जब लंड को
किसी पिस्टन की तरह धन्नो की बुर मे अंदर बाहर करने लगे तब धन्नो को काफ़ी
मज़ा आने लगा. फिर धन्नो ने देखा की सावित्री भी हर धक्के के साथ हिल रही
थी मानो पंडित जी उसी को चोद रहे हों. सावित्री भी काफ़ी चुपचाप धन्नो के
चुदाइ का मज़ा ले रही थी. उसकी बुर मे भी चुनचुनाहट सुरू हो गयी थी. अब
धन्नो ने यह समझ गयी की सावित्री की भी बुर अब लंड की माँग कर रही होगी तो
इज़्ज़त के लिए गिड़गिदाने की बजाय अपने इज़्ज़त को खूब लुटाने के लिए
बोलना सुरू कर दी "सी सी ऊ ऊ ऊ अरे अब तो बहुत मज़ा आ रहा है...और ज़ोर से आ
आ आ आ आ आ ह ज़ोर ज़ोर ज़ोर्से ज़ोर से चोदिए ऊ ओह ....." पंडित जी इतना
सुन कर धक्के की स्पीड बढ़ा दिए और सावित्री ने जब धन्नो के मुँह से ऐसी
बात सुनी तो उसकी चूछुना रही बुर मे आग लग गयी. अब वह अपनी जगह पर अकड़ कर
खड़ी हो गयी और एक लंबी सांस खींची. धन्नो समझ गयी अब सावित्री को इस
अश्लीलता और बेशर्मी का सीधा असर पड़ने लगा है. फिर धन्नो ने एक बार फिर
पीछे की ओर से चोद रहे पंडित जी से बोली "अरे और ज़ोर से
चोदिए...चोदिए...मेरी बुर को..अब क्या बचा है मेरे पास जब मुझे लूट ही लिए
तो चोद कर अपनी रखैल बना लीजिए..पेल कर फाड़ दीजिए मेरी बुर को ....ऊ ऊ ऊ ऊ
ऊ ऊ ऊ ऊ ................................इतना मज़ा आ रहा है की क्या
बताउ....हाई राम जी करता है की रोज़ आ कर चुदाउ ...ओह ऊ ऊ ऊ ऊ ऊ ऊवू ऊवू
......अरे कस कर चोदिए की मैं बर्बाद हो जाउ...मेरे राजा..मेरे करेजा
....चोदिए ...आप तो एक दम किसी जवान लड़के की तरह चोद रहे हैं मेरी बुर
को....." पंडित जी इतना सुन कर धक्के मारते हुए तपाक से बोल पड़े "कितने
लड़के चोदे हैं इस बुर को...?" धन्नो ने सावित्री के शरीर को पकड़ कर झुकी
स्थिति मे कुच्छ सोच कर जबाव दे डाली "अरे के बताउ अब कया छुपाउ आपसे आप तो
मेरे गाओं की हालत जानते ही हैं आख़िर कैसे कोई बच सकता ही मेरे गाओं के
.....ओहो ओह ओह ओह ऊ ऊ ओह अरे किस किस को बताउ जिसने मेरी......अरे लड़को
से करवाने मे तो और भी मज़ा आता है....जवान लड़को की बात कुच्छ और ही होती
है....ऊ ऊ ऊ ऊ ऊ ऊवू ......मेरे गाओं मे तो शायद ही कोई औरत बची हो
इन........ऊ ऊ ऊ ऊ .....अरे बाप रे बाप ....खूब डालिए अंदर " पंडित जी को
सावित्री के सामने ही लड़कों की तारीफ कुच्छ ठीक नही लगी तो कुच्छ धक्को मे
तेज़ी लाते हुए बोले "अभी तो मादर्चोद शरीफ बन रही थी और अब बता रही है की
तेरी बुर पर काईओं ने चढ़ाई कर ली है.....तेरी बेटी की बुर चोदु साली
रंडी.....लड़के साले क्या मेरी तरह चोदेन्गे रे...जो मैं चोद
दूँगा....लड़कों की तारीफ करती है और वो भी मेरे सामने......वी साले शराब
और नशा कर ते हैं ....उनके लंड मे ताक़त ही कहा होती है की बुर
चोदेन्गे....मादार चोद...तेरी बेटी को चोद कर रंडी बना दूं साली ....चल इस
चौकी पर चिट लेट फिर देख मैं तेरी इस भोसड़ी को कैसे चोद्ता हूँ..."
इतना कहते ही पंडित जी कुच्छ गुस्साए हुए
धन्नो के बुर से लंड को बाहर खींच लिए और भीगा हुआ लंड बाहर आ कर चमकने
लगा. धन्नो अब सावित्री के कंधे के उपर से हटते हुए चौकी पर चढ़ गयी और फिर
चित लेट गयी. पंडित जी पास मे खड़ी सावित्री की बाँह को पकड़ कर अपनी ओर
खींचते हुए बोले "देख जब मैं इसकी बुर मे लंड घुसाउन्गा तब तुम पीछे बैठ कर
इसकी बुर को अपने दोनो हाथों से कस कर फैलाना ताकि लंड को गहराई तक पेल
सकूँ." सावित्री इतना सुन कर सन्न रह गयी. वैसे सावित्री भी तुरंत चुदना
चाह रही थी. सावित्री वहीं खड़ी हो कर अपनी नज़रें झुका ली. तभी पंडित जी
भी चौकी पर चढ़ कर धन्नो के दोनो घुटनो को मोड़ कर थोड़ा जांघों को चौड़ा
कर दिए. धन्नो की बुर फैल गयी. लेकिन तभी पंडित जी ने सावित्री को कहा "तू
पीछे बैठ कर अपने दोनो हाथो से इस चुदैल की बुर की फांकों को ऐसा फैलाओ की
इसकी बुर की गहराई को चोद दूं." सावित्री ने अपने काँपते हाथों से धन्नो के
बुर के दोनो फांको को कस फैलाया तो बुर का मुँह खूल गया. धन्नो सावित्री
से बोली "अरे कस के फैलाना ...ताकि पंडित जी का पूरा लंड एक ही धक्के मे
ऐसा घूस जाए मानो मेरे गाओं के आवारे मुझे चोद रहे हों...फैला मेरी बुर को
मेरी बेटी रानी ऊ" सावित्री के फैलाए हुए धन्नो के बुर मे पंडित जी ने लंड
को एक ही झटके मे इतनी तेज़ी से पेला की लंड बुर के गहराई मे घुस गया और
दूसरे पल पंडित जी काफ़ी तेज़ी से पेलने लगे और सावित्री के हाथों से फैली
हुई बुर की चुदाई काफ़ी तेज होने लगी. सावित्री के हाथ पर पंडित जी के दोनो
अनदुए टकराने लगे. सावित्री की नज़रें पंडित जी के मोटे और गोरे लंड पर
टिक गयी जो धन्नो की बुर मे आ जा रहा था और लंड पर काफ़ी सारा चुदाई का रस
लगने लगा था. सावित्री की बुर भी चिपचिपा गयी थी. सावित्री का मन कर रहा था
की वह धन्नो की बुर मे चुदाई कर रहे लंड को अपनी बुर मे डाल ले. बुर की आग
ने सावित्री के अंदर की लाज़ और शार्म को एकदम से ख़त्म ही कर दिया था जो
की धन्नो चाहती थी की सावित्री एक चरित्रहीं औरत बन जाए तो फिर उसकी सहेली
की तरह गाओं मे घूम घूम कर नये उम्र के लड़कों को फाँस कर दोनो मज़ा ले
सकें. धन्नो की बुर को इतनी कस कस कर चोद रहे थे की पूरी चौकी हिल रही थी
मानो टूट जाए. कमरे मे चुदाइ और धन्नो की सिसकारीओं की आवाज़ गूँज उठी.
सावित्री का मनमे एक दम चुदाई हो चुकी थी. सावित्री भी यही चाह रही थी
पंडित जी उसे भी वही पर लेटा कर चोद दें. अब सावित्री लज़ाना नही चाह रही
थी क्योंकि उसकी बुर मे लंड की ज़रूरत एक दम तेज हो गयी थी. धन्नो ने भी
चुदते हुए फिर से अशीलता सुरू कर दी "चोदिए ऊ ऊवू ऊ ऊवू ऊ ह ऊओ हू रे ऊऊ मई
ऊऊ रे बाप ...कैसे घूस रहा है ...अरे बड़ा मज़ा आ रहा है ऐसे लग रहा की
कोई लड़का मुझे चोद रहाआ है अरे बेटी सावित्री...देख रे हरजाई मेरी बुर मे
कैसे लंड जा रहा है....तेरी भी बुर .....अब पनिया गयी होगी रे.....देख मेरी
बुर मे इस बुढ्ढे का लंड कैसे जा रहा है...ऊ ऊ ऊवू तू भी ऐसे ही चुदाना रे
बढ़ा मज़ा आता है ...ऊओहू हूओ ऊओहू ऊ ऊ ऊवू ऊवू ऊवू ऊवू ऊओहूओ स्सो ओहो
अरे इस गंदे काम मे इतना मज़ा आता है की क्या बताउ से हरजाई ...तू भी मेरी
तरह चुदैल बन ....तेरी भी बुर ऐसी ही चुदेगि....ऊ..." और पंडित जी ने इतने
तेज चोदना सुरू कर दिया की पूरी चौकी ऐसे हिलने लगी मानो अगले पल टूट ही
जाएगी. तभी धन्नो काफ़ी तेज चीखी "म्*म्म्मममममममममम ससस्स व्व न
कककककककककककककक ऊऊऊऊऊऊओह अरे कमीने चोद मेरी बुर और मेरी बेटी की भी चोद
मेरी मुसम्मि को भी चोद.....चोद कर बना डाल रंडी....मैं तो झड़ी आऊऊह ओ हू "
और इतना कहने के साथ धन्नो झड़ने लगी और तभी पंडित जी भी पूरे लंड को उसकी
बुर मे चॅंप कर वीर्य की तेज धार को उदेलना सुरू कर दिए और पीछे बैठी
सावित्री अपने हाथ को खींच ली और समझ गयी की पंडित जी धन्नो चाची की बुर मे
झाड़ रहे हैं और एक हाथ से अपनी बुर को सलवार के उपर से ही भींच ली.धन्नो तृप्त हो चुकी थी और पंडित जी भी खुश थे. दोनोने कपड़े पहन लिए और
पंडित जी दुकान भी खोल दिए. लेकिन सावित्री की प्यास वैसी ही बनी रही. मानो
उसके साथ कोई बेईमानी हो रही हो. सावित्री के पास इतनी हिम्मत नही थी की
पंडित जी से कह कर अपनी बुर चुदवा ले. एक गहरी साँस ले कर सावित्री भी
दुकान मे बैठ गयी.धन्नो ने पंडित जी के दुकान से अपनी बेटी के लिए सौंदर्या
के कुच्छ समान लिए फिर पंडित जी को पैसे देने लगी तब उन्होने ने पैसे वापस
कर दिए.और बोले ......"धन्नो आज मैं तुमसे बहुत खुश हूँ...तुम्हारी तरह की
बड़े दिल की औरतें खोजने से भी नही मिलती हैं..."इतना कह कर पंडित जी
धन्नो की ओर देख कर मुस्कुरा उठे. नज़रें झुकाए बैठी हुई धन्नो से आगे
बोले......"ये सब सौंदर्या का समान मेरे तरफ से तेरी बेटी को उपहार
है."धन्नो अपनी तारीफ सुन कर और सौंदर्या का समान मुफ़्त मे पा कर अंदर ही
अंदर प्रसन्नचित हो उठी और पंडित जी के इस नेक व्यवहार का जबाव देती हुई
बोली........."आप जैसा नेक्दिल इंसान भी नही मिलते पंडित जी...और क्या
कहूँ..."इतना कह कर धन्नो ने सावित्री की ओर देखी जो बगल मे बैठी थी लेकिन
उसकी आँखों मे वासना के डोरे सॉफ दिख रहे थे. फिर धन्नो ने आगे कुच्छ
लज़ाति हुई अपनी नज़रें झुकाए हुई बोली ........"पंडित जी आज जो भी हुआ
....किसी को पता ना चले...." इतना सुनते ही पंडित जी धन्नो को आश्वस्त करते
हुए बोले......"तू इसकी फिक्र मत कर...मेरे दुकान पर भी कभी कभी आ जाया
करना...मुझे तेरी जैसी औरतें बहुत पसंद हैं धन्नो.." पंडित जी की इस बात को
धन्नो सुनते ही खुश हो उठी और उसने पंडित जी को अपने घर आने का न्योता दे
डाली ..........."मैं तो आपके दुकान पर आती जाती रहूंगी...आपको भी मेरे घर आना
पड़ेगा....... मेरी भी इच्च्छा है की मैं आप को अपने घर पर देखूं.."फिर
पंडित जी ने कहा ..........."ठीक है...समय तो मिलता नही फिर भी दस मिनट के
लिए ही सही ...मैं आउन्गा ज़रूर..."धन्नो ने पंडित जी से आगे बोली
..........."मेरा घर गाँव के किनारे वाले बड़े बगीचे के पास मे है.. वहाँ
दो घर मिलेंगे जो थोड़ी थोड़ी दूरी पर हैं उसमे से एक मेरा और दूसरा इसका
है..." इतना कहते हुए धन्नो ने सावित्री की ओर इशारा किया.पंडित जी फिर आगे
बोले..........."चलो इसी बहाने सावित्री का भी घर देख लेंगे...क्यों
सावित्री...?" और सावित्री से पुच्छे तब सावित्री ने धीरे से मुस्कुराते
हुए बोली"जी ...ठीक है...."फिर आगे बोले ..........."तुम अपने मर्द के बारे
मे तो कुच्छ बताई नही..."फिर धन्नो कुच्छ खामोश रही फिर बोली
..........."उस कमीने के बारे मे क्या बताउ.....वो मेरे लिए मर्द कम मौत
ज़्यादा है.....दूसरे शहर मे अपना कमाता ख़ाता है...और उस शराबी ने तो मेरी
जिंदगी मे ज़हर ही घोल डाला है....घर से कोई मतलब ही नही रखता...........
साल भर मे दो दिन के लिए ही घर आ जाय तो बहुत बड़ी बात है..."फिर आगे बोली ..........."वो जो कमाता है कमीना सब दारू पी जाता है..बेटी
की पहली शादी मे भी कोई पैसा वैसा नही दिया ..आख़िर किसी तरह मुझे ही झेलना
पड़ा..........सच कह रही हूँ कभी कभी गुस्सा इतना आता है कि सोचती हूँ कि
वो दारुबाज मर जाता तो मैं अपनी माँग खुशी से धो डालती..."धन्नो का अपने
पति के उपर गुस्से को देख कर बोले..........."क्या कह रही हो अपने मर्द के
बारे मे...ऐसा नही कहते...आख़िर जैसा भी है तुम्हारा पति है..."इतना सुनना
था की धन्नो के गुस्से मे तूफान आ गया..........."उस बुर्चोदा की बात मत
कीजिए...वो मेरा पति नही बल्कि दोगला है...बुर्चोदा साला अपनी बाप के लंड
के पानी से पैदा होता तब तो अपने घर बीबी बेटी बेटा को समझता...उसकी मा ना
जाने किससे किससे चुदवा कर ऐसा दरुबाज़ पैदा कर डाली जो मेरी जिंदगी ही
बर्बाद कर दिया,..................सच कहती हूँ......मुझे उसके उपर इतना
गुस्सा लगती है की मैं भगवान से मनाती हूँ की मर जाता तो अच्च्छा
होता..."धन्नो ने ये सारी बातें तेज़ी से कह डाली फिर भी उसे संतोष नही हुआ
और आयेज बकना सुरू कर दी..........."कौन ऐसा होगा इंसान इस दुनिया मे जिसकी बेटी और बेटे जवान हो गये हो और वो
उनकी शादी के बजाय दारू मे ही मस्त रहता हो,.......उसी के वजह से बेटा भी
एक जवान लड़की ले कर भाग गया और अभी तक हम दोनो मा बेटी की खोज खबर लेने
नही आया...पता नही किसकी दया से हम दोनो मा बेटी इस दुनिया मे जिंदा
हैं..."पंडित जी ने धन्नो की बात सुनकर चुप हो गये फिर एक गहरी साँस लेकर
बोले..........."तुम ठीक ही कहती हो...नशा करने का ये मतलब नही होता की
अपने पत्नी और संतानो से ही मुँह मोड़ ले..."फिर आगे बोले..........."मैं
तुम्हारे घर जल्दी ही आउन्गाअ...वैसे जब शादी ठीक हो जाए तो मुझे भी बता
देना जो मदद हो सकेगी मैं भी कर दूँगा.."फिर धन्नो बोली ..........."इस
दुनिया मे आप जैसे लोग ना रहें तो मेरे जैसे किस्मत की मारी हुई औरतों और
लड़कियो का एक पल जीना दूभर हो जाए.....मेरी बेटी की पहली शादी मे मेरे
गाओं के चौधरी और कई लोगों ने पैसा दिया और मदद की ...नही तो मैं अकेली
उसकी शादी कैसे कर सकती थी....."फिर धन्नो आगे बोली ..........."मेरे गाओं
के चौधरी बहुत अच्छे आदमी हैं..हम ग़रीबों की बहुत मदद करतें हैं..."फिर
धन्नो ने सावित्री की ओर इशारा करते बोली .........."अब इसी का बाप मर गया
था तो इसकी मा के मुसीबत मे चौधरी ने बहुत सहारा दिया...लेकिन..."इतना कह
कर धन्नो चुप हो गयी. फिर पंडित जी ने पुचछा ..........."लेकिन क्या..?"फिर धन्नो ने कुच्छ मायूसी से सावित्री की ओर देखते बोली
..........."..क्या बताउ ...किसी ने ठीक ही कहा है ..होम करने से हाथ जल ही
जाते हैं....बेचारे चौधरी ने इसकी मा को सहारा क्या दिया की गाओं मे ये
हवा उड़ गयी की चौधरी इसकी मा को रख लिया है......, फिर इसकी मा चौधरी के
घर जाना ही छोड़ दी...मेरा गाओं बहुत गंदा है...किसी को इज़्ज़त से जीने
नही देता यहाँ तक की चौधरी को भी इसकी मा के चक्कर मे बे-इज़्ज़त होना
पड़ा.."फिर पंडित जी ने उत्सुकता से पुचछा ..........."गाओं वाले क्या कहने
लगे ....कैसे इस तरह की हवा उड़ गयी...?"फिर धन्नो ने सावित्री की ओर
देखते हुए बोली ..........."....अरे बस मेरा गाओं किसी की इज़्ज़त खराब
करने मे बहुत आगे रहता है...इसकी मा जब चौधरी के यहाँ काम करती थी तब कभी
कभी चौधरी अपने खेत पर इसकी मा से अपना शरीर मे तेल मालिश करवा लेते
थे........... और वो भी जब खेत पर कोई नही होता था तब..........क्योंकि की
चौधरी जानते थे की इतनी सी बात गाओं मे अफवाह फैला सकती है............और
किसी दिन गाओं की कुच्छ औरतें देख ली ....और शोर मच गया की इसकी मा चौधरी
के घर का काम के साथ साथ चौधरी के खेत पर बने झोपड़ी मे जा कर उसे तेल
मालिश के बहाने उससे मज़े लेती है...... "फिर पंडित जी बोले
..........."तुम तो जानती हो कि कुत्ते भोँकते है और हाथी चली जाती
है...गाओं मे इस तरह के कुत्ते होते हैं जो कुच्छ ना तो कुच्छ कहते रहते
हैं......इन मादरचोदो की इस तरह की बातों से डरना नही चाहिए..."धन्नो इस
बात की हामी भरते हुए बोली ..........."और क्या ...गाओं मे सब कीचल
उच्छालाने के अलावा कोई कुच्छ नही करता..."पंडित जी बोले ..........."इसकी
मा को भी समझा दिया कर की इस तरह की बातों से डरा या घबराया ना करे...बहुत
सीधी और लजाधुर औरत है सीता..."इतना सुनना था की धन्नो तपाक से बोली
..........."अरे इसकी मा तो मुझसे बात नही करती....क्या मुझे देखना नही
चाहती...ये तो आपकी दुकान पर उसकी बेटी से दो बातें कर ले रही हूँ नही तो
क्या मज़ाल की मैं इस लड़की से कुच्छ बोल दूं..."पंडित जी चौंकाते हुए
पुच्छे ..........."ऐसी कौन सी दुस्मनि है तुम दोनो मे....?"धन्नो मानो इस सवाल का जबाव पहले से ही तैयार रखी हो..........."मेरी तो
किसी से कोई दुश्मनी नही है...इसकी मा ही सबसे कहती रहती है की मैं रंडी
हूँ, छिनार हूँ और घूम घूम के मर्दों से चुदवाती रहती हूँ...यही नही बल्कि
यहाँ तक कह देती है की मेरी बेटी भी रंडी और छिनार है...."फिर पंडित जी के
कुच्छ बोलने के पहले ही बोली ..........."उस...हरजाई के उपर मुझे बहुत
गुस्सा आता है लेकिन मैं कुच्छ बोलती नही..." इतना सुनकर पंडित जी शांत हो
गये और कुच्छ पल बाद बोले ..........."तब तो वह बहुत रंडी है बुर्चोदि
साली...जब वा दूसरे औरत के बारे मे ऐसी बात करती है..."फिर कुच्छ सोचते हुए
आगे बोले..........." मैं तो उसे काफ़ी सीधी साधी समझता था....बहुत भोषड़ी
है रांड़ कुत्तिअ..."गुस्से मे आ कर धन्नो अपनी ही बात से पलटते हुए आगे
बोली ..........."....मुझे तो लगता है की गाओं की कुच्छ औरते सही ही कहती
हैं इसकी मा के बारे मे की बस उपर से शरीफ बनती है और ........सही बात तो
यही है की चौधरी ने चोद चोद कर उसका भोसड़ा बना दिया ... "लेकिन शायद यह
सोच कर की कहीं सावित्री को बहुत बुरा ना लगे धन्न्नो बात बदलते हुए पंडित
जी से बोली..........."..लेकिन इस लड़की का स्वाभाव अपनी मा से एकदम अलग ही
है ... बेचारी बहुत सरल और मिलनसार है... इसकी मा के चलते मैं भी इससे
कुच्छ नही बोलती..."धन्नो के बात को आगे बढ़ाते हुए पंडित जी बोले
..........."..ठीक तो है ..अपनी मा की बुराई इसके अंदर नही है.....बल्कि एक
अच्छि औरत के सारे गुण हैं...और वैसे भी औरत को मीठे स्वाभाव का मिलनसार
होना चाहिए..."
पंडित जी ने सावित्री की ओर देखते हुए
बोला. सावित्री अपनी तारीफ सुनकर मुस्कुरा दी.फिर पंडित जी ने धन्नो से
बोले..........." यदि इसकी मा तुम्हारी बदनामी करती है तो उसे मना कर दो एक
दिन.."धन्नो इस सलाह को ना मानते हुए बोली ..........."मुझे किसी की परवाह
नही है.....जिसको जो कहना है कहे ....बस कोई मुँह से कह ही सकता
है....इससे ज़्यादे क्या कर सकता है....जब उसकी बुर मे लंड नही मिलता है तो
दूसरे औरतों से तो जलेगी ही...."इतना कह कर धन्नो हँसने लगी और सावित्री
की ओर देखी . धन्नो की ऐसी बात को सुनकर पंडित जी भी हंस पड़े और बोले
..........."तुम ठीक कहती हो...अरे थोड़ा सावित्री को भी ये सब समझा दिया
करो...ये भी बहुत डरपोक किस्म की है..." धन्नो सावित्री के तरफ देखते बोली
..........."मेरे साथ रहेगी तो वैसे ही बहुत तेज़ हो जाएगी...उपर से भगवान
ने इसका शरीर बहुत गजब का दिया है...मैं तो इसे गाओं की सबसे बड़ी चुदैल
निकालूंगी..."इतना कह कर धन्नो ने लगभग ज़ोर से हंसते हुए बगल मे बैठी हुई
सावित्री के कंधे पर एक हाथ रख दी और फिर उसकी ओर देखते हुए
पुच्छी......................"क्यों ठीक कहा ना...?"
सावित्री एक बनावटी गुस्से से मुस्कुराइ
और धन्नो के हाथ को अपने कंधे से झटकारेटे हुए बोली..........."मुझसे ऐसी
बात मत किया करो...गंदी कहीं की...!"इतना सुन कर पंडित जी और धन्नो दोनो ही
ज़ोर से हंस पड़े और दोनो के हँसने के कारण सावित्री अपने को रोक नही सकी
और अपने मुँह को दोनो हाथों मे च्छूपा कर हँसने लगी.तीनो का हँसना जैसे ही
शांत हुआ धन्नो पंडित जी से बोली ..........."अब मैं घर जाना चाहती हूँ
लेकिन सावित्री को भी साथ ले जाउन्गी..."सावित्री धन्नो की ऐसी बात सुनकर
चौंक सी गयी और पंडित जी की ओर देखने लगी. फिर पंडित जी ने सावित्री से
कहा"....जाओ इसके साथ...लेकिन कल दुकान के समय आ जाना"इतना सुन कर धन्नो ने
पंडित जी से बोली..........."कल ये दुकान पर कैसे आएगी .. कल तो इसे मैं
अपने साथ ले जाउन्गि जहाँ अपनी लड़की को लड़के वालों को दीखानी है...अब
परसों ही आएगी आपके दुकान पर.."पंडित जी फिर बोले"ठीक है...ले जाओ मैं कहाँ
रोक रहा..."फिर कुच्छ मज़ाक के मूड मे बोले"....लेकिन कहीं इसकी मा दुकान
पे आ गयी तो मैं उसे बता दूँगा की धन्नो अपने साथ ले गयी है.....चुदैल
बनाने के लिए.."फिर तीनो ज़ोर से हंस पड़े. लेकिन इस बार सावित्री दोनो की
ओर देख कर हंस रही थी. सावित्री के इस बदले रूप को देखकर दोनो ही मस्त हो
गये.फिर धन्नो ने सावित्री से हंस कर बोली ..........."देख तुझे कैसे डरा रहे
हैं.."सावित्री पंडित जी के नज़रों मे देखते हुए धीरे से बोली
..........."मैं नही डरने वाली "पंडित जी सावित्री के मुँह से इस तरह की
बात सुन कर कुच्छ चिढ़ाने के अंदाज मे बोले..........."तो कल जा धन्नो के
साथ ...और मैं जा के तेरी मा से बोल दूँगा की आज दुकान पर नही आई है बल्कि
धन्नो के साथ कहीं गयी है...मरवाने ...!"फिर तीनो ज़ोर से हंस पड़े.हँसी
रुकते ही धन्नो उठी और सावित्री को भी उठने का इशारा की तब सावित्री भी
खड़ी हो गई. अभी शाम होने मे कई घंटे थे फिर दोनो दुकान से निकले और घर की
ओर चल दिए.रश्ते मे धन्नो ने सावित्री को धीरे से फुसलाते हुए बोली
..........."कल जब दुकान के लिए घर से निकलना तब मैं तुमसे रश्ते मे ही मिल
जाउन्गि और फिर वहीं से तुम मेरे साथ सगुण चाचा के घर चला
जाएगा...समझी..?"इतना सुन कर सावित्री ने जबाव मे बोली..........."ठीक
है.सावित्री की रज़ामंदी पा कर धन्नो काफ़ी खुश हो गयी. फिर जैसे ही सुनसान
रास्ता सुरू हुआ की सावित्री का बदन मस्ताने लगा. धन्नो ने सुनसान रश्ते
के किनारे पेशाब करने बैठ गयी. धन्नो की चुदी हुई बुर ठीक सावित्री के
सामने ही थी. सावित्री की नज़रें धन्नो की चुदी हुई बुर पर टिक से
गयी.धन्नो ने सावित्री से बोली ..........."तू भी मूत ले.."
ओर
ReplyDeleteKya superb lmbi chaudi kahani bnayi h..ki bhosdi das baar mut pdi
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